बेशर्मों ने हिन्दी पर इस बार बड़ी बेरहमी से हमला किया है. हमें सावधान और सचेत होकर उनका मुकाबला करना होगा .दिल्ली की अंग्रेजी शीर्षक वाली एक पत्रिका ने अपने २८ दिसम्बर २०११ के हिन्दी संस्करण में 'हिंग्लिश' यानी कथित अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी की तरफदारी करते हुए प्रकाशित आवरण कथा में बड़ी बेशर्मी से ऐलान कर दिया है कि सरकारी हिन्दी का ज़नाजा उठ गया है .इसके साथ ही नीचे और भी बेशर्मी से नारा लिखा गया है-इंग्लिश हिन्दी जिंदाबाद .इतने पर भी जब जी नहीं भरा तो इसने आवरण कथा का शीर्षक दे दिया -वाह ! हिंग्लिश बोलिए ! नरेंद्र सैनी की आवरण कथा के इस वाक्य पर भी जरा गौर करें-- 'देश के युवाओं के बीच खासी लोकप्रिय हो रही भाषा को केन्द्र सरकार ने भी अपनाया ' यहाँ कथित रूप से इस लोकप्रिय भाषा का आशय हिन्दी और अंग्रेजी की बेमेल और बेस्वाद खिचड़ी यानी 'हिंग्लिश' से है. ज़रा सोचिये क्या वाकई यह तथा कथित 'हिंग्लिश' भारत के युवाओं में लोकप्रिय हो रही है ? इसके बावजूद इस वाक्य में ऐसा लिखना और छापना देश के युवाओं को भाषा के नाम पर गुमराह करने की कोशिश और साजिश नहीं, तो और क्या है ? पत्रिका के इसी अंक में 'हिन्दी मरेगी नहीं,बढ़ेगी ' शीर्षक से मनीषा पाण्डेय ने अपने आलेख में फरमाया है- ''हिंग्लिश को लेकर साहित्यिक गलियारों में स्वीकृति के स्वर मज़बूत होने लगे हैं ''.ऐसा लिख कर क्या हिन्दी साहित्य और हिन्दी के साहित्यकारों को अपमानित नहीं किया जा रहा है ? क्या हमारे हिन्दी लेखकों को चुनौती नहीं दी जा रही है ? भारत २८ प्रदेशों और ७ केन्द्र शासित राज्यों का एक आज़ाद मुल्क है ,जहां हर प्रदेश ,हर राज्य की अपनी अपनी लोकप्रिय भाषाएँ हैं,जो अपने आप में काफी समृद्ध हैं . हिन्दी इन सभी प्रादेशिक भाषाओं को परस्पर जोड़ने का काम करती है .हिन्दी को भारतीय संविधान में राज भाषा का दर्जा प्राप्त है . हिन्दी भारत की एक सम्पन्न भाषा है . उसका शब्द भंडार बहुत विशाल है . इसलिए उसे सरकारी पत्र व्यवहार के लिए जब तक कठिन हिन्दी शब्दों के आसान विकल्प उपलब्ध हैं ,तब तक अंग्रेजी से उधारी में शब्द मांगने की ज़रूरत नहीं है. अगर सरकारी काम-काज में, शासकीय पत्राचार में हिन्दी को आसान बनाने के लिए अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग की सलाह दी जा सकती है,तो सरकारी दफ्तरों को इसके लिए अन्य भारतीय भाषाओं से शब्दों चयन के लिए क्यों नहीं कहा जा सकता ? इसमें दो राय नहीं कि आज सरकारी हिन्दी के सरलीकरण की ज़रूरत है, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी भाषा का ही दबदबा है ,जबकि निचली अदालतों में बहुत कठिन उर्दू मिश्रित हिन्दी का प्रचलन है. राज भाषा विभाग को सामान्य प्रशासनिक दफ्तरों के साथ-साथ सम्पूर्ण न्यायिक प्रक्रिया में भी राज भाषा के रूप में हिन्दी के प्रचलन को बढ़ावा देना चाहिए. इसके लिए अगर हिन्दी में सरल शब्द नहीं मिल रहे हों ,तो हम अपने ही देश की प्रादेशिक भाषाओं से शब्द ग्रहण कर सकते हैं. इससे जहां हिन्दी और भी ज्यादा धनवान होगी, वहीं राष्ट्रीय एकता को भी बढ़ावा मिलेगा. हिन्दी साहित्य की विकास यात्रा के लिए वर्षों पहले मील का पत्थर रखने वाले महान साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने कभी लिखा था-
निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल
बिनु निज भाषा ज्ञान बिनु मिटे न हिय को शूल !
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था - '' हिन्दी ही भारत की राष्ट्र भाषा हो सकती है,अमर शहीद भगत सिंह सिंह का भी कहना था -'' हिन्दी में राष्ट्र भाषा होने की सारी काबिलियत है .जबकि प्रसिद्ध साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन 'अज्ञेय' ने देशवासियों को सतर्क करते हुए लिखा था - ''हिन्दी पर अनेक दिशाओं से कुठाराघात की तैयारी है ,ताकि उसकी अटूट शक्ति को कमज़ोर किया जा सके'' .
भाषा चाहे देशी हो ,या विदेशी , हर भाषा की अपनी खूबियाँ होती हैं . किसी भी भाषा से , चाहे वह अंग्रेजी ही क्यों न हो, व्यक्तिगत बैर भाव नहीं होना चाहिए ,लेकिन अगर कोई भाषा किसी देश की संस्कृति को और उसके राष्ट्रीय स्वाभिमान को ही नष्ट करने की कोशिश में जुट जाए , तो उसका प्रतिकार तो करना ही होगा . अंग्रेजी के साथ भी कुछ ऐसा ही मामला है. क्या हम इतनी जल्दी भूल गए कि देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त करने के लिए लाखों हिंदुस्तानियों ने अपने प्राणों की आहुति दी ,जेल की यातनाएं झेलीं ,तब कहीं करीब चौंसठ साल पहले १५ अगस्त १९४७ को बड़ी मुश्किल से अंग्रेजों को यहाँ से भगाया जा सका ? भारतीय संस्कृति के संरक्षण के लिए आज ज़रूरत इस बात की है कि हम हिन्दी सहित तमाम भारतीय भाषाओं के समग्र विकास के लिए चिन्तन करें और इस दिशा में काम करें , भारतीय भाषाओं में भरपूर साहित्य सृजन हो , हर भारतीय अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के बजाय अपनी भाषा के स्कूलों में दाखिला दिलवाए .
मुझे लगता है कि आज एक बार फिर इंग्लिस्तान से एक नहीं ,बल्कि हजारों बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ ईस्ट इंडिया कम्पनी के नए अवतार के रूप में 'हिंग्लिश ' भाषा के साथ भारत को गुलाम बनाने के लिए आ रही हैं , और हमारे ही देश के छिपे हुए नहीं , बल्कि खुले आम घूमते कुछ गद्दार किस्म के लोग उनके क़दमों में बिछ कर और अंग्रेजी की हिमायत में पूंछ हिलाकर उनका स्वागत कर रहे हैं .हिन्दुस्तान के ऐसे दुश्मनों और हिन्दी भाषा पर प्राणघातक हमला करने और उसकी हत्या की कोशिश करने वालों से हमें सावधान रहना होगा. . -- ----स्वराज्य करुण
निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल
बिनु निज भाषा ज्ञान बिनु मिटे न हिय को शूल !
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था - '' हिन्दी ही भारत की राष्ट्र भाषा हो सकती है,अमर शहीद भगत सिंह सिंह का भी कहना था -'' हिन्दी में राष्ट्र भाषा होने की सारी काबिलियत है .जबकि प्रसिद्ध साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन 'अज्ञेय' ने देशवासियों को सतर्क करते हुए लिखा था - ''हिन्दी पर अनेक दिशाओं से कुठाराघात की तैयारी है ,ताकि उसकी अटूट शक्ति को कमज़ोर किया जा सके'' .
भाषा चाहे देशी हो ,या विदेशी , हर भाषा की अपनी खूबियाँ होती हैं . किसी भी भाषा से , चाहे वह अंग्रेजी ही क्यों न हो, व्यक्तिगत बैर भाव नहीं होना चाहिए ,लेकिन अगर कोई भाषा किसी देश की संस्कृति को और उसके राष्ट्रीय स्वाभिमान को ही नष्ट करने की कोशिश में जुट जाए , तो उसका प्रतिकार तो करना ही होगा . अंग्रेजी के साथ भी कुछ ऐसा ही मामला है. क्या हम इतनी जल्दी भूल गए कि देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त करने के लिए लाखों हिंदुस्तानियों ने अपने प्राणों की आहुति दी ,जेल की यातनाएं झेलीं ,तब कहीं करीब चौंसठ साल पहले १५ अगस्त १९४७ को बड़ी मुश्किल से अंग्रेजों को यहाँ से भगाया जा सका ? भारतीय संस्कृति के संरक्षण के लिए आज ज़रूरत इस बात की है कि हम हिन्दी सहित तमाम भारतीय भाषाओं के समग्र विकास के लिए चिन्तन करें और इस दिशा में काम करें , भारतीय भाषाओं में भरपूर साहित्य सृजन हो , हर भारतीय अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के बजाय अपनी भाषा के स्कूलों में दाखिला दिलवाए .
मुझे लगता है कि आज एक बार फिर इंग्लिस्तान से एक नहीं ,बल्कि हजारों बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ ईस्ट इंडिया कम्पनी के नए अवतार के रूप में 'हिंग्लिश ' भाषा के साथ भारत को गुलाम बनाने के लिए आ रही हैं , और हमारे ही देश के छिपे हुए नहीं , बल्कि खुले आम घूमते कुछ गद्दार किस्म के लोग उनके क़दमों में बिछ कर और अंग्रेजी की हिमायत में पूंछ हिलाकर उनका स्वागत कर रहे हैं .हिन्दुस्तान के ऐसे दुश्मनों और हिन्दी भाषा पर प्राणघातक हमला करने और उसकी हत्या की कोशिश करने वालों से हमें सावधान रहना होगा. . -- ----स्वराज्य करुण
आपकी बातों से पूर्णतः सहमत हूँ हिन्दी को बचाने के लिए बहुत ही सरथ्क प्रयत्न करना अवशक होगया है। हिन्दी के प्रति जागृति लाना तो मैं भी चाहती हूँ और मुझ जैसे अन्य कई ब्लॉगर भी मगर उपाये किसी को नहीं पता क्यूंकी सबको स्टेटस लेवल नाम कि जंजीरों ने जकड़ रखा है सार्थक एवं सटीक आलेख समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है http://mhare-anubhav.blogspot.com/
ReplyDeleteस्वराज्य भैय्या जी राष्ट्र भाषा हिंदी के बारे में इंडिया टुडे में हिंगलिश में बात करने के बारे में बात कही गयी है देश की आजादी के ६४ वर्षों के बाद हिंदी अपने राष्ट्रभाषा के स्वरुप को प्राप्त नहीं कर सकी है देश में २८ राज्य व ७ केंद्रशासित प्रदेश हैं जिसमे से ७ या ८ राज्यों में हिंदी राज्यभाषा और राष्ट्रभाषा के रूप में प्रयोग में लायी जाती है जिस पत्रिका की आप बात कर रहे है उस पत्रिका का शीर्षक ही अंग्रेजी में है आपका हिंदी के प्रति यह लगाव राष्ट्रभाषा के प्रति प्रेम को दर्शाता है और इस तरह के लेखों का सदैव तार्किक ढंग से विरोध होना चाहिए और राष्ट्रभाषा हिंदी के विकास में अपना योगदान देकर भारतीय होने फ़र्ज़ अदा करना चाहिए |
ReplyDeleteअच्छा आलेख , हिंदी के सम्मान वृद्धि के लिए आपका प्रयास सराहनीय है .धन्यवाद !
ReplyDeleteभाई स्वराज जी लेकिन सच्चाई तो यही है कि आज किताबी हिंदी किताबों तक ही रह गई है. हिन्दी भाषियों के बच्चे भी अंग्रेज़ी स्कूलों में जाने के कारण हिन्दी से दूर होते जा रहे हैं. हिन्दी केवल सरकारी स्कूलों की ही भाषा बन कर रह गई है...
ReplyDeleteटिप्पणियों के लिए आप सबको धन्यवाद.
ReplyDelete@ भाई काजल जी ! यह कहना सही नहीं है कि हिन्दी केवल किताबों तक सीमित रह गयी है . अगर ऐसा होता तो हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं की प्रसार संख्या और अंग्रेजी अखबारों की प्रसार संख्या की तुलना कर लीजिए. हिन्दी बहुल राज्यों में किसी भी पुस्तक दुकान में जाकर देखिये -कौन सी भाषा की किताबें ज्यादा बिक रही हैं ,रहा सवाल हिन्दी भाषियों द्वारा अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में भेजने का, तो वाकई यह चिन्ता और चिंतन की बात है. मेरे ख़याल से किसी भाषा को सीखने में कोई बुराई नहीं है ,लेकिन अपनी भाषा को जान बूझ कर भूलना या उसकी उपेक्षा करना भी ठीक नहीं है. हिन्दी हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान की भाषा है, उसका ज़नाजा उठ जाने की बेहूदी और अपमान जनक घोषणा करने वाली पत्रिका के बारे में भी अगर कोई ऐसी ही घोषणा करे तो उसके सम्पादक-प्रकाशक को कैसा लगेगा?
बहुत ही सुविचारित और परेशानी पैदा करने वाला लेख है. हिदी का ''हिंगलिश' में कायांतरण एक तरह की साजिश है. एक बड़ी भाषा इस चक्कर में दम तोड़ देगी. बहुत ही सुविचारित और परेशानी पैदा करने वाला लेख है. हमारी संसद भी अगर सरलीकरण के चक्कर में हिंदी के अहित की छूट दे देगी तो यह अन्याय होगा. हिंदी एक तरह से राष्ट्र की केन्द्रीय भाषा है. राजभाषा तो खैर है ही, इसे बचा कर रखने का अभियान चले. ऐसे लेख इस अभियान को आगे ले जाने वाले साबित होंगे. बधाई. इस पर मैं भी अलग से एक लेख लिखूंगा...एम तोड़ सकती है. हमारी संसद भी अगर सरलीकरण के चक्कर में हिंदी के अहित की छूट दे देगी तो यह अन्याय होगा. हिंदी एक तरह से राष्ट्र की केन्द्रीय भाषा है. राजभाषा तो खैर है ही, इसे बचा कर रखने का अभियान चले. ऐसे लेख इस अभियान को आगे ले जाने वाले साबित होंगे. बधाई. इस पर मैं भी अलग से एक लेख लिखूंगा...
ReplyDeleteपत्रिका का आवरण पृष्ठ लेख की तरह ही वाहियात है /इस अंक में विभिन्न लेखकों ने हिंदी के विषय में जो टिप्पणिया लिखी है वो हिंदी
ReplyDeleteलेखको को मर्मान्तक पीड़ा पहुंचाने वाली है / हिंदी पुरे देश कि संपर्क भाषा है ,इसमे कोई विवाद या मत भिन्नता नहीं है / मुझे लगता है हिंदी का विरोध कुछ लोगों का फैशन बन गया है / हिंदी अपने आप में एक सशक्त ,सक्षम और संपन्न भाषा है / इसका विरोध करने वाले मानसिक रोगी ही है जिनके लिए यही कह सकता हूँ कि '' ईश्वर उन्हें सदबुद्धि दे''/