एक -दूसरे की मदद के हैं मोहताज़ हम ,
कितने असहाय से लग रहे हैं आज हम !
घूम रहे अरमान सभी
सपनों के आस-पास ,
काँटों की सेज पर
सोया है मधुमास !
तरस गए सुनने को प्यार की आवाज़ हम ,
कितने असहाय से लग रहे हैं आज हम !
सड़कों पर जिंदगी का
रोज-रोज घिसटना ,
रोशनी के दायरे का
लगातार सिमटना !
उनके रास-रंग पर करें कैसे नाज़ हम,
कितने असहाय से लग रहे हैं आज हम !
धरती के बेटे हम,
माँ का है प्यार कहाँ ,
आकाशी आवरण में
रूप का श्रृंगार कहाँ !
रोटी के लिए बिकी हुई लोक-लाज हम,
कितने असहाय से लग रहे हैं आज हम !
5.5/10
ReplyDeleteसुन्दर व पठनीय पोस्ट
बेहद सुन्दर भावाव्यक्ति……………दिल मे उतर गयी…………एक सच के साथ्।
ReplyDeleteगद्यात्मक कविताओं की भीड़ में ऐसे भावपूर्ण गीत को पढ़ना बहुत सुकून देता है।...प्रभावशाली रचना...बधाई।
ReplyDeleteसड़कों पर जिंदगी का
ReplyDeleteरोज-रोज घिसटना ,
रोशनी के दायरे का
लगातार सिमटना !
इन पंक्तियों में बड़ी कसक महसूस होती है ......बहुत सुन्दर भाव है कविता में बहुत अच्छी रचना
आपको सपरिवार दुर्गा महाष्टमी की शुभकामनाएँ.
हे माँ दुर्गे सकल सुखदाता
बहुत सुन्दर!!
ReplyDeleteरोटी के लिए तन की बोली लगी
ReplyDeleteअमीरे शहर ने खरीदा उसका बड़ा नाम हुआ।
दुर्गा नवमी की हार्दिक शुभकामनाएं।
टिप्पणियों के लिए आप सबका आभार. शारदीय नवरात्रि और विजयादशमी की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं .
ReplyDeleteबेहद प्रसंशनीय कविता .दुर्गा नवमी की बधाई !!
ReplyDeleteविवशताओं पर इतना जोर क्यों ?
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