सार्वजनिक गणेश उत्सवों के कितने आयोजकों को
लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की याद आती है ? क्या उन्हें मालूम है कि आधुनिक भारत में यह
सांस्कृतिक परम्परा महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तिलक जी की देन है ? उन्होंने
स्वतंत्रता आंदोलन में देशवासियो को अधिक से अधिक संख्या में जोड़ने के लिए
पुणे (महाराष्ट्र ) में सन् 1893 - 94 में इसकी शुरुआत की थी ।
(चित्र सौजन्य Google )
गणेश उत्सवों में एकत्रित होने वाले भक्तों के बीच राष्ट्रीय एकता के साथ देशभक्ति का संचार करना, भारतीयों के दिलों से अंग्रेजी हुकूमत के काले कानूनों का खौफ दूर करना उनका मुख्य उद्देश्य था । आज उनकी इस महान परम्परा के लगभग सवा सौ साल पूरे हो रहे हैं ।पहले यह परम्परा लोगों के घरों तक सीमित रहा करती थी .तिलक जी ने महाराष्ट्र में इसे सामाजिक और सार्वजनिक विस्तार देकर आज़ादी के आन्दोलन से जोड़ा . इतना ही नहीं ,बल्कि उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के अपने अभिन्न सहयोगियों- विपिन चन्द्र पाल और अरविंदो घोष को बंगाल में सार्वजनिक दुर्गोत्सव शुरू करने की प्रेरणा दी . इस प्रकार सामूहिक गणेशोत्सव और दुर्गा पूजा को राष्ट्रीय स्वरुप मिला .पश्चिमी भारत में गणेशोत्सव और पूर्वी भारत में दुर्गोत्सव देखते ही देखते सम्पूर्ण भारत के लोक महोत्सव बन गए . इन आयोजनों के माध्यम से भारतीयों को भावनात्मक रूप से एक-दूसरे के नजदीक आने और आज़ादी के आन्दोलन के लिए संगठित होने का मौक़ा मिला .
(चित्र सौजन्य -Google)
देश में भाद्र शुक्ल चतुर्थी से सार्वजनिक गणेश उत्सवों का श्री गणेश हो गया है . स्थानीय परम्पराओं के अनुसार कहीं तीन दिन ,कहीं पांच दिन और कहीं दस दिन तक गणेश पूजन की धूम रहती है . इस पावन अवसर पर तिलक जी की याद आना स्वाभाविक है . उन्होंने राष्ट्र-प्रेम की जिस पवित्र भावना से इस महान परम्परा का शुभारंभ किया था , आशा है कि यह आगे भी जारी रहेगी . सार्वजनिक गणेश उत्सवों के आयोजकों से हमारा यह आग्रह रहेगा कि वे इस ऐतिहासिक परम्परा के संस्थापक तिलक जी को भी जरूर याद रखें और कुछ ऐसा करें कि गणेश पंडालों में आने वाले भक्तों की वर्तमान पीढ़ी को उनके बारे में भी जानकारी मिल सके ।
प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं - हमने अपने बचपन में देखा है कि हमारे स्कूल में भी सार्वजनिक गणेश उत्सव मनाया जाता था । तरह - तरह की झाँकियाँ सजाई जाती थीं । गणेशजी की छत्रछाया में और अध्यापकों के मार्गदर्शन में बच्चों के लिए कई रचनात्मक प्रतियोगिताएँ भी हुआ करती थी ,जैसे - तात्कालिक भाषण , वाद -विवाद , कविता पाठ, चित्रकला आदि । कई बार नाटक भी खेले जाते थे । कबड्डी ,खो - खो जैसे कुछ पारम्परिक खेलों का भी आयोजन हो जाता था । स्थानीय नागरिकों के सहयोग से पुरस्कार भी दिए जाते थे । यह कोई तीस - पैंतीस या अधिक से अधिक चालीस - बयालिस साल पुरानी बात होगी । ।
तब समाज में आज की तरह संकीर्ण मानसिकता हावी नहीं थी । सभी धर्मों और समाजों के बच्चे और नागरिक इन आयोजनों में उत्साह के साथ शामिल होते थे । समाज की मानसिकता बदले तो आज भी ऐसा हो सकता है । बहरहाल सभी मित्रों को गणेश चतुर्थी की हार्दिक बधाई और स्नेहिल शुभेच्छाएँ - स्वराज करुण
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गणेश उत्सवों में एकत्रित होने वाले भक्तों के बीच राष्ट्रीय एकता के साथ देशभक्ति का संचार करना, भारतीयों के दिलों से अंग्रेजी हुकूमत के काले कानूनों का खौफ दूर करना उनका मुख्य उद्देश्य था । आज उनकी इस महान परम्परा के लगभग सवा सौ साल पूरे हो रहे हैं ।पहले यह परम्परा लोगों के घरों तक सीमित रहा करती थी .तिलक जी ने महाराष्ट्र में इसे सामाजिक और सार्वजनिक विस्तार देकर आज़ादी के आन्दोलन से जोड़ा . इतना ही नहीं ,बल्कि उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के अपने अभिन्न सहयोगियों- विपिन चन्द्र पाल और अरविंदो घोष को बंगाल में सार्वजनिक दुर्गोत्सव शुरू करने की प्रेरणा दी . इस प्रकार सामूहिक गणेशोत्सव और दुर्गा पूजा को राष्ट्रीय स्वरुप मिला .पश्चिमी भारत में गणेशोत्सव और पूर्वी भारत में दुर्गोत्सव देखते ही देखते सम्पूर्ण भारत के लोक महोत्सव बन गए . इन आयोजनों के माध्यम से भारतीयों को भावनात्मक रूप से एक-दूसरे के नजदीक आने और आज़ादी के आन्दोलन के लिए संगठित होने का मौक़ा मिला .
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देश में भाद्र शुक्ल चतुर्थी से सार्वजनिक गणेश उत्सवों का श्री गणेश हो गया है . स्थानीय परम्पराओं के अनुसार कहीं तीन दिन ,कहीं पांच दिन और कहीं दस दिन तक गणेश पूजन की धूम रहती है . इस पावन अवसर पर तिलक जी की याद आना स्वाभाविक है . उन्होंने राष्ट्र-प्रेम की जिस पवित्र भावना से इस महान परम्परा का शुभारंभ किया था , आशा है कि यह आगे भी जारी रहेगी . सार्वजनिक गणेश उत्सवों के आयोजकों से हमारा यह आग्रह रहेगा कि वे इस ऐतिहासिक परम्परा के संस्थापक तिलक जी को भी जरूर याद रखें और कुछ ऐसा करें कि गणेश पंडालों में आने वाले भक्तों की वर्तमान पीढ़ी को उनके बारे में भी जानकारी मिल सके ।
प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं - हमने अपने बचपन में देखा है कि हमारे स्कूल में भी सार्वजनिक गणेश उत्सव मनाया जाता था । तरह - तरह की झाँकियाँ सजाई जाती थीं । गणेशजी की छत्रछाया में और अध्यापकों के मार्गदर्शन में बच्चों के लिए कई रचनात्मक प्रतियोगिताएँ भी हुआ करती थी ,जैसे - तात्कालिक भाषण , वाद -विवाद , कविता पाठ, चित्रकला आदि । कई बार नाटक भी खेले जाते थे । कबड्डी ,खो - खो जैसे कुछ पारम्परिक खेलों का भी आयोजन हो जाता था । स्थानीय नागरिकों के सहयोग से पुरस्कार भी दिए जाते थे । यह कोई तीस - पैंतीस या अधिक से अधिक चालीस - बयालिस साल पुरानी बात होगी । ।
तब समाज में आज की तरह संकीर्ण मानसिकता हावी नहीं थी । सभी धर्मों और समाजों के बच्चे और नागरिक इन आयोजनों में उत्साह के साथ शामिल होते थे । समाज की मानसिकता बदले तो आज भी ऐसा हो सकता है । बहरहाल सभी मित्रों को गणेश चतुर्थी की हार्दिक बधाई और स्नेहिल शुभेच्छाएँ - स्वराज करुण
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