Friday, February 11, 2011

(कविता ) फिर भी अभिनय करते हैं !

कैसे-कैसे लोग यहाँ
    जीवन के  इस नाटक में,
       अभिनय करना नहीं जानते,
     फिर भी अभिनय करते हैं  !

        नहीं सफलता  मिल पाती  है
संवादों के सम्प्रेषण में ,
     सिर्फ निरर्थक समय गंवाते
   लोग दिख रहे हैं मंचन में !

 नहीं किसी के लायक
कोई यहाँ भूमिका ,
         कैनवास पर गलत जगह
पड़ गयी तूलिका !

 एक-दूजे से अनजाने हैं
    पात्र सभी और दर्शक भी ,
       परिचय करना नही जानते
       फिर भी परिचय करते हैं !

   इस अनजाने परिचय का
 सचमुच कोई अर्थ नहीं ,
संग-साथ चलने की
  इसमें कोई शर्त नहीं !

अपनी लकड़ी अपना चूल्हा ,
अपनी रोटी ,अपनी थाली ,
केवल  खुद को खुदा मान कर
एक-दूजे  को देते गाली !

सबकी अपनी अलग कहानी
छीन -झपट कर
इसका-उसका दाना-पानी ,
घर  में संचय करते हैं !

कैसे-कैसे लोग यहाँ 
जीवन के इस नाटक में ,
 अभिनय करना नहीं जानते
फिर भी अभिनय करते हैं !
                             -  स्वराज्य करुण



10 comments:

  1. कैसे-कैसे लोग यहाँ पर
    जीवन के इस नाटक में ,
    अभिनय करना नहीं जानते
    फिर भी अभिनय करते हैं !

    बड़ी सादगी से सरल शब्दों में आपने सही और सटीक बात कह दी. वाह वाह.

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  2. नहीं जानते बस इसीलिए तो करते हैं !

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  3. बिल्कुल सही बात कह रहे हैं। बढिया प्रस्तुति।

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  4. This comment has been removed by the author.

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  5. कहीं आपने उनके स्‍वाभाविक अभिनय को तो ना-अभिनय नहीं समझ लिया.

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  6. आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (12.02.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.uchcharan.com/
    चर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)

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  7. अपनी लकड़ी अपना चूल्हा ,
    अपनी रोटी ,अपनी थाली ,
    केवल खुद को खुदा मान कर
    एक-दूजे को देते गाली !

    Nice

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  8. सबकी अपनी अलग कहानी
    छीन -झपट कर
    इसका-उसका दाना-पानी ,
    घर में संचय करते हैं !

    सही कहा....

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  9. एक-एक शब्द भावपूर्ण ..... बहुत सुन्दर...

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  10. इस अनजाने परिचय का
    सचमुच कोई अर्थ नहीं ,
    संग-साथ चलने की
    इसमें कोई शर्त नहीं !

    very nicely written .
    badhai .

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