स्वराज्य करुण
अपने देश ,अपनी धरती ,अपनी माटी ,, अपनी नदी अपने पंछी अपने पर्वत ,अपने जंगल , अपने खेत, अपने खलिहान ,अपने गांव और अपने लोगों की कोमल भावनाओं को शब्द और आवाज़ देने वालों को समाज अपने दिल में बसा लेता है. फिर चाहे वे कवि हों ,या गायक. अपनी रचनाओं में, अपनी आवाज़ में , मानव मन की संवेदनाओं को, लोगों के दुःख-सुख को जगह देने वाले शब्द-शिल्पी और स्वर-साधक ही कला-संस्कृति के जरिए किसी भी राज्य और देश की पहचान बनाते हैं. अगर किसी कवि में शब्दों के मोतियों के साथ वाणी का माधुर्य भी हो ,तो उसका शिल्प और सृजन नदियों के संगम की तरह और भी पावन हो जाता है. लक्ष्मण मस्तुरिया की गिनती भी ऐसे सर्वोत्तम शब्द-शिल्पियों में होती है ,जो पिछले करीब चार दशकों से जारी अपनी काव्य -यात्रा में छत्तीसगढ़ के दिल की धड़कनों को छत्तीसगढ़ के दिल की भाषा 'छत्तीसगढ़ी' में आवाज़ देकर सही मायने में कवि-धर्म का बखूबी पालन कर रहे हैं . उन्होंने अपने गीतों को मंच और रंग-मंच के साथ -साथ संगीत से भी जोड़ा है.अपनी भौगोलिक और सांस्कृतिक खूबियों से ही कोई भी अंचल देर-सबेर एक राज्य का आकार लेता है , धरती के भूगोल को राज्य और देश के रूप पहचान दिलाने में साहित्य, कला और संस्कृति से जुड़े कवियों, कलाकारों और शिल्पकारों की बहुत बड़ी भूमिका होती है. आज अगर छत्तीसगढ़ पिछले दस वर्षों से भारत के छब्बीसवें राज्य के रूप में पहचाना जा रहा है ,तो उसमे बहुत बड़ा योगदान लक्ष्मण मस्तुरिया जैसे लोक-प्रिय कवियों का भी है ,जिन्होंने राज्य-निर्माण के भी लगभग तीस बरस पहले कवि-सम्मेलनों और सांस्कृतिक -मंचों पर छत्तीसगढ़ की माटी का जय-गान करऔर धरती का जयकारा लगा कर जनता को उसकी आंचलिक-अस्मिता और आंतरिक शक्ति का अहसास दिलाया . लक्ष्मण जैसे श्रेष्ठ रचनाकार के गीतों की चर्चा करने का एक अपना सुख है ,पर इन गीतों की मिठास तो केवल उन्हें सुनकर ही महसूस की जा सकती है .
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के मस्तुरी की माटी में सात जून १९४९ को जन्मे लक्ष्मण महज बाईस साल की उम्र में प्रसिद्ध सांस्कृतिक-संस्था 'चंदैनी गोंदा ' के मुख्य गायक बन चुके थे .रामचंद्र देशमुख इसके संस्थापक थे . उन्होंने छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक-पहचान को और आंचलिक-स्वाभिमान को देश और दुनिया के सामने लाने के लिए लोक-कलाकारों और कवियों को एक छत के नीचे लाकर दुर्ग जिले के अपने गाँव बघेरा में इसकी बुनियाद रखी ,जहां सात नवम्बर १९७१ को अंचल के दूर -दूर से आए हजारों लोगों के बीच इसका पहला प्रदर्शन हुआ. छत्तीसगढ़ के खेत-खलिहान और मजूर-किसान के जीवन-संघर्ष को गीतों भरी मार्मिक कहानी के रूप में , एक सुंदर और ह्रदय स्पर्शी गीत-नाट्य के रूप में प्रस्तुत करते हुए 'चंदैनी गोंदा' ने यहाँ की जनता के दिलों में बरसों-बरस राज किया .गणेश-उत्सव और दुर्गोत्सव जैसे सार्वजनिक आयोजनों में गाँवों और शहरों में जहां भी इसका प्रदर्शन होता , हजारों की संख्या में जन-सैलाब उमड़ जाता. नारायणलाल परमार ने 'चंदैनी गोंदा ' पर अपने एक आलेख में इसके एक प्रस्तुतिकरण की उदघोषणा का सन्दर्भ देकर लिखा है कि यह प्रतीकात्मक रूप से कृषक -जीवन का ही चित्रण है.गेंदे के फूल दो प्रकार के होते हैं .बड़ा गोंदा सिर्फ श्रृंगार के काम आता है , जबकि छोटे आकार के गेंदे को छत्तीसगढ़ी में 'चंदैनी गोंदा ' कहा जाता है ,जो देवी की पूजा में अर्पित किया जाता है.देखा जाय तो गेंदे के फूलों का यह पौधा छत्तीसगढ़ के गाँवों में हर घर के आँगन की शान होता है .
तो इसी चंदैनी गोंदा को प्रतीक बना कर छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक जागरण की एक नयी यात्रा की शुरुआत हुई. जिसके सुंदर और मनभावन गीतों में से अनेक सुमधुर गीत अकेले लक्ष्मण मस्तुरिया ने लिखे थे. चंदैनी गोंदा के शीर्षक गीत के रचनाकार थे रविशंकर शुक्ला .उनके अलावा स्वर्गीय कोदूराम 'दलित' , स्वर्गीय रामरतन सारथी और स्वर्गीय प्यारेलाल गुप्त सहित द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र' , नारायण लाल परमार ,पवन दीवान ,भगवती लाल सेन , हेमनाथ यदु ,रामेश्वर वैष्णव ,मुकुंद कौशल, विनय पाठक ,राम कैलाश तिवारी, और चतुर्भुज देवांगन जैसे जाने-माने कवियों की रचनाएँ भी 'चंदैनी गोंदा ' के मंचों पर गूंजा करती थी.मंच के संगीत निदेशक थे खुमान साव .ग्राम बघेरा में दाऊ रामचंद्र देशमुख का विशाल बाड़ा छत्तीसगढ़ के नए-पुराने कवियों और लोक-जीवन में रचे-बसे ग्रामीण-कलाकारों का तीर्थ बन चुका था . अपनी कला यात्रा के उस प्राम्भिक दौर को याद करते हुए लक्ष्मण मस्तुरिया बताते है - देशमुख जी स्वयं एक महान कला-पारखी थे .उन्होंने छत्तीसगढ़ के घुमंतू 'देवार' समुदाय के सहज-सरल लोक-कलाकारों को भी 'चंदैनी गोंदा' से जोड़ा . देवार कबीले के अनेक सदस्य बंदरों का नाच दिखा कर कुछ पैसे कमा लिया करते थे .देशमुख जी उन्हें 'चंदैनी गोंदा ' के ज़रिए कुछ स्थायित्व देना चाहते थे. उन्होंने उनकी नाचने-गाने की पारम्परिक कला को वर्ष १९७४-७५ में 'देवार -डेरा ' के नाम से संस्था बना कर एक नयी पहचान दिलाई . देशमुख जी के निर्देश पर लक्ष्मण ने इन 'देवारों ' के बहुत से निरर्थक शब्दों वाले पारम्परिक गीतों को परिमार्जित किया. ऐसा लगता है कि दाऊ रामचंद्र देशमुख ने ग्राम बघेरा और वहां के अपने घर-आँगन को छत्तीसगढ़ी-रंगमंच का एक ऐसा स्टूडियो बना दिया था, जहाँ कवियों और कलाकारों की प्रतिभा को उड़ान के लिए नए पंख मिले .लक्ष्मण मस्तुरिया ने' चंदैनी-गोंदा 'के लिए लगभग डेढ़ सौ गीत लिखे .मंच पर इनमे से चालीस-पचास गीतों का उपयोग होता रहा .
सांस्कृतिक जागरण के इस मंच ने कवि लक्ष्मण मस्तुरिया को माटी की महक और मानवीय संवेदनाओं से भरपूर उनके गीतों के ज़रिए उन्हें छत्तीसगढ़ में आवाज की दुनिया का नायक भी बना दिया . धरती की धड़कनों से जुड़े उनके इन छत्तीसगढ़ी गानों को जनता ने हाथों -हाथ लिया . आकाशवाणी के रायपुर केन्द्र से जब उनके सुमधुर स्वरों में इन गीतों का संगीतमय प्रसारण होने लगा ,तो ये गीत लोगों की जुबान पर चढ़कर जन-गीत बन गए. उनका यह गीत आज भी छत्तीसगढ़ की माटी में रचे-बसे हर इंसान को सामूहिकता की भावना में बाँध लेता है और लोग इन पंक्तियों को अनायास गुनगुनाने लगते हैं -
मोर संग चलव रे, मोर संग चलव जी ,
ओ गिरे -थके हपटे मन, अऊ परे-डरे मनखे मन ,
मोर संग चलव रे ,मोर संग चलव जी .
अमरैया कस जुड छाँव म मोर संग बईठ जुडालव ,
पानी पी लव मै सागर अवं,दुःख-पीरा बिसरा लव .
नवा जोत लव ,नवा गाँव बर , रस्ता नवां गढव रे !
लक्ष्मण का यह गीत वास्तव में समाज के गिरे-थके , ठोकर खाए , भयभीत लोगों को अपने साथ चलने , आम्र-कुञ्ज की छाँव में बैठ कर शीतलता का अहसास करने , अपनी भावनाओं के सागर से पानी पीकर दुःख-पीरा को भूला देने .और एक नए गाँव के निर्माण के लिए आशा की नयी ज्योति लेकर नया रास्ता गढ़ने का आव्हान करता है. अपने इसी गीत में लक्ष्मण जनता को यह भी संदेश देते हैं-
महानदी मै, अरपा-पैरी ,तन-मन धो फरियालव ,
कहाँ जाहू बड दूर हे गंगा, पापी इहाँ तरव रे ,
मोर संग चलव रे , मोर संग चलव जी !
इस गीत में शब्द ज़रूर लक्ष्मण के हैं , लेकिन भावनाएं छत्तीसगढ़ महतारी की हैं , जो अपनी धरती की संतानों से कह रही है कि मैं ही महानदी ,और मैं ही अरपा और पैरी नदी हूँ , गंगा तो बहुत दूर है , इसलिए पापियों ,तुम यहीं तर जाओ . धरती माता की वंदना का उनका एक खूबसूरत छत्तीसगढ़ी गीत उन्हीं की आवाज में काफी लोकप्रिय हुआ था ,जिसकी कुछ पंक्तियाँ देखें -
मंय बंदत हौं दिन-रात वो ,मोर धरती मईया,
जय होवय तोर, मोर छईयां ,भुइंया जय होवय तोर .
राजा-परजा ,देवी-देवता तोर कोरा म आइन ,
जईसन सेवा करिन तोर वो तईसन फल ल पाइन.
तोर महिमा कतक बखानौ ओ मोर धरती मईया ,
जय होवय तोर , मोर छईयां भुइयां , जय होवय तोर !
अर्थात -हे धरती माता ! मै दिन-रात तेरी वन्दना करता हूँ . हे मुझे शीतल छाया देने वाली भूमि ! तेरी जय हो !राजा-प्रजा , देवी-देवता , तेरी गोद में आए और जैसी सेवा की , वैसा ही फल पाया . हे धरती माता ! तेरी महिमा का मैं कितना बखान करूं !
अपनी धरती से गहरी आत्मीयता का रिश्ता रखने वाला एक सच्चा कवि ही सच्चे दिल से मन को छू लेने वाली ऐसी पंक्तियों के साथ धरती का जय-गान लिख सकता है . अगर आप छत्तीसगढ़ के किसी गाँव की सड़क पर या फिर खेतों या जंगलों की पगडंडियों पर .बैल-गाड़ी से या नहीं तो सायकल से जा रहे हों , या आपकी कार किसी सड़क पर कुछ देर के लिए किसी भी कारण से रुक गयी हो , चांदनी रात हो और दूर किसी गाँव से लाऊडस्पीकर गूंजता यह मीठा -सा नगमा आपके कानों तक पहुंचे , तो मुझे लगता है कि आपको एक अलग ही तरह की अनुभूति होगी ----
पता दे जा रे , पता ले जा रे गाड़ी वाला ,
तोर नाम के , तोर गाँव के ,तोर काम के , पता दे जा
का तोर गाँव के पार सिवाना ,
डाक-खाना के पता का,
नाम का थाना -कछेरी के तोरे ,
पारा मुहल्ला ,जघा का !
शायद नायिका को अपने गाँव से गुजरते गाड़ी वाले से भावनात्मक लगाव हो गया है .तभी तो वह उससे उसके गाँव, डाक-घर थाना क्षेत्र , कचहरी , पारा-मुहल्ला और जगह का नाम पूछ रही है और मनुहार भी कर रही है कि जाते-जाते वह अपना पता दे जाए और यहाँ का याने कि नायिका का पता लेता जाए . . इस गीत में प्रेम का एक गहरा दर्शन भी है .कैसे यह इन पंक्तियों में देखें और महसूस करें -
मया नई चिन्हें देसी-बिदेसी ,
मया के मोल न तोल,
जात-बिजात न जाने रे मया ,
मया मयारू के बोल
काया माया के सब नाच नचावै,
मया के एक नज़रिया.
नायिका कहती है-प्रेम किसी देशी -विदेशी को नहीं पहचानता . प्रेम का कोई मोल-तोल नहीं होता .प्रेम जात-बिजात को भी नहीं जानता . वह सिर्फ मया याने कि प्रेम की बोली को ही समझता है.आज से करीब पच्चीस साल पहले कविता वासनिक की खनकती आवाज़ में लक्ष्मण के इस गीत का ग्रामोफोन रिकार्ड निकला तो यह शादी-ब्याह से लेकर हर निजी और सार्वजानिक समारोहों में गूंजने लगा . लोग इसे गुनगुनाने के लिए अनायास ही मजबूर हो जाते थे . माघ -फागुन के रसभीने वासंती मौसम पर उनका यह गीत एक अलग ही अंदाज़ में आज भी लोगों के दिलो-दिमाग पर छा जाता है-
मन डोले रे मांघ फगुनवा ,
रस घोले रे मांघ फगुनवा .
राजा बरोबर लगे मौरे आमा ,
रानी सही परसा फुलवा ,
रस घोले रे मांघ ,फगुनवा,
मन डोले रे मांघ फगुनवा
माघ महीने के आख़िरी दिनों में फागुन के वासंती क़दमों की धीमी-धीमी आहट के बीच आम के मौर की भीनी-भीनी महक और पलाश के पेड़ों पर खिलते सुर्ख लाल फूलों से भला किसका मन नहीं डोलेगा ? तभी तो हमारे कवि को यह समय जीवन में रस घोलने का मौसम लगता है. डालियों पर नन्हें -नन्हें फूलों याने कि मौरों से सजा-धजा आम का पेड़ राजा की तरह और परसा याने कि पलाश का वृक्ष किसी रानी की तरह लगने लगा है. यह आकाशवाणी के रायपुर केन्द्र से प्रसारित होनेवाले सर्वाधिक लोकप्रिय छत्तीसगढ़ी गीतों में शुमार है .लगभग पैंतीस साल पहले १९७५ के आस-पास जब यह रेडियो पर आया ,तो हर सुनने वाला सुनता ही रह गया. लक्ष्मण छत्तीसगढ़ के उन गिने -चुने कवियों में हैं ,जिन्हें नयी दिल्ली में गणतंत्र दिवस के राष्ट्रीय समारोह के मौके पर लाल किले के मंच से काव्य-पाठ करने का अवसर मिला है . लक्ष्मण को यह गौरव आज से छत्तीस वर्ष पहले १९७४ में छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध शायर मुकीम भारती के साथ मिल चुका था . वहां २० जनवरी १९७४ को आयोजित काव्य-संध्या में उन्हें गोपाल दास 'नीरज', बालकवि बैरागी , रमानाथ अवस्थी , डॉ रविन्द्र भ्रमर ,इन्द्रजीत सिंह 'तुलसी' ,निर्भय हाथरसी और रामवतार त्यागी जैसे लोकप्रिय कवियों के साथ आमंत्रित किया गया था . उस यादगार काव्य-संध्या की आयोजन समिति की उपाध्यक्ष रह चुकी श्रीमती शीला दीक्षित आज दिल्ली की मुख्यमंत्री हैं .छत्तीसगढ़ में सांस्कृतिक जागरण के ऐतिहासिक रंगमंच 'चंदैनी गोंदा' से आकाशवाणी , दूरदर्शन और कवि सम्मेलनों के मंच से होते हुए लक्ष्मण छत्तीसगढ़ी फिल्मों में भी गीत लिख रहे हैं.राज्य-निर्माण के आस-पास बनी'मोर छईयां भुइयां ' और हाल ही में आयी 'मोर संग चलव' के तो शीर्षक ही लक्ष्मण के दो लोकप्रिय गीतों की सराही गयी पंक्तियों पर आधारित है . उन्होंने 'भोला छत्तीस गढिया', 'पिंजरा के मैना ' 'पुन्नी के चन्दा ' और'मय के बंधना ' में भी गाने लिखे हैं .लक्ष्मण के गीतों को सुरों में सजा कर ग्रामोफोन के जमाने में करीब चालीस रिकार्ड्स भी बाजार में आए और खूब लोकप्रिय भी हुए . उनके गीतों पर आधारित सैकड़ों कैसेट्स और ऑडियो तथा वीडियो सी .डी .संगीत के बाज़ार में हाथों-हाथ लिए गए हैं .
उनकी ७७ छत्तीसगढ़ी कविताओं का संग्रह 'मोर संग चलव ' वर्ष २००३ में , इकसठ छत्तीसगढ़ी निबन्धों का संग्रह 'माटी कहे कुम्हार से' वर्ष २००८ में और इकहत्तर हिन्दी कविताओं का संकलन 'सिर्फ सत्य के लिए ' भी वर्ष २००८ में प्रकाशित हो चुका है इसके पहले छत्तीसगढ़ के महान क्रांतिकारी अमर शहीद वीर नारायण सिंह की जीवन-गाथा पर आधारित उनकी एक लम्बी कविता 'सोनाखान के आगी ' भी पुस्तक रूप में आ चुकी है . .बहरहाल , छत्तीसगढ़ में साहित्य, कला और संस्कृति के मैदान में पिछले करीब चालीस वर्षों से नाबाद रहकर एक लंबी पारी खेल रहे लक्ष्मण के खाते में तरह -तरह की सफलताओं के साथ-साथ सम्मानों की भी एक लंबी फेहरिस्त भी है .दुष्यंत कुमार स्मारक पांडुलिपि संग्रहालय ,भोपाल द्वारा मार्च २००८ में आयोजित अलंकरण समारोह में जिन तीन प्रसिद्ध कवियों को मध्यप्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल श्री बलराम जाखड ने सम्मानित किया , उनमे लक्ष्मण मस्तुरिया भी थे , जिन्हें आंचलिक रचनाकार सम्मान से नवाजा गया . उनके अलावा प्रसिद्ध शायर निदा फाज़ली को दुष्यंत अलंकरण और साहित्यकार प्रेमशंकर रघुवंशी को सुदीर्घ साधना सम्मान से अलंकृत किया गया .अपने गृह राज्य छत्तीसगढ़ में भी लक्ष्मण को अनेक अवसरों पर अनेक संस्थाओं ने सम्मानित किया है , जिनमे रामचंद्र देशमुख बहुमत सम्मान (दुर्ग)और सृजन सम्मान (रायपुर ),भी शामिल है.हमारे समय के वरिष्ठ साहित्यकार रायगढ़ निवासी डॉ. बलदेव कहते हैं- 'लक्ष्मण मस्तुरिया के गीत चिर युवा छत्तीसगढिया के गीत हैं. अल्हड जवानी , उमंग , उत्साह , साहस, आस्था , आशा, विश्वास , स्वाभिमान , उत्कट प्रेम , सर्वस्व समर्पण की भावना , विरह-वेदना और पुनर्मिलन की छटपटाहट की सहजतम अभिव्यक्ति उनके गीतों की विशेषता है . उनके गीतों की लोकप्रियता का रहस्य सिर्फ गले की मिठास और पावरफुल इलेक्ट्रानिक वाद्य-यंत्र नहीं है . ये तो सफलता के महज ऊपरी रहस्य हैं , असली रहस्य है उनके गीतों में कथ्य की नवीनता , रूप-विधान और भाव-सौंदर्य .' लक्ष्मण मस्तुरिया का लेखन लगातार जारी है. अपनी माटी का जय गान करने वाले लक्ष्मण , सृजन और श्रृंगार गीतों से मानव -मन में जीवन का आनंद -रस घोलने वाले लक्ष्मण बरसों-बरस इसी तरह लिखते रहें और हम जैसे अपने अनुज-सम दोस्तों के बीच हमेशा आते-जाते मुस्कुराते दिखते रहें. लक्ष्मण मस्तुरिया जैसे श्रेष्ठ कवि और गायक छत्तीसगढ़ की अनमोल सांस्कृतिक धरोहर हैं उन्हें प्यार से और नजाकत से सहेज कर , संभाल कर रखना हमारा फ़र्ज़ है.
स्वराज्य करुण
आपके द्वारा यहाँ प्रस्तुत किये गए लक्ष्मण मस्तुरिया जी के विचार पढ़ना बहुत अच्छा लगा ....बहुत अच्छा परिचय प्रस्तुत किया आपने . धन्यवाद !
ReplyDeleteबेहद सुन्दर,जानकारी से परिपूर्ण लेख. पढ़कर बहुत बढ़िया लगा . आशा है भविष्य में भी आपके माध्यम से हमें ऐसी ही रोचक और बेहतरीन लेख पढने को मिलते रहेंगे. सादर-बालमुकुन्द
ReplyDeleteवाह. ऐसे गंभीर पोस्ट छत्तीसगढ़ की अस्मिता और गौरव रेखांकन के लिए जरूरी है. हम सब आशा करते हैं कि यह लेखमाला (पोस्टमाला) का पहला लेख है और यह क्रम सतत् वना रहेगा.
ReplyDeleteराहुल सिंह जी से सहमत !
ReplyDeleteराहुल भैया की टिप्पणी को मेरी भी टिप्पणी माना जाए।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुतीकरण .गूलर के फूल ढूंढ़ ढूंढ़ कर छत्तीसगढ़ को महकातें रहें .
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