- स्वराज्य करुण
आर्थिक भ्रष्टाचार का एक भयानक नमूना है -वस्तुओं की उत्पादन लागत को गोपनीय रखना . दुनिया में उद्योग-व्यापार की जब से शुरुआत हुई है, तब से यह भ्रष्टाचार खुले आम चल रहा है ,लेकिन किसी को भी यह महसूस नहीं होता ,जबकि मानव द्वारा मानव को बेवकूफ बनाकर लूटने-खसोटने का यह सबसे बड़ा माध्यम बन चुका है और हर इंसान इसे हँसी-खुशी आत्म सात भी कर चुका है . उसे अहसास भी नहीं होता कि कोई बहुत सफाई से उसकी जेब काट रहा है .
आर्थिक भ्रष्टाचार का एक भयानक नमूना है -वस्तुओं की उत्पादन लागत को गोपनीय रखना . दुनिया में उद्योग-व्यापार की जब से शुरुआत हुई है, तब से यह भ्रष्टाचार खुले आम चल रहा है ,लेकिन किसी को भी यह महसूस नहीं होता ,जबकि मानव द्वारा मानव को बेवकूफ बनाकर लूटने-खसोटने का यह सबसे बड़ा माध्यम बन चुका है और हर इंसान इसे हँसी-खुशी आत्म सात भी कर चुका है . उसे अहसास भी नहीं होता कि कोई बहुत सफाई से उसकी जेब काट रहा है .
दुनिया में हर व्यक्ति रोज कोई न कोई सामान किसी न किसी दुकान से
खरीदता ज़रूर है , वह उस वस्तु पर छपे विक्रय मूल्य का भुगतान तो कर देता है
,लेकिन यह जानने की कोशिश नहीं करता कि उस वस्तु के उत्पादन में या
निर्माण में लागत कितनी आयी है ? यहाँ तक कि जब हम कोई मकान खरीदते हैं ,उस
वक्त भी यह जानने का प्रयास नहीं करते कि बिल्डर ने उसके निर्माण में
कितनी राशि खर्च की है ? हो सकता है -जिस मकान के निर्माण में चार लाख रूपए
खर्च हुए हैं, , उसे वह बीस लाख रूपए में बेच रहा हो.बिल्डरों को मकानों
की लागत साफ़-साफ़ घोषित करना चाहिए .जेनेरिक दवाइयों का ज्वलंत उदाहरण हमारे सामने है. इन दवाइयों में भी वही सब तत्व होते हैं ,जो किसी ब्रांडेड कम्पनी की दवाइयों में ,लेकिन ब्रांडेड दवाइयों की कीमत जेनेरिक औषधियों की तुलना में कई गुना ज्यादा होती है . इस बारे में पिछले साल आमीर खान के एक टी.व्ही. शो में इस मुद्दे को लेकर काफी बहस भी हुई थी,कुछ राज्य सरकारों ने डॉक्टरों को मरीजों के लिए जेनेरिक दवाइयां ही लिखने के निर्देश जारी किये थे ,लेकिन नतीजा शून्य रहा. डॉक्टर आज भी ब्रांडेड दवाइयां ही मरीजों को प्रेसक्राइब करते हैं ,ताकि मेडिकल स्टोर्स के माध्यम से मुनाफे का हिस्सा हर महीने एक मोटी रकम के रूप में उन तक पहुंचता रहे .इस प्रकार देश में मेडिकल माफिया द्वारा मरीजों को खुले आम लूटा जा रहा है.
अगर प्रत्येक दवाई के पैकेट पर अधिकतम खुदरा विक्रय मूल्य के साथ अधिकतम उत्पादन लागत भी प्रिंट करना अनिवार्य हो जाए तो मेडिकल मार्केट में होने वाली यह लूट-खसोट काफी हद तक कम हो पुस्तकों की छपाई में कितनी लागत आती
है इसे हम नहीं जानते ,लेकिन प्रिंटर और प्रकाशक तो जानता है . दस रूपए
की लागत वाली किताब सौ रूपए में बेची जाती है. इसी तरह मै सोचता हूँ कि जब
हर पैक्ड वस्तु के पैकेट पर अधिकतम खुदरा विक्रय मूल्य यानी maximum retail price
(M.R.P.)प्रिंट हो सकता है ,तब उसी पैकेट में अधिकतम उत्पादन लागत यानी
maximum retail production cost (M.R. P.C) क्यों नहीं प्रिंट हो सकता ? निर्माता अगर
चाहे तो जिस प्रक्रिया से वह अधिकतम विक्रय मूल्य प्रिंट करता है ,उसी तरह
अपने प्रोडक्ट के उत्पादन में लगे सभी तरह के खर्चों को मिलाकर प्रति
यूनिट लागत की जानकारी भी दे सकता है .लेकिन मनमर्जी मुनाफ़ा हासिल करने की
लालच में वह उपभोक्ताओं को लागत की जानकारी देना ही नहीं चाहता !
विक्रय
मूल्य और लागत मूल्य के बीच एक गोपनीय गहरी खाई है ,जो महंगाई का मुख्य
कारण है .मेरे विचार से अब हमे देर नहीं करनी चाहिए और यह मांग उठानी चाहिए
कि हर पैक्ड वस्तु में अधिकतम विक्रय मूल्य के साथ उसकी अधिकतम लागत भी
लिखना अनिवार्य कर दिया जाए .पारदर्शिता की चर्चा वाले इस युग में उपभोक्ता
वस्तुओं के पैकेटों में लागत मूल्य की गोपनीयता को खत्म किया जाना चाहिए .
इसके लिए अगर ज़रूरी हुआ तो हमे अदालतों का भी दरवाजा खटखटाना चाहिए . मुझे
लगता है कि भारत में अगर ऐसा क़ानून बन जाए तो विक्रय मूल्य के साथ लागत
मूल्य घोषित करने वाला यह दुनिया का पहला देश होगा. तब यह हम सबके लिए गर्व की बात होगी .,.
ऐसा हो तब न गर्व की बात होगी ..
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