कैसे-कैसे लोग यहाँ
जीवन के इस नाटक में,
अभिनय करना नहीं जानते,
फिर भी अभिनय करते हैं !
नहीं सफलता मिल पाती है
संवादों के सम्प्रेषण में ,
सिर्फ निरर्थक समय गंवाते
लोग दिख रहे हैं मंचन में !
नहीं किसी के लायक
कोई यहाँ भूमिका ,
कोई यहाँ भूमिका ,
कैनवास पर गलत जगह
पड़ गयी तूलिका !
एक-दूजे से अनजाने हैं
पात्र सभी और दर्शक भी ,
परिचय करना नही जानते
फिर भी परिचय करते हैं !
इस अनजाने परिचय का
सचमुच कोई अर्थ नहीं ,
संग-साथ चलने की
संग-साथ चलने की
इसमें कोई शर्त नहीं !
अपनी लकड़ी अपना चूल्हा ,
अपनी रोटी ,अपनी थाली ,
केवल खुद को खुदा मान कर
एक-दूजे को देते गाली !
सबकी अपनी अलग कहानी
छीन -झपट कर
इसका-उसका दाना-पानी ,
घर में संचय करते हैं !
कैसे-कैसे लोग यहाँ
जीवन के इस नाटक में ,
अभिनय करना नहीं जानते
फिर भी अभिनय करते हैं !
- स्वराज्य करुण
कैसे-कैसे लोग यहाँ पर
ReplyDeleteजीवन के इस नाटक में ,
अभिनय करना नहीं जानते
फिर भी अभिनय करते हैं !
बड़ी सादगी से सरल शब्दों में आपने सही और सटीक बात कह दी. वाह वाह.
नहीं जानते बस इसीलिए तो करते हैं !
ReplyDeleteबिल्कुल सही बात कह रहे हैं। बढिया प्रस्तुति।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteकहीं आपने उनके स्वाभाविक अभिनय को तो ना-अभिनय नहीं समझ लिया.
ReplyDeleteआपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (12.02.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.uchcharan.com/
ReplyDeleteचर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)
अपनी लकड़ी अपना चूल्हा ,
ReplyDeleteअपनी रोटी ,अपनी थाली ,
केवल खुद को खुदा मान कर
एक-दूजे को देते गाली !
Nice
सबकी अपनी अलग कहानी
ReplyDeleteछीन -झपट कर
इसका-उसका दाना-पानी ,
घर में संचय करते हैं !
सही कहा....
एक-एक शब्द भावपूर्ण ..... बहुत सुन्दर...
ReplyDeleteइस अनजाने परिचय का
ReplyDeleteसचमुच कोई अर्थ नहीं ,
संग-साथ चलने की
इसमें कोई शर्त नहीं !
very nicely written .
badhai .