-स्वराज्य करुण
महानदी, अरपा, पैरी, शिवनाथ और इन्द्रावती की जलधाराओं के बीच पर्वतों और सघन वनों से सुसज्जित छत्तीसगढ़ अपनी इन्द्रधनुषी लोक संस्कृति के साथ आज भारत के नक्शे पर एक नए राज्य के रूप में पहचाना जा रहा है। यह एक ऐसा मनोरम उद्यान है, जहां व्यापक रूप से प्रचलित छत्तीसगढ़ी भाषा के साथ हल्बी, भतरी, गोंडी, सादरी जैसी आंचलिक बोलियों के रंग-बिरंगे फूल अपने मधुर गीत-संगीत की मीठी महक से सहज ही सबको आकर्षित करते हैं।छत्तीसगढ़ को राज्य बने अभी केवल तेरह साल हुए हैं। एक नवम्बर 2000 को यह देश का छब्बीसवां राज्य बना .
अलग राज्य की पहचान मिलते ही छत्तीसगढ़ के विकास की वर्षों पुरानी संभावनाओं को मानो नये पंख लग गए। भारत का यह नया राज्य खेती-किसानी, सिंचाई, बिजली, व्यापार-वाणिज्य, उद्योग, शिक्षा और बुनियादी सुविधाओं के विकास की हर दिशा में ऊंची उड़ान भरने लगा। फिल्म उद्योग में भी उसने अपने पंख पसारे। राज्य बना तो यहां कला-संस्कृति के क्षेत्र में भी उत्साह जागना स्वाभाविक था। लिहाजा, इस दौरान हमारे यहां अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर निर्मित छत्तीसगढ़ी फिल्मों की एक लंबी सूची तैयार हो चुकी है और मुम्बई के 'वालीवुड' की तर्ज पर छत्तीसगढ़ का अपना फिल्म उद्योग 'छालीवुड' के नाम से पहचाना जाने लगा है। विज्ञान और टेक्नालॉजी के नए-नए आविष्कारों से सिनेमा की तेजी से बदलती तकनीक ने छालीवुड पर भी गहरा असर डाला है। सोलह एम.एम. और छत्तीस एम.एम. सेल्युलाईड फिल्मों की जगह अब वीडियो सी.डी. ने ले ली है। अत्याधुनिक डिजिटल वीडियो कैमरे आ चुके हैं। प्रोजेक्टर और ब्लैक एंड व्हाईट फिल्मों का जमाना इतिहास बन चुका है।
तड़क-भड़क के साथ रूपहले परदे पर तरह-तरह की रंगीनियां, हर दिन नवीन राग-रागिनियों के साथ अपने जादुई जल्वे बिखेर रही हैं, लेकिन लगता है - यह सब 'इन्द्रजाल' के किसी कुशल जादूगर के ऐसे कार्यक्रमों की तरह है, जिन्हें देख कर हॉल से निकलने के बाद दर्शकों में जादूगर के जादुई करिश्मों के बारे में थोड़ी-बहुत चटकारेदार चर्चा तो होती है, पर अपने-अपने घर जा कर सब उसे भूल जाते हैं। खैर, ऐसा तो 'बालीवुड' में भी हो रहा है, जहां करोड़ों-अरबों रुपयों की लागत से बन रही फिल्मों और उनके बेढब गीत-संगीत को भी लोग किसी 'फास्ट फुड' की तरह कुछ देर स्वाद लेने के बाद दोबारा याद नहीं करते । मेरे ख्याल से इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि हमारे आज के सिनेमा में रंगीनियां तो खूब हैं, लेकिन दर्शकों की आम जिन्दगी से जुड़ी सुख-दु:ख की कहानियां नहीं है। वर्ना क्या कारण है कि 'मदर इंडिया' और 'उपकार' जैसी फिल्मों के गाने आज भी लोगों की जुबान पर आसानी से आ जाते हैं, जबकि आज का कोई भी फिल्मी गीत समाज में दो-चार महीने से ज्यादा टिक नहीं पाता। कालजयी और सदाबहार फिल्मों का दौर अब रहा नहीं, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन्हीं फिल्मों के पटकथा लेखकों, निर्माता-निर्देशकों, गीतकारों, संगीतकारों, नायक-नायिकाओं और कलाकारों ने मिलकर भारतीय सिनेमा के गतिशील इतिहास का पहला अध्याय लिखा था।
मनु नायक :जिन्होंने रखी छत्तीसगढ़ी फिल्म उद्योग की बुनियाद
मनु नायक :जिन्होंने रखी छत्तीसगढ़ी फिल्म उद्योग की बुनियाद
भारत की पहली बोलती फिल्म 'आलमआरा' सन् 1930-31 के आस-पास प्रदर्शित हुई थी। उसके मात्र दो-तीन या चार दशकों के भीतर देशवासियों को अनेक यादगार फिल्में देखने को मिली, जिनमें देशभक्ति से लेकर ऐतिहासिक, धार्मिक और सामाजिक कहानियों पर आधारित कई चलचित्र शामिल हैं। इतिहास के हिसाब से देखा जाए तो तीस-इकत्तीस साल का समय बहुत ज्यादा नहीं होता। प्रथम भारतीय बोलती फिल्म 'आलमआरा' के मात्र 31 साल बाद और आज से 48 साल पहले छत्तीसगढ़ में यहां के माटी-पुत्र मनु नायक के हाथों आंचलिक फिल्म उद्योग की बुनियाद रखी जा चुकी थी। यही कारण है कि आज 'छालीवुड' उन्हें छत्तीसगढ़ी फिल्मों का 'दादा साहब फाल्के' कहकर उनके प्रति सम्मान प्रकट करता है। देश की आजादी के महज 18 साल के भीतर पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म 'कहि देबे संदेस' का रूपहले परदे पर आना वाकई एक ऐतिहासिक घटना थी। देश आजाद हुआ 1947 में और यह श्वेत-श्याम फिल्म आयी 1965 में।
अपने शीर्षक के अनुरूप यह वास्तव में एक संदेश प्रधान फिल्म थी, जिसमें छुआछूत के खिलाफ जन-जागरण के लिए ब्राम्हण वर्ग की नायिका और सतनामी समुदाय के नायक के बीच प्रेम कहानी को आधार बना कर मनु जी ने जनता को सामाजिक समरसता का संदेश दिया . फिल्म ग्रामीण परिवेश पर आधारित है। आजादी के प्रारंभिक वर्षों में पंचवर्षीय योजनाओं के साथ सहकारिता आंदोलन का भारी उत्साहजनक माहौल था, जिसका प्रभाव इस फिल्म में भी देखा जा सकता है। इसमें किसानों को उनकी चौपाल में सहकारिता के महत्व पर बातचीत करते दिखाया गया है। आज तो नित नये तकनीकी संसाधनों से फिल्मों का निर्माण बहुत आसान हो गया है, लेकिन मनु जी ने जब 'कहि देबे संदेस' के निर्माण का निर्णय लिया, उन दिनों छत्तीसगढ़ में न तो फिल्म शूटिंग के लिए कैमरे थे और न ही उनकी एडिटिंग आदि की सुविधा, जो आज राजधानी रायपुर सहित राज्य के अनेक बड़े शहरों में आसानी से उपलब्ध हैं। संसाधनों के अभाव के दौर में यहां छत्तीसगढ़ी भाषा में फिल्म निर्माण के लिए आगे आना तो दूर, इस बारे में सोचना भी मुश्किल था, लेकिन मनु नायक ने इस चुनौती को स्वीकार किया।
उन्होंने 'कहि देबे संदेस' के माध्यम से आंचलिक फिल्मों के लिए छत्तीसगढ़ में जमीन तैयार करने का उल्लेखनीय कार्य किया। तब छत्तीसगढ़ को राज्य का दर्जा नहीं मिला था। यह अलग बात है कि राज्य निर्माण का सपना हमारे पूर्वज काफी पहले से देख रहे थे। पंडित सुन्दरलाल शर्मा, ठाकुर प्यारेलाल सिंह और डॉक्टर खूबचंद बघेल जैसे तपस्वी और तेजस्वी नेता इसके लिए जनमत बनाने का काम कर रहे थे। हालांकि छत्तीसगढ़ी भाषा का पहला व्याकरण् प्रसिध्द साहित्यकार पंडित हीरालाल काव्योपाध्याय ने एक सौ वर्ष पहले ही तैयार कर लिया था, छत्तीसगढ़ी में अनेक रचनाकार साहित्य लेखन भी कर रहे थे, लेकिन आजादी के लगभग दो दशक बाद भी छत्तीसगढ़ी भाषा की अपने छत्तीसगढ़ से बाहर कोई विशेष पहचान नहीं बन पायी थी। मनु नायक कहते हैं- छत्तीसगढ़ी अत्यंत मधुर और समृध्द भाषा है, लेकिन वह एक ऐसा दौर था, जब छत्तीसगढ़ में पैदा हुए और पले बढ़े हम जैसे लोग अपने घरों से बाहर अपनी ही भाषा में आपस में बोलने-बतियाने में संकोच करते थे। यह देखकर मुझे लगता था कि अपनी जमीन की भाषा में भी कोई फिल्म जरूर बनानी चाहिए, ताकि छत्तीसगढ़ की जनता में अपनी जुबान को लेकर स्वाभिमान जागे . सौभाग्य से यह मौका मुझे मिला। अपनी इस फिल्म के निर्माण से लेकर टाकीजों में उसके प्रदर्शन तक लगभग 50 वर्ष पहले की सभी घटनाएं मनु जी को किसी चलचित्र की तरह आज भी याद हैं।
वह रायपुर जिले के ग्राम कूंरा (बंगोली) के रहने वाले हैं। इसी गांव में उनका जन्म 11 जुलाई 1937 को हुआ था। उस जमाने के युवाओं की तरह फिल्मों में किस्मत आजमाने का हसीन सपना लिए मनुजी मात्र 20 वर्ष की उम्र में यानी सन् 1957 में मुम्बई चले गए थे। तब से मुम्बई महानगर में ही रहना हो रहा है। परिवार भी उनके साथ मुम्बई निवासी हो गया है। इधर कूंरा (बंगोली) में कुछ खेती है, इसलिए हर दो-तीन माह में मनुजी का छत्तीसगढ़ आना-जाना लगा रहता है। मनु जी बताते हैं- मुम्बई में वर्ष 1957-58 में प्रसिध्द फिल्म निर्माता स्वर्गीय महेश कौल के दफ्तर में नौकरी मिल गयी । कौल साहब और मशहूर पटकथा लेखक पंडित मुखराम शर्मा उन दिनों संयुक्त रूप से अपनी फिल्म कम्पनी 'अनुपम चित्र मंदिर' का संचालन करते थे। इस कम्पनी के बैनर तले उस दौर की लोकप्रिय फिल्म 'तलाक' का निर्माण हुआ। इस फिल्म मे कवि प्रदीप के लिखे एक गीत की रिकार्डिंग भी मनु जी के सामने हुई थी। इस गीत की इन पंक्तियों को गुनगुनाकर मनु जी आज भी बेहद भावुक हो जाते हैं और जोश से भर उठते हैं-
बिगुल बज रहा आजादी का, गगन गूंजता नारों से,
मिला रही है आज हिंद की मिट्टी नजर सितारों से।
कहनी है एक बात हमको वतन के पहरेदारों से,
संभल के रहना अपने घर में छुपे हुए गद्दारों से।
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मनु जी कहते हैं - देश और समाज के हालात को देखते हुए यह गीत आज भी प्रासंगिक है। उन्होंने मुम्बई की फिल्मी दुनिया में काम करते हुए वर्ष 1961-62 में जब पहली भोजपुरी फिल्म 'गंगा मईया तोहे पियरी चढ़ईबो' की अपार लोकप्रियता देखी, तो उन्हें लगा कि छत्तीसगढ़ी भाषा में भी फिल्म क्यों नहीं बन सकती ? दोस्तों ने भी उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने अपने इस सपने को साकार करने का संघर्ष यहीं से शुरू कर दिया। उन्हें संवेदनशील गीतकार के रूप में डॉ. हनुमंत नायडू 'राजदीप' जैसे सहयोगी मिले, जो छत्तीसगढ़ के ही थे। दुर्ग निवासी डॉ. नायडू की प्रारंभिक शिक्षा वहीं के मारवाड़ी स्कूल में हुई। शासकीय हायर सेकेण्डरी स्कूल तथा महात्मा गांधी स्कूल दुर्ग में उन्होंने अध्यापक के रूप में सेवाएं दी। वर्ष 1958 में मुम्बई के एल्फिंस्टन कॉलेज में इंटरव्यू देने के बाद वहां हिन्दी व्याख्याता के पद पर उनका चयन हो गया था। मनुजी ने उन्हें छत्तीसगढ़ी भाषा में फिल्म निर्माण की अपनी योजना बतायी और उनसे 'कहि देबे संदेस' के लिए गीत लिखने का आग्रह किया। छत्तीसगढ़ की माटी में सात अप्रैल 1933 को जन्मे और पले-बढ़े डॉ. हनुमंत नायडू मूलत: तेलगू भाषी परिवार से थे। इसके बावजूद छत्तीसगढ़ी और हिन्दी भाषा और साहित्य से उनका गहरा आत्मीय लगाव था। वह उन दिनों इन दोनों भाषाओं के लोकप्रिय कवि के रूप में तेजी से उभर रहे थे। विगत 25 फरवरी 1998 को नागपुर (महाराष्ट्र) में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। मनु नायक पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म के मधुर गानों के रचनाकार के रूप में आज भी उन्हें बेहद भावुक होकर याद करते हैं।
मनु जी कहते हैं - देश और समाज के हालात को देखते हुए यह गीत आज भी प्रासंगिक है। उन्होंने मुम्बई की फिल्मी दुनिया में काम करते हुए वर्ष 1961-62 में जब पहली भोजपुरी फिल्म 'गंगा मईया तोहे पियरी चढ़ईबो' की अपार लोकप्रियता देखी, तो उन्हें लगा कि छत्तीसगढ़ी भाषा में भी फिल्म क्यों नहीं बन सकती ? दोस्तों ने भी उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने अपने इस सपने को साकार करने का संघर्ष यहीं से शुरू कर दिया। उन्हें संवेदनशील गीतकार के रूप में डॉ. हनुमंत नायडू 'राजदीप' जैसे सहयोगी मिले, जो छत्तीसगढ़ के ही थे। दुर्ग निवासी डॉ. नायडू की प्रारंभिक शिक्षा वहीं के मारवाड़ी स्कूल में हुई। शासकीय हायर सेकेण्डरी स्कूल तथा महात्मा गांधी स्कूल दुर्ग में उन्होंने अध्यापक के रूप में सेवाएं दी। वर्ष 1958 में मुम्बई के एल्फिंस्टन कॉलेज में इंटरव्यू देने के बाद वहां हिन्दी व्याख्याता के पद पर उनका चयन हो गया था। मनुजी ने उन्हें छत्तीसगढ़ी भाषा में फिल्म निर्माण की अपनी योजना बतायी और उनसे 'कहि देबे संदेस' के लिए गीत लिखने का आग्रह किया। छत्तीसगढ़ की माटी में सात अप्रैल 1933 को जन्मे और पले-बढ़े डॉ. हनुमंत नायडू मूलत: तेलगू भाषी परिवार से थे। इसके बावजूद छत्तीसगढ़ी और हिन्दी भाषा और साहित्य से उनका गहरा आत्मीय लगाव था। वह उन दिनों इन दोनों भाषाओं के लोकप्रिय कवि के रूप में तेजी से उभर रहे थे। विगत 25 फरवरी 1998 को नागपुर (महाराष्ट्र) में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। मनु नायक पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म के मधुर गानों के रचनाकार के रूप में आज भी उन्हें बेहद भावुक होकर याद करते हैं।
हनुमंत जी चूंकि मुम्बई के कॉलेज में नौकरी में थे, इस लिए कुछ तकनीकी सावधानी के लिहाज से उन्होंने केवल 'राजदीप' उपनाम से इस फिल्म के गाने लिखे, जो काफी लोकप्रिय हुए। मनु नायक के आग्रह पर उस जमाने के प्रसिध्द संगीतकार मलय चक्रवर्ती ने इसमें अपना संगीत दिया और मनु जी के ही विशेष अनुरोध पर मोहम्मद रफी, मन्ना डे, महेन्द्र कपूर, सुमन कल्याणपुर और मीनू पुरूषोत्तम जैसे महान कंठ-शिल्पियों ने इन गीतों में अपनी मधुर आवाज की मिठास घोल कर हल-चल मचा दी। चाहे रफी साहब की आवाज में 'झमकत नदिया बहिनी लागे-परबत मोर मितान' हो या 'तोर पैरी के झनर-झनर-तोर चूरी के खनर-खनर' चाहे मीनू पुरूषोत्तम की आवाज में ' बिहिनिया के ऊगत सुरूज देवता-तोरे चरनन के प्रभु जी मैं दासी हवंव-बीच नदिया में रहिके पियासी हवंव' जैसा भावपूर्ण गीत, या फिर सुमन कल्याणपुर की आवाज में बिदाई गीत 'मोरे अंगना के सोन चिरईया नोनी', फिल्म के हर गीत में छत्तीसगढ़ के आम जन-जीवन की, गांव, खेत और खलिहानों की, रिश्ते-नातों की तमाम संवेदनाएं साकार हो उठी। यही कारण है कि 14 अप्रैल 1965 को जब दुर्ग के प्रभात टाकिज में फिल्म रिलीज हुई तो दर्शकों ने फिल्म और उसके गीतों को हाथों हाथ लिया। सामाजिक समरसता और सहकारिता पर बल देने वाली पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म को मनु जी के आग्रह पर तत्कालीन अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री स्वर्गीय पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र ने मनोरंजन टैक्स से मुक्त कर दिया था।
फिल्म का शीर्षक गीत 'दुनिया के मन आघू बढ़गे, चंदा तक मां जायं रे - कहि देवौ सन्देस सबो ला-कोन्हो झन पछुवांय रे भैया, कोन्हों झन पछुवायं रे- वास्तव में मन्ना डे और उनके साथियों की आवाज में देशभक्ति पूर्ण कोरस के रूप में सुनने वालों के दिल-दिमाग पर एक अलग ही रोमांच उत्पन्न करता है। राजदीप के इस गीत में मेहनत के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा गया है कि दुनिया के लोग आगे बढ़ गए हैं और चन्द्रमा तक पहुंच गए हैं। किसी को भी उनसे पीछे नहीं रहना है। गीतकार ने अपनी इस रचना में देश और समाज से भेदभाव दूर करने, गांव में पिरित (प्रीत) लुटाने और देश की रक्षा के लिए एकजुट होने का भी आव्हान किया गया है। यह गीत भिलाई इस्पात संयंत्र की पृष्ठ भूमि पर फिल्माया गया है, जिसमें छत्तीसगढ़ के प्रथम औद्योगिक तीर्थ भिलाई की तुलना 'काशी' से करते हुए उसे भारत का नया तीर्थ बताया गया है और उसके लिए परिश्रम का गंगा जल अर्पित करने का आव्हान किया गया है।
छत्तीसगढ़ी भाषा और छत्तीसगढ़ी भाव-भूमि पर केन्द्रित होने की वजह से दर्शकों को 'कहि देबे संदेस' की कहानी और उसके गीतों में अपनेपन का खुशनुमा और लुभावना एहसास मिला। यही वजह थी कि इस फिल्म की चर्चा देखते ही देखते छत्तीसगढ़ के कोने-कोने में पहुँच गयी और इसके गीत जन-जन की जुबान पर छा गए। हालांकि फिल्म में सतनामी समाज के नायक और ब्राम्हण समाज की नायिका के बीच प्रेम और शादी तक बात पहुंचने की कहानी से उन दिनों कुछ संकीर्ण मनोवृत्ति के लोगों ने इसमें व्यवधान डालने और विवाद खड़ा करने का भी प्रयास किया, लेकिन तत्कालीन केन्द्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी ने फिल्म का प्रिंट दिल्ली मंगवा कर स्वयं छत्तीसगढ़ के सांसदों और विधायकों के साथ इसका अवलोकन किया और इसे राष्ट्रीय एकता पर आधारित फिल्म कहकर विवाद का पटाक्षेप कर दिया। मनु जी ने तत्कालीन परिस्थितियों को याद करते हुए कहते हैं- छत्तीसगढ़ की प्रथम महिला सांसद स्वर्गीय श्रीमती मिनी माता ने जब इंदिरा जी के समक्ष फिल्म की स्क्रीनिंग के बाद मनु जी को उनसे से मिलवाया तो इंदिरा जी ने कहा - ''आपने बहुत अच्छी फिल्म बनाई है, ऐसी फिल्में और बननी चाहिए।'' इसके बाद इंदिरा जी ने प्रेस को बयान जारी कर दिया कि यह फिल्म वास्तव में राष्ट्रीय एकता पर आधारित है। फलस्वरूप रायपुर में फिल्म को लेकर उठा विवाद स्वत: समाप्त हो गया। हालांकि एक समाज विशेष के लोगों के लगातार आग्रहपूर्ण मानसिक दबाव से तंग आकर मनु जी ने फिल्म में नायक-नायिका की शादी के सात फेरों के दृश्य को बेमन से काट दिया और सिर्फ नायिका की बिदाई दिखाकर और हीरो को फौज में भर्ती के लिए जाते हुए दिखाकर कहानी का समापन कर दिया। मनु जी नि:संकोच स्वीकार करते हैं कि ऐसा करने से फिल्म की कहानी की तारतम्यता कुछ असंतुलित हो गयी है, फिर भी कहानी में उसके केन्द्रीय भाव यथावत हैं।
मनु जी ने 30 अप्रैल 1967 के साप्ताहिक 'हिन्दुस्तान' में प्रकाशित 'छत्तीसगढ़ी फिल्म निर्माण : नई दिशा- रूकते कदम' शीर्षक से प्रकाशित अपने आलेख में लिखा है- 'बम्बई (अब मुम्बई) के फिल्म जगत ने एकाएक एक नई करवट ली है। 'गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ईबो' जैसी भोजपुरी फिल्म की सफलता ने आंचलिक फिल्मों का एक नया क्षेत्र निर्माताओं के सामने खोल दिया था। धड़ाधड़ भोजपुरी फिल्मों के निर्माण की घोषणाएं हो रही थी। हमने प्रथम छत्तीसगढ़ी फिल्म 'कहि देबे सन्देस' की घोषणा की। यह निश्चित रूप से सत्य है कि आचंलिक फिल्मों की ओर निर्माताओं के आकर्षण का मुख्य कारण यह था कि इन फिल्मों के लिए 'स्टार कास्ट' या बड़े कलाकारों का महत्व अधिक नहीं था। ये फिल्में नये कलाकारों को लेकर भी बनाई जा सकती थीं और इनकी लागत कम होती थी। फलस्वरूप व्यापारिक लाभ की गुंजाइश अधिक थी, परन्तु हमारे सामने उस समय इस प्रकार के व्यापारिक लाभ का कोई सपना नहीं था। हममें एडवेंचर करने की, कुछ नया कर गुजरने की भावना अधिक थी। साथ ही हम अपनी प्रदेश की संस्कृति को, यहां के लोगों के युग-युग से गूंगे आंसुओं को, युग-युग से अनबोली मुस्कानों को फिल्म का एक नया स्वर देना चाहते थे और यहीं भावना लेकर आर्थिक अड़चनों के तूफान के बीच हमने सीमित साधनों का दीपक लेकर 'कहि देबे सन्देस' का निर्माण प्रारंभ किया। केवल मनोरंजन के लिए फिल्म निर्माण पर मैं विश्वास नहीं करता। मैं मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षा और जन-रूचि के परिष्कार को महत्व देता हूँ ।'
पिछले कुछ महीनों में थोड़े-थोड़े अंतराल में रायपुर में मनु जी से मेरी कई छोटी-छोटी मुलाकातें हुई। उनकी इस फिल्म को लेकर मैने उत्सुकतावश कई सवाल भी उनके सामने रखे। यादों के झरोखे से झांकते हुए मनु जी बताते हैं - फिल्म की शूटिंग 22 दिनों तक रायपुर से करीब 60 किलोमीटर दूर विकासखंड मुख्यालय पलारी और उसके आस-पास के इलाकों में हुई। उन दिनों पलारी गांवनुमा कस्बा ही था। आज भी लगभग वैसा ही है, लेकिन आबादी बढ़ी तो अब यह नगर पंचायत बन गया है। फिल्मांकन के लिए मनु जी जब नवम्बर 1964 में मुम्बई से कलाकारों के साथ अपनी पूरी यूनिट लेकर रायपुर आए तो, जिन दो लोगों ने उन्हें शूटिंग में सहयोग का भरोसा दिया था, उन्होंने ऐन मौके पर उनको धोखा दे दिया और खिसक गए। मनुजी को गहरा झटका लगा। वह निराश हो गए। तभी रायपुर की सड़क पर हताशा में टहलते हुए उनकी मुलाकात तत्कालीन विधायक स्वर्गीय श्री बृजलाल वर्मा से हुई जो बाद में वर्ष 1977 में महासमुंद से लोकसभा सांसद निर्वाचित होकर मोरारजी देसाई की सरकार में केन्द्रीय संचार और उद्योग मंत्री बने। वह पलारी के रहने वाले थे। मनु जी के पूर्व परिचित थे। उन्होंने मनु जी को आवाज लगाई। हालचाल पूछा। मनु जी ने परेशानी बतायी तो, वर्मा जी ने सहर्ष उन्हें अपने गांव पलारी में शूटिंग के लिए आमंत्रित किया और पूर्ण सहयोग का भरोसा भी दिलाया। इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने पूरी फिल्म यूनिट के लिए पलारी में रूकने का पूरा इंतजाम भी करवा दिया। फिल्म की महिला कलाकारों को शूटिंग में पहनने के लिए वर्मा जी ने अपने परिवार की महिला सदस्यों के कर्णफूल आदि हर तरह के आभूषण भी दिलवा दिए। मनु जी बताते हैं- शूटिंग के लिए वर्मा जी के चाचा बलिराम जी का पूरा मकान उन्हें मिल गया। पलारी में शूटिंग देखते ही देखते पूरी हो गयी। मनु जी बताते हैं - मैंने अपनी फिल्म में ज्यादातर कलाकार छत्तीसगढ़ से ही लिए हैं। उनमें भी कुछ कलाकार तो पलारी के ही स्थानीय लोगों में से थे। फिल्म में सहजता और सजीवता बनाए रखने के लिए और स्थानीय कलाकारों को प्रोत्साहित करने के लिए मैंने इसे जरूरी समझा। मनु जी ने फिल्म के हीरो नयनदास के पिता चरणदास की भूमिका स्वर्गीय श्री बृजलाल वर्मा के चचरे भाई विष्णुदत्त वर्मा को दी, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया। स्कूल अध्यापक की भूमिका में निकटवर्ती बलौदाबाजार के शिक्षक सोहन लाल को लिया गया। सतनामी समाज के कार्यक्रम के दृश्य में प्रवचन करने वाले का किरदार उसी समाज के गुरू को दिया गया।
दिलचस्प बात यह भी है कि छत्तीसगढ़ी भाषा की इस पहली फिल्म में हीरो की भूमिका उस जमाने की सिंधी फिल्मों के लोकप्रिय कलाकार कानमोहन को दी गई। उनके मित्र की भूमिका निभाने वाले कलाकार थे कपिल कुमार, जो साप्ताहिक 'हिन्दुस्तान' के पत्रकार भी रह चुके थे। महिला पात्रों की भूमिका के लिए मनु जी ने मुम्बई की जिन महिला कलाकारों को लिया था, उनमें उमा, दुलारी बाई और सुरेखा उल्लेखनीय है। रायपुर के जफर अली फरिश्ता उन दिनों मुम्बई की फिल्मी दुनिया में लम्बा समय बिता चुके थे। मनु जी ने उन्हें 'कहि देबे संदेस' में विलेन (कमल नारायण) के किरदार में लिया। छत्तीसगढ़ के प्रसिध्द साहित्यकार स्वर्गीय डॉ. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के भतीजे स्वर्गीय रमाकांत बख्शी इस फिल्म में नायिका रूपा के पिता की भूमिका में नजर आते हैं। रमाकांत जी उन दिनों रंगमंच के कुशल कलाकार के रूप में भी अपनी पहचान बना चुके थे। एक दिलचस्प प्रसंग यह भी है कि फिल्म में सहकारिता के बारे में किसानों की चौपाल में भाषण देने वाले नेता जी की भूमिका विधायक स्वर्गीय श्री बृजलाल वर्मा को दी गयी, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया, लेकिन मनु जी की ओर से जब उन्हें इस भाषण के लिए संवाद लिखकर दिया गया तो उन्होंने उसे छोड़कर उत्साह में अपनी ओर से ही सहकारिता के बारे में संक्षिप्त भाषण दे डाला। मनु जी बताते हैं कि उन्होंने वर्मा जी के इस भाषण को अपनी फिल्म में यथावत ले लिया। फिल्म की अधिकांश शूटिंग पलारी और उसके निकटवर्ती क्षेत्र में घर, आंगन, खेत-खलिहान, मंदिर ,तालाब तथा गांव की गलियों में की गई।
पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म का एक भावुक दृश्य
फिल्म का नायक चूंकि कृषि की उच्च शिक्षा के लिए शहर चला जाता है, इसलिए इसमें रायपुर के कृषि महाविद्यालय का दृश्य भी फिल्माया गया है। इस फिल्म का मुहूर्त शॉट छात्रावास के दृश्य के रूप में 14 नवम्बर 1964 को रामकृष्ण् मिशन आश्रम रायपुर के एक कक्ष में हुआ, जिसमें हीरो कानमोहन और उनके मित्र की भूमिका निभाने वाले कपिल कुमार के बीच हुए संवादों का फिल्माया गया है। फिल्म का पहला गीत छत्तीसगढ़ी ददरिया शैली में है, जिसकी प्रारंभिक पंक्तियां है- कोइली रे कुहकय आमा के डार मां - चले आबे पतरेंगी रे होरे... होरे... नवा तरैया पार मां। यह गीत महेन्द्र कपूर और मीनू पुरूषोत्तम की आवाज में है, जिसे पलारी में बाल समुन्द तालाब और नौवीं शताब्दी के ऐतिहासिक मंदिर की पृष्ठ भूमि में फिल्माया गया है। इसी तरह मीनू पुरूषोत्तम की आवाज में 'बिहिनिया के उगत सुरूज देवता.... की शूटिंग भी इसी तालाब और मंदिर परिसर में की गयी है। मोहम्मद रफी की आवाज में तालाब के घाट में 'तोर पैरी के झनर-झनर- तोर चूरी के खनर-खनर' गीत अभिनेत्री कमला बैरागी पर फिल्माया गया । कमला अब इस दुनिया में नहीं हैं।
पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म के निर्माण से जुड़ी मेहनत और जद्दोजहद की कई कहानियां हैं, जो सिनेमा के सेल्यूलाइड रीलों की तरह आज भी मनु जी को एक-एक कर याद आती हैं, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है इस फिल्म का वह कथासार, जो उनके ही शब्दों में कुछ इस प्रकार हैं-
''हमारे गांव हरियाली ओढ़ कर भी जलते रहे हैं- अशिक्षा, अज्ञानता, अंधविश्वास, छुआछूत और निर्धनता की आग में और इस आग में ईंधन झोंकते रहे हैं वे, जिन्हें इस पर अपने स्वार्थ की रोटियां सेंकनी थी। एक ऐसे ही जलते हुए गांव की लपटों पर दो फूल खिलते हैं - नयनदास गांव में शूद्र समझी जाने वाली सतनामी जाति के आंगन में और रूपा- अपने को समाज में सबसे उच्च समझने वाले ब्राम्हण वर्ग की बगिया में। गांव के स्कूल में दोनों साथ पढ़ते हैं। बचपन का यह बाल सुलभ आकर्षण कब प्रेम में परिणत हो गया, कोई कह नहीं सकता। नयनदास शहर से कृषि स्नातक की उपाधि लेकर, गांव को सच्चे अर्थों में गांधी नेहरू के सपनों का गांव बनाने का संकल्प लेकर लौटता है। वह गांव के लोगों को मुकदमे बाजी के दलदल से निकालकर संगठित करता है। उनमें सहकारिता की सांसे फूंक कर नये तरीके से खेती करके मेहनत का अर्थ समझता है। उसे अपने ब्राम्हण मित्र रवि से, जो अब डॉक्टर बन गया है और गांव आ गया है, बड़ी सहायता मिलती है, लेकिन धर्म और समाज के तथाकथित ठेकेदारों -पुजारी और कमल नारायण के भीषण धार्मिक और सामाजिक विरोध का सामना भी उसे करना पड़ता है, परंतु तूफान किसी भी विरोध से नहीं रूकते। नयनदास एक ऐसा ही तूफान था-नये युग का, नई प्रगति का, जिसने विरोधों के सामने सिर नहीं झुकाया। कार्य से दूर अवकाश के झनों में नयनदास का हृदय रूपा के लिए तड़फ उठता है और इधर सीता-सावित्री के देश की नारी रूपा- जिसे अपनी हर मुस्कान और हर आंसू का हिसाब समाज को देना होता है, न तो हँस पाती है और न ही रो पाती है। रवि के प्रत्यनों से रूपा और नयन मंदिर में मिलते हैं- उस ईश्वर के सम्मुख, जिसके सामने सब समान है। खलनायक कमल गांव वालों को भड़काता है। धर्म प्राण समाज में बवण्डर उठ जाता है। धर्म की रगों का खून उबलने लगता है। लाठियां उठ जाती है। धर्म के ये दीवाने धर्म और जीवन बगिया के सबसे सुगंधित पुष्प-दया, करूणा और प्रेम को कुचल कर एक-दूसरे के रक्त से धर्म-भूमि मंदिर को रंग देने को तैयार हो जाते हैं। और तब एक प्रश्न उठता है - यदि ईश्वर के चरणों से उत्पन्न गंगा पवित्र है, तो उसी ईश्वर के चरणों से उत्पन्न शूद्र अपवित्र और अछूत कैसे हो सकता है ? धर्म, जाति और समाज की खोखली दीवारें, जो इंसान से इंसान को अलग करती हैं, इस प्रश्न की सच्चाई की आंच को सह नहीं पाती और सिर झुका लेती हैं। परंतु प्रतिहिंसा वह नागिन है, जो मरते-मरते भी फुंफकारती है। इसी प्रतिहिंसा की आग में जलता हुआ खलनायक कमल सारे गांव को जला कर भस्म कर देता है। उसे अपने कृत्य का फल तो मिलता ही है, साथ ही जले हुए गांव की भस्म पर एक नया गांव जन्म लेता है- बापू के राम राज्य का गांव।''
छत्तीसगढ़ में छुआछूत की सामाजिक बुराई के खिलाफ जन चेतना जाग्रत करने वालों का और समाज सुधार के आन्दोलनों का एक गौरवशाली इतिहास है। गुरू बाबा घासीदास ने 18वीं शताब्दी में 'सतनाम पंथ' के प्रवर्तन से यहां सामाजिक सदभावना की ज्योति प्रज्जवलित की थी। उनके बाद स्वतंत्रता संग्राम के जमाने में 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में पंडित सुन्दरलाल शर्मा जैसे मनीषी साहित्यकार ने अछूतोध्दार का ऐसा रचनात्मक अभियान चलाया कि छत्तीसगढ़ प्रवास के दौरान राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अस्पृश्यता निवारण आंदोलन में उन्हें अपना 'गुरू' कहकर सम्मानित किया। डॉ. खूबचंद बघेल ने छत्तीसगढ़ी नाटक 'ऊंच-नीच' की रचना की और कई जगहों में उसका मंचन भी करवाया। सहकारिता आंदोलन का भी छत्तीसगढ़ में एक सौ वर्षों का गौरवशाली इतिहास रहा है। पंडित वामनराव लाखे और ठाकुर प्यारेलाल सिंह जैसे नेताओं ने यहां सहकारिता के लिए उपजाऊ जमीन तैयार करने का उल्लेखनीय कार्य किया। वर्ष 2011 में दुर्ग के जिला सहकारी केन्द्रीय बैंक ने अपना शताब्दी समारोह मनाया। रायपुर का जिला सहकारी केन्द्रीय बैंक जनवरी 2013 में शताब्दी पूर्ण कर चुका है । इसी कड़ी में हम यह कह सकते हैं कि मनु नायक ने अस्पृश्यता निवारण और सहकारिता आंदोलन की गौरवशाली छत्तीसगढ़िया परम्परा को 'कहि देबे संदेस' के माध्यम से आगे बढ़ाने का भी उल्लेखनीय कार्य किया है।
उनकी इस फिल्म में गांव वालों के बीच सतनामी समाज के धर्म गुरू अपने प्रवचन में संत कबीर के एक दोहे का उल्लेख करते हुए कुछ इस तरह लोगों को समझाते हैं - कुम्हार किसिम किसिम के हंड़िया बनाथे, सब्बेच माटी एकेच्च हे। गाय मन रंग-रंग के होथे, फेर सब्बो के दूध एकेच्च होथे। अइसने ये दुनिया म रंग-रंग के चोला हम देखथन....... एकर सेती भईया, मैं तुंहर मन से बिनती करत हवं - एकता से राहव, छूआछूत, ऊंच-नीच सब ल मिटावव, उही म तुंहार, हमार, समाज सबके कल्याण हे। अर्थात कुम्हार तरह-तरह के मटके बनाता है, लेकिन उन सबकी माटी एक होती है। गाय अलग-अलग रंगों की होती है, लेकिन उसका दूध एक जैसा होता है। उसी तरह इस दुनिया में भी हम अलग-अलग तरह के मानव शरीर (चोला) को देखते हैं। इसलिए भाईयों ! मैं आप लोगों से यह बिनती करता हूं कि एकता से रहें, छुआछूत और ऊंच-नीच को मिटाएं। इसी में तुम्हारा, हमारा और समाज का कल्याण होगा। फिल्म की कहानी में गांव के जमींदार ब्राम्हण समाज के शिव प्रसाद पाठक (रमाकांत बख्शी) और एक छोटे किसान सतनामी समाज के चरणदास (विष्णुदत्त वर्मा) के बीच जमीन विवाद के मुकदमे को लेकर हुए तनाव को भी दर्शाया गया है, जिसमें अन्यायपूर्ण ढंग से जमींदार की जीत होने पर चरणदास आवेश में आकर फरसा लेकर उनकी हत्या करने के इरादे से घर से निकल जाता है। चरणदास की पत्नी फूलबती (सविता) बचाव के लिए जमींदार के घर पहुंच जाती है, लेकिन जमींदार भी तैश में आकर बंदूक उठा लेता है और चरणदास पर हमला करने निकल पड़ता है। निराश होकर फूलबती आत्महत्या के इरादे से तालाब में कूद पड़ती है। तभी जमींदार में मानवीय संवेदना जाग उठती है और वह तालाब में उतरकर उसके प्राणों की रक्षा करता है। बस, इसी एक घटना से ब्राम्हण और सतनामी परिवारों के बीच दुश्मनी खत्म हो जाती है, लेकिन सतनामी परिवार के नयनदास और ब्राम्हण परिवार की रूपा के बीच बाल सुलभ मित्रता उनके बड़े होने पर जब प्यार में तब्दील हो जाती है, तब उनके बीच खलनायक कमल नारायण (जफर अली फरिश्ता) और गांव के पंडित यानी शिव कुमार दीपक उनके भावनात्मक रिश्ते को खत्म करना चाहते हैं। कई तरह के घटनाचक्र में फिल्म की कहानी घूमती है। यह एकता ,सहकारिता और समता का सन्देश देने वाली एक उद्देश्यपूर्ण फिल्म है,जिसके लगभग हर दृश्य में मानवीय संवेदनाओं का सागर लहराता है.
आज से दो-तीन-चार दशक पहले तक फिल्मी गीतों की छोटी-छोटी पुस्तिकाएं बुक स्टॉलों में और टॉकिजों के आस-पास पान की दुकानों में भी बिका करती थी। अपनी प्रथम छत्तीसगढ़ी फिल्म के गानों की एक पुस्तिका मनु जी के पास सुरक्षित है। इसमें 'कहि देबे संदेस' शीर्षक के साथ ऊपर छपा है - 'छत्तीसगढ़ के आंसुओं और मुस्कानों की कहानी।' इस फिल्म के प्रारंभ और समापन में भी कुछ ऐसे ही भाव उभरते नजर आते हैं।
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