Tuesday, June 7, 2022

आज नंगी लाश भी नचवा रहे हैं लोग !


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लक्ष्मण मस्तुरिया का पहला 
हिन्दी कविता संग्रह : सिर्फ़ सत्य के लिए 
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          (आलेख - स्वराज करुण)
छत्तीसगढ़ी भाषा के लोकप्रिय जन कवि लक्ष्मण मस्तुरिया आज अगर हमारे बीच होते तो 73 साल के हो चुके होते , लेकिन उनका कवि हृदय उस वक्त भी अपनी रचनाओं में युवा दिलों की धड़कनों को स्वर दे रहा होता। बिलासपुर जिले के ग्राम मस्तूरी में 7 जून 1949 को जन्मे  लक्ष्मण मस्तुरिया की ज़िंदगी का सफ़र राजधानी रायपुर में 3 नवम्बर 2018 को अचानक हमेशा के लिए थम गया । उनके लाखों चाहने वाले श्रोता और प्रशंसक स्तब्ध रह गए । लेकिन लगता नहीं कि वो अब हमारे बीच नहीं हैं  ,क्योंकि  एलबमों में संरक्षित उनके सदाबहार गानों की अनुगूंज , जनता के होठों पर गाहेबगाहे  उन  गीतों की गुनगुनाहट और  किताबों में शामिल उनकी कविताएँ हमें एहसास दिलाती हैं कि वे आज भी यहीं कहीं हमारे आस- पास ही मौज़ूद हैं।
     उनकी कविताओं में  छत्तीसगढ़ सहित सम्पूर्ण भारत के आम जनों की ,मज़दूरों और किसानों की भावनाएँ तरंगित होती हैं ।   उनका जनप्रिय और कालजयी गीत है -- 'मोर संग चलव गा ' जिसमें समाज के गिरे ,थके ,लोगों से   साथ चलने का आव्हान है। आकाशवाणी के रायपुर केंद्र से सत्तर के दशक में जब पहली बार यह प्रसारित हुआ तो कर्णप्रिय संगीत के साथ इसके शब्दों ने  जनता को सम्मोहित कर लिया । लोग झूम उठे। तब से लेकर अब तक  विगत लगभग पाँच दशकों  में इस गीत ने लोकप्रियता का ऐसा कीर्तिमान बनाया है कि आज भी यह आम जनता की जुबान पर है। यहाँ तक कि परस्पर विरोधी राजनीतिक दलों  और एक -दूसरे के प्रतिस्पर्धी प्रत्याशियों भी  अपने चुनाव प्रचार के दौरान  रैलियों और आम सभाओं में लाउडस्पीकर पर इस गीत को बजवाते देखा  जा सकता है।। मस्तुरिया जी के ऐसे कई छत्तीसगढ़ी गीत हैं ,जिनके ऑडियो वीडियो कैसेट और एलबम काफी लोकप्रिय हुए हैं। उनकी छत्तीसगढ़ी कविताओं के  प्रकाशित संकलनों में (1)हमू बेटा भुइंया के (2) गंवई -गंगा (3) घुनही बंसुरिया (4) छत्तीसगढ़ के माटी  शामिल है ,वही एक खंड काव्य 'सोनाखान के आगी' भी प्रकाशित हो चुका है ,जो यहाँ के महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अमर शहीद ,सोनाखान के वीर नारायण सिंह के नेतृत्व में 1857 में अंग्रेज हुकूमत के ख़िलाफ़ हुए विद्रोह पर आधारित है। 
    आम जनता के बीच   लक्ष्मण मस्तुरिया की पहचान एक अत्यंत लोकप्रिय छत्तीसगढ़ी कवि और गायक के रूप में है ,उन्होंने छत्तीसगढ़ी फिल्मों के लिए भी कई भावुक और कर्णप्रिय गीत लिखे। लेकिन यह अधिकांश लोगों को नहीं मालूम कि उन्होंने राष्ट्रभाषा हिन्दी में भी खूब कविताएँ लिखीं।  उनकी हिन्दी कविताओं का पहला  संकलन 'सिर्फ़ सत्य के लिए 'वर्ष 2008 में राजधानी रायपुर की साहित्यिक संस्था 'सृजन सम्मान 'द्वारा प्रकाशित किया गया था। इसमें उनकी 71 कविताएँ शामिल हैं । इनमें मुक्त छंद की रचनाओं के साथ -साथ छन्दबद्ध रचनाएँ भी हैं । पहली कविता है --गाँवों की ओर। इसमें लक्ष्मण कहते हैं --

"लौट चलो गाँवों की ओर ,
गौतम -गाँधी मिलेंगे , 
गलियों ,चौपाल पर ,
खेतों की मेड़ ,
नदी ,नालों और ताल पर ।
मुक्त करो प्राण पंख 
सभ्यता की डोर।
शहरों की भीड़ में 
खो गया विवेक ,
रास्ते बहुत बने ,पर 
आदमी वह एक, 
रुंध रहे दिल -दिमाग ,
दहलाते शोर। 
रुपयों के पीछे बस 
भाग रहा आदमी ,
प्रतिस्पर्धा -धूर्तता में 
नाच रहा आदमी ,
पंगु व्यवस्था में बढ़ा
डंडे का जोर।"

संग्रह की शीर्षक कविता 'सिर्फ़ सत्य के लिए ' में आज के विसंगतिपूर्ण लोकतंत्र में सिर झुकाकर जीने को मज़बूर आम नागरिक की पीड़ा  अभिव्यक्त होती है । कवि इस बेरहम व्यवस्था पर तंज कसते हुए उस दलित ,शोषित मनुष्य से कहता है --

"मस्तक जरा झुकाकर जी , सर को यहाँ बचा कर जी , 
सबके सब पद्मासन में ,तेरा क्या सिंहासन में ।
कंचन बिखरा आंगन पर ,कंकर तेरे दामन भर , 
अपने हिस्से के रजकण को अपना तिलक बनाकर जी।
छूना मत अनजाने मे, बैठे  सर्प ख़जाने में ,
निर्धन की क्या हस्ती है ,धनवालों की बस्ती है। 
अपनी खरी मजूरी पर तू रूखी -सूखी खाकर जी।
पग -पग अत्याचार बढ़ा ,झूठों का सत्कार बढ़ा ,
छल जो किया अदाओं ने ,तमगे दिए सभाओं ने।
देख ,समझ मत लेकिन उंगली दांतो तले दबाकर जी।
तूने जितना भी देखा ,वह सब पानी पर रेखा।
पाँव-पाँव में कंटक है ,जीवन सब पर संकट है।
बीच डगर पर पड़े हुए ये सारे शूल उठाकर जी। 
है बिसात क्या भवनों की ,शोभा कितनी ,गहनों की ।
हर श्रृंगार अधूरा है ,सारा वैभव धूरा है।
सिर्फ़ सत्य के लिए स्वयं की अंतर ज्योति  जलाकर जी।"

किसी भी सच्चे कवि की संवेदनाएँ  सम्पूर्ण सृष्टि यहाँ तक कि रूखी -सूखी घास के प्रति भी  होती है । कवि कफ़न ढूंढती लाश और युद्ध के विनाश से भी दुःखी होता है।लक्ष्मण मस्तुरिया 'दुःख  है 'शीर्षक कविता में  कहते हैं --

"सबको अपनी प्यास का दुःख है ,
मुझे धरा ,आकाश का दुःख है।
टूट गिरी जो उस शबनम को 
रूखी -सूखी घास का दुःख है।
फिक्र तुम्हें है नागफनी की ,
मुझको मगर  पलाश का दुःख है।
चार गिरह जो कफ़न ढूंढती ,
बदक़िस्मत उस लाश का दुःख है।
कभी बात रोटी तक पहुँची 
और कभी आवास का दुःख है।
फूँके जो आबाद घरों को ,
ऐसे युद्ध विनाश का दुःख है। "

 कवि सम्मेलनों के मंचों पर भी वह काव्य पाठ करते थे ,जहाँ सैकड़ों ,हजारों श्रोता उन्हें मंत्रमुग्ध होकर सुना करते थे ,क्योंकि उनकी रचनाओं में आम जनता के दिलों की आवाज़ गूंजती थी। उनमें आम जनों का दर्द झलकता और छलकता था। मंचीय कवि सम्मेलनों में वह ख़ूब जमते थे ,लेकिन उन्हें कवि सम्मेलनों में कुछ कवियों द्वारा हास्य कविता के नाम पर परोसा जाने वाला विदूषकीय  फूहड़पन बिल्कुल पसंद नहीं था। मंचीय  कविता की आड़ में होने वाली  चुटकुलेबाजी से उन्हें सख़्त नफ़रत थी। उनके  इस हिन्दी काव्य संग्रह के दो मुक्तकों में इसे महसूस किया जा सकता है--

      (1)
"डंडे को बेलन क्या कहना 
टुनटुन को हेलन क्या कहना।
चुटकुले सुनाने वाले मंच को 
कवि सम्मेलन क्या कहना।
     (2)
चारों ओर चलन बिक रहा है ,
असहाय मेरा वतन दिख रहा है।
इस कारण राष्ट्र रतन मिट रहा है,
चिंतन और लेखन बिक रहा है।"

लोकतंत्र के नाम पर आज के सियासी माहौल को देखकर भी वह बहुत क्षुब्ध रहते थे।  साहित्यिक मंचों के साथ -साथ राजनीतिक मंचों के वातावरण से वह  निराश थे। उनकी यह निराशा इस संग्रह की 'मंच पर ' शीर्षक कविता में  व्यंग्य के रूप में प्रकट हुई है --

"मंच पर विदूषक बनकर आ रहे हैं लोग 
वर्जनाएं भूलकर सब गा रहे हैं लोग।
बात पहुँची है यहाँ तक इस नई तहज़ीब में ,
आज नंगी लाश भी नचवा रहे हैं लोग।"

संग्रह में मुक्त छंद की उनकी कविता 'रंगे सियार बैठे हैं ' देश और समाज के वर्तमान माहौल पर निशाना साधती है। वह जनता को 'रंगे सियारों ' से सावधान करते हैं।कुछ पंक्तियाँ देखिए --

"संभल कर रहना साथियों ,
रंगे सियार बैठे हैं, 
पराये कंधों से बन्दूक चलाने वाले बैठे हैं।
यहाँ सुकर्म आदर्शों का मोल 
कौन समझेगा ?
जो जितना होगा पैंतरेबाज , 
उतना और चमकेगा।"

संग्रह की कविताओं पर छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध साहित्यकार विनोद शंकर शुक्ल ने 'संस्कृति की बदसूरती के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की कविताएँ " शीर्षक अपनी भूमिका के अंत में लिखा है --" लक्ष्मण मस्तुरिया की हिंदी कविताएँ मंचवादी नहीं हैं। वे मुग्ध करने या वाह -वाह करने के लिए नहीं लिखी गई हैं। वे पाठक या श्रोता को अपने समय और परिवेश की विसंगतियों पर सोच -विचार के लिए उत्तेजित करने वाली कविताएँ हैं। विलुप्त होती मनुष्यता की चिन्ता उनकी मूल धुरी है।समय और समाज की विसंगतियों से कवि की टकराहट के विविधकोणी छायाचित्र उनमें उपस्थित हैं। "संग्रह में वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. शोभाकांत झा का अभिमत भी प्रकाशित किया गया है। उन्होंने लिखा है --" कविता भी एक कला है ,सृजन है ,सौन्दर्यमूलक सत्याग्रह है और है मनुष्य में निहित एक बेहतर संसार की मांग। इस मांग और समाधान के बीच से लक्ष्मण मस्तुरिया का कविता संग्रह 'सिर्फ़ सत्य के लिए 'उपजा है।" इन रचनाओं के संदर्भ में दोनों विद्वान साहित्यकारों की ये टिप्पणियाँ बहुत मूल्यवान हैं।
     वास्तव में लक्ष्मण मस्तुरिया की ये हिन्दी कविताएँ  मानव हृदय की कोमल भावनाओं के साथ गाँव ,शहर ,देश और समाज की जीवन व्यापी हलचल और आज के मनुष्य के दुःख -दर्द का एक जीवंत दस्तावेज है।- स्वराज करुण

5 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (08-06-2022) को चर्चा मंच      "निम्बौरी अब आयीं है नीम पर"    (चर्चा अंक- 4455)     पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'    
    --

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    1. बहुत- बहुत धन्यवाद आदरणीय शास्त्री जी।

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  2. वाह वाह, बहुत सुंदर

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    1. हार्दिक आभार ओंकार जी ।

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    2. हार्दिक आभार ओंकार जी ।

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