कौन उठाए खतरे बोलो ,कौन सहे आतंक ,
नन्हीं चिड़ियों को मारे है बिच्छुओं ने डंक !
खुली हवाओं पर लगा है
साजिशों का पहरा ,
संगीनों से इस चमन का
ज़ख्म हुआ है गहरा !
सूरज के माथे पर जाने यह कैसा कलंक ,
नन्हीं चिड़ियों को मारे है बिच्छुओं ने डंक !
शहर झूमता मदहोशी में
गाँव भी बेहोश ,
किस पर डालें जिम्मेदारी
किसका है यह दोष !
कोई बजाये ढपली अपनी ,कोई बजाये शंख ,
नन्हीं चिड़ियों को मारे है बिच्छुओं ने डंक 1
आज़ादी भी कैद हो गयी
बर्बादी के जाल में ,
चोर-लुटेरे खूब खेलते
अपने शॉपिंग-मॉल में !
राजाओं की मौज-मस्ती देख रहा है रंक ,
नन्हीं चिड़ियों को मारे है बिच्छुओं ने डंक !
बेचैनी में आम जनता
दिल में लेकर आग ,
फिर भी उनके रंग -महल में
हर मौसम में फाग !
जिनके सपनों में लूट का व्यापार चले निः शंक,
नन्हीं चिड़ियों को मारे है बिच्छुओं ने डंक !
स्वराज्य करुण
जिनके सपनों में लूट का व्यापार चले निः शंक,
ReplyDeleteनन्हीं चिड़ियों को मारे है बिच्छुओं ने डंक !
आपने पीड़ा का वास्तविक चित्रण किया है।
सदियों से यही होते आया है।
आभार
आज़ादी भी कैद हो गयी बर्बादी के जाल में , चोर-लुटेरे खूब खेलते अपने शॉपिंग-मॉल में !
ReplyDeleteसही कहा, आजकल की स्थिति का यथार्थ ।
बहुत दिनों बाद आपके पुराने तेवर दिखे, स्वागत.
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति ...अच्छा कटाक्ष किया है
ReplyDeleteaadarniya sir , aapki kavitaon ki punah punah prashansha k liye shabdon ki kami mahsus kar raha hun . behad sundar aur dil ko jhakjhorne wali kavita .saadar-BALMUKUND
ReplyDeleteसुन्दर कविता ! बेहतर ख्याल !
ReplyDelete