Monday, July 3, 2023
(पुस्तक- चर्चा ) क्रांतिवीर नारायण सिंह की शहादत पर पहला उपन्यास ; 1857 सोनाखान
(आलेख ; स्वराज करुण )
स्वतंत्रता हर देश का मौलिक और मानवीय अधिकार है। विशेष रूप से विगत दो शताब्दियों में दुनिया के विभिन्न देशों में स्वतंत्रता के लिए जनता के अनेक संग्राम हुए हैं। भारत भी इन संग्रामों से अछूता नहीं रहा है। इनमें से कई संग्राम ज्ञात और कई अल्पज्ञात रहे और कुछ संघर्ष गुमनामी के अंधेरे में दबकर रह गए। इन संग्रामों में अनेक वीर योद्धाओं और क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की आहुति दी है। उनमें छत्तीसगढ़ की सोनाखान जमींदारी के वीर नारायण सिंह का नाम भी अमिट अक्षरों में दर्ज है ,जो वर्ष 1857 में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी की हुकूमत के ख़िलाफ़ सशस्त्र संघर्ष के नायक बनकर उभरे थे। ऐसे नायकों की गौरव गाथा पर आधारित उपन्यास लेखन साहित्यकारों के लिए वाकई बहुत चुनौतीपूर्ण कार्य होता है। आज़ादी के आंदोलन में छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद क्रांतिवीर नारायण सिंह के संघर्षों पर आधारित '1857 ;सोनाखान' शीर्षक 144 पृष्ठों की यह पुस्तक उनके समय के छत्तीसगढ़ की सामाजिक -आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों का भी सजीव वर्णन करती है। प्रजा हितैषी नारायण सिंह को अपनी अकाल पीड़ित जनता के लिए एक जमाखोर व्यापारी के गोदाम से अनाज निकलवाने और पीड़ितों में वितरित करने के आरोप में कम्पनी सरकार की ओर से राजद्रोह के मुकदमे का नाटक रचकर 10 दिसम्बर 1857 को रायपुर स्थित सैन्य छावनी में फाँसी पर लटका दिया गया था।
भीषण अकाल के दौर में उपजा विद्रोह
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दरअसल अंग्रेजों के खिलाफ सोनाखान के नारायण सिंह का विद्रोह वर्ष 1856 में छत्तीसगढ़ में पड़े भीषण अकाल के दौर में उस वक्त हुआ ,जब प्रजा -वत्सल नारायण सिंह ने मदद के लिए रायपुर स्थित डिप्टी कमिश्नर इलियट को ख़बर भेजी ,लेकिन वहाँ से उन्हें कोई मदद नहीं मिली। तब नारायण सिंह ने खरौद के एक जमाखोर व्यापारी माखन को उसके गोदामों में भरे अनाज को सोनाखान जमींदारी की अकाल पीड़ित जनता के लिए बाँटने को कहा। नारायण सिंह यह अनाज मुफ़्त में नहीं बल्कि बाढ़ी में यानी मूल धन से डेढ़ गुना ज्यादा कीमत पर उधार में लेने को तैयार थे । वे चाहते थे कि नई फसल के आने पर सोनाखान जमींदारी की ओर से उन्हें उधार लिया गया अनाज बाढ़ी के रूप में लौटा दिया जाएगा।इसके लिए उन्होंने कुछ अन्य व्यापारियों को भी चिट्ठी भिजवाई थी।उनमें से कुछ ने उन्हें मदद का आश्वासन दिया लेकिन खरौद का जमाखोर व्यापारी माखन इनकार करता रहा। तब नारायण सिंह ने अपने सैनिकों के साथ उसके गोदामों से अनाज निकलवाकर भूख से बेहाल जनता में वितरित करवा दिया । उन्होंने उसे भरोसा भी दिया कि और बाकायदा इसकी लिखित सूचना सम्पूर्ण हिसाब के साथ रायपुर स्थित कम्पनी सरकार के डिप्टी कमिश्नर को भी भेजी। इस बीच माखन ने रोते -कलपते रायपुर पहुँचकर इलियट से नारायण सिंह की शिकायत कर दी। इलियट ने इसे डकैती मान लिया और नारायण सिंह के विरुद्ध कार्रवाई की योजना बनाने लगा। अतंतःएक सैन्य संघर्ष के बाद नारायण सिंह ने अंग्रेज अधिकारियों के सामने स्वयं को प्रस्तुत कर दिया था।
इस पर तो फ़िल्म भी बन सकती है
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पुस्तक की विषय -वस्तु ,पृष्ठभूमि , पात्रों के परस्पर संवाद और घटनाओं की वर्णन शैली को देखते हुए इसे उपन्यास कहना मेरे विचार से उचित होगा। इस पर तो हिन्दी और छत्तीसगढ़ी मिश्रित भाषा में एक अच्छी देशभक्तिपूर्ण फ़िल्म बन सकती है । इसका नाट्य रूपान्तर करके मंचन भी हो सकता है। इस पुस्तक के लेखक हैं राजधानी रायपुर निवासी वरिष्ठ पत्रकार आशीष सिंह। मेरी जानकारी के अनुसार पत्रकार होने के नाते आशीष के लेखन में घटनाओं का धाराप्रवाह वर्णन मिलता है। विश्लेषण और वर्णन की उनकी क्षमता गज़ब की होती है। उन्होंने अब तक न तो कहानियाँ लिखीं और न ही कविताएँ और उपन्यास तो कभी नहीं लिखा । इसके बावज़ूद उनके भीतर दबा -छिपा एक देशभक्त और भावुक उपन्यासकार इस कृति के माध्यम से हमारे सामने आया है।
शहादत पर पहला उपन्यास
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जहाँ तक मुझे जानकारी है ,वीर नारायण सिंह के संघर्ष और उनकी शहादत पर ऐसा कोई उपन्यास अब तक नहीं लिखा गया था। मेरा मानना है कि इस लिहाज से यह उनकी जीवन-गाथा पर आधारित पहला उपन्यास है। यह आशीष सिंह की एक बड़ी उपलब्धि है। आशीष को साहित्यिक प्रतिभा आशीष के रूप में विरासत में मिली है। उनके पिता हरि ठाकुर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी , गोवा मुक्ति आंदोलन के कर्मठ सिपाही , छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण आंदोलन के लिए गठित सर्वदलीय मंच के संयोजक तथा हिन्दी और छत्तीसगढ़ी के सुप्रसिद्ध कवि थे। उन्होंने 'छत्तीसगढ़ गौरव गाथा ' शीर्षक से एक विशाल ग्रंथ भी लिखा , जिसमें छत्तीसगढ़ के इतिहास और यहाँ की महान विभूतियों के जीवन पर आधारित उनके कई आलेख शामिल हैं। हरि ठाकुर के पिता जी यानी आशीष सिंह के दादा जी ठाकुर प्यारेलाल सिंह अपने समय के एक महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ,श्रमिक नेता और सहकारिता आंदोलन के प्रमुख स्तंभ थे। उन्होंने वर्ष 1950 के दशक में रायपुर से अर्ध साप्ताहिक 'राष्ट्र-बन्धु' का सम्पादन और प्रकाशन प्रारंभ किया था। ठाकुर प्यारेलाल सिंह 'त्यागमूर्ति' के नाम से भी लोकप्रिय हुए। वे तत्कालीन मध्यप्रान्त की नागपुर विधान सभा में विधायक और नेता प्रतिपक्ष भी रह चुके थे। उन्हें तीन बार रायपुर नगरपालिका अध्यक्ष भी निर्वाचित किया गया था।
आशीष सिंह का लेखकीय परिचय
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इस प्रकार आशीष सिंह विरासत में मिली लेखकीय परम्परा को अपनी सृजनात्मक प्रतिभा के जरिए लगातार आगे बढ़ा रहे हैं।उनकी अनेक पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं। चौबीस जनवरी 1963 को जन्में आशीष सिंह लगभग तीन दशकों से राजधानी रायपुर में पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं। उनका लेखन मुख्य रूप से छत्तीसगढ़ की उन महान विभूतियों के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित रहा है ,जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना भरपूर योगदान दिया था। आशीष ने उन पर आधारित कई बड़े-बड़े ग्रंथों का सम्पादन भी किया है ,जिनमें स्वर्गीय हरि ठाकुर के शोधपरक आलेखों और निबंधों का संकलन 'छत्तीसगढ़ गौरव गाथा ' और स्वर्गीय पण्डित रामदयाल तिवारी का विशाल ग्रंथ 'गांधी-मीमांसा' भी शामिल है। इसके अलावा तीन खंडों में प्रकाशित ठाकुर प्यारेलाल सिंह समग्र 'भी शामिल है। आशीष सिंह ने सम्पादन के अलावा कुछ पुस्तकें अलग से भी लिखी हैं । उनकी प्रकाशित पुस्तकों में महात्मा गांधी की छत्तीसगढ़ यात्रा पर आधारित ' बापू और छत्तीसगढ़' , वरिष्ठ पत्रकार सनत चतुर्वेदी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आधारित 'अर्ध विराम ', छत्तीसगढ़ में वर्ष 1952 से 2014 तक हुए विधान सभा चुनावों का का लेखा-जोखा 'जनादेश' और छत्तीसगढ़ के स्वतंत्रता सेनानियों का हिन्दी, छत्तीसगढ़ी और अंग्रेजी में प्रकाशित जीवन-परिचय और उनका छत्तीसगढ़ी नाट्य रूपांतर 'हमर सुराजी ' आदि भी उल्लेखनीय है।
हिन्दी -छत्तीसगढ़ी मिश्रित प्रवाह पूर्ण भाषा
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अंग्रेजों के ख़िलाफ़ सोनाखान के अमर शहीद वीर नारायण सिंह के संघर्षों को ऐतिहासिक तथ्यों और तारीखों का साथ औपन्यासिक कथा वस्तु की शक्ल देकर आशीष सिंह ने सचमुच एक बड़ा महत्वपूर्ण कार्य किया है। इस पुस्तक में हिन्दी और छत्तीसगढ़ी मिश्रित उनकी भाषा -शैली वाकई बहुत प्रवाहपूर्ण है । भारत के महान स्वतंत्रता संग्राम और आज़ादी के योद्धाओं के बलिदानों की कहानियों में जिन्हें सचमुच दिलचस्पी है ,ऐसे देशभक्त पाठकों को इस पुस्तक में वर्णित घटनाएँ अंत तक सम्मोहित करके रखती हैं। हर घटना उत्सुकता जगाती है कि आगे क्या हुआ होगा ? किसी भी ऐतिहासिक उपन्यास में घटनाएँ भले ही वास्तविक हों ,लेकिन उन्हें सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करने के लिए काल्पनिकता का भी सहारा लेना पड़ता है। इसे देखते हुए कई प्रसंगों में आशीष सिंह ने कल्पनाओं के कैनवास पर शब्दों के रंगों से इस उपन्यास को सुसज्जित किया है। उन्होंने अपनी यह पुस्तक भारत की आज़ादी के अमृत महोत्सव को और अपने पिता स्वर्गीय हरि ठाकुर को समर्पित की है। यह पुस्तक हरि ठाकुर स्मारक संस्थान ,रायपुर द्वारा प्रकाशित की गयी है।
लेखक ने अपनी इस औपन्यासिक पुस्तक में वीर नारायण सिंह के व्यक्तित्व और कृतित्व में व्याप्त मानवीय संवेदनशीलता को बख़ूबी उभारा है। वे न सिर्फ़ अपनी प्रजा के हर सुख -दुःख का ख़्याल रखते हैं ,बल्कि अपने पशुओं को भी भरपूर स्नेह देते हुए अपने कर्मचारियों के साथ स्वयं उनकी देखभाल भी करते हैं। अक्ति यानी अक्षय तृतीया के दिन किसानों के साथ खेतों में बीज बोने के अनुष्ठान में भी शामिल होते हैं। उस दिन वे ग्रामीण परिवारों में होने वाले वैवाहिक समारोहों में भी हिस्सा लेते हैं।वीर नारायण सिंह के परिवार के सोनाखान की जनता के साथ आत्मीय जुड़ाव को इस औपन्यासिक कृति में बड़ी रोचकता से उभारा गया है। लोक कल्याणकारी ज़मींदार का रहन -सहन आम किसानों जैसा है। उनकी मिट्टी की हवेली का वर्णन भी प्रभावित करता है।
औपन्यासिक कृति में नाटक के तत्वों का प्रयोग
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पुस्तक की भूमिका छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार और सेवानिवृत्त आई.ए. एस. अधिकारी डॉ. सुशील त्रिवेदी ने लिखी है। उनका कहना है -"आशीष सिंह ने अपनी इस औपन्यासिक कृति में नाटक के तत्वों का प्रयोग कर राष्ट्रीय चेतना को उत्प्रेरित किया है। उन्होंने अपनी कथा -वस्तु में 1856 और 1857 में सोनाखान और रायपुर से लेकर सम्बलपुर तक चल रही विद्रोह की घटनाओं को एक श्रृंखला में पिरोया है।अलग -अलग घटनाओं के बीच के सम्पर्क शून्य को उन्होंने अपनी साहित्यिक कल्पनाशीलता से भरा है।इस शून्य को भरते हुए आशीष सिंह छत्तीसगढ़ी जीवनशैली को पूरी यथार्थता में उभारते हैं।"
पुस्तक में नवीन रचनाधर्मिता
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वहीं पुस्तक के आमुख में राज्य के जाने-माने इतिहासकार और श्री शंकराचार्य प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी भिलाई के कुलपति प्रोफेसर लक्ष्मीशंकर निगम लिखते हैं --" आशीष की इस पुस्तक में एक नवीन रचनाधर्मिता देखने को मिलती है।यह रचना मूलतः नाटक शैली में , छत्तीसगढ़ी में है ,तथापि बीच -बीच में अन्य भाषा-भाषी पात्रों के उपस्थित होने पर हिन्दी का भी प्रयोग आवश्यकता अनुसार किया गया है।इस रचना के माध्यम से लेखक ने छत्तीसगढ़ के इतिहास ,संस्कृति और लोक व्यवहार का एक विहंगम दृश्य प्रस्तुत किया है और ऐसा करने के लिए ऐतिहासिक पात्रों का समावेश करने के साथ ही अन्य काल्पनिक पात्रों को भी गढ़ा है ,लेकिन ये काल्पनिक पात्र इतिहास से प्रतिद्वंद्विता नहीं करते , बल्कि उसके पूरक रूप में हैं।"
पुस्तक में वीर नारायण सिंह की धर्मपत्नी ,उनके सुपुत्र गोविन्द सिंह और कई देशभक्त ग्रामीणों की बातचीत को भी बड़ी भावुकता से प्रस्तुत किया गया है। नारायण सिंह के आत्मीय सहयोगी के रूप में सम्बलपुर रियासत के वीर सुरेंद्र साय और उनके कुछ साथियों के कठिन संघर्षों का भी इसमें उल्लेख है।
नारायण सिंह में देशभक्ति और मानवीय संवेदनशीलता
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नारायण सिंह को रायपुर में डिप्टी कमिश्नर इलियट के सामने मुकदमे के लिए पेश करने पर उसके सवालों का जवाब देते हुए वे कहते हैं -
मैंने आग्रहपूर्वक माखन से अनाज की मांग की थी।अन्य व्यापारियों ने तो मुझे यथा शक्ति मदद की ,मगर माखन ने अनाज न होने का बहाना बनाया।मैंने जाँच की तो ज्ञात हुआ कि उसके गोदामों में अनाज भरा है।अकाल की इस विपत्ति में वह जमाखोरी कर ऊँचे भाव में अनाज बेच रहा है।भूख से बिलबिला रहे लोगों के बर्तन ,आभूषण ,पशु और खेत गिरवी रख रहा है।क्या यह अन्याय नहीं है?क्या यह अपराध नहीं है ? मुकदमा तो उस पर चलना चाहिए।सारी स्थिति का ब्यौरा हमने तुम्हें भेजा था , पर तुमने अकाल की विभीषिका से जनता को बचाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया।यह तो कम्पनी का दायित्व था ।दोषी तो तुम भी हो।" नारायण सिंह इलियट के एक प्रश्न के उत्तर में माखन के गोदाम से अनाज लूटने के आरोप को ख़ारिज करते हुए कहते हैं -"माखन के गोदाम से ज़रूरत के मुताबिक ही अनाज लिया गया है।वह भी बाढ़ी में। मैंने उससे करारनामा में हस्ताक्षर करवाया है।कि अगली फसल आने के बाद लिए गए अनाज का डेढ़ गुना लौटा दिया जाएगा। करारनामा की नकल तुम्हें भी भेजी गई है।" इलियट पूछता है -क्या किसी की मर्जी के बिना ऐसा किया जा सकता है? इस पर नारायण सिंह कहते हैं -- जब हजारों जन भूख से तड़प रहे हों ,तो किसी जमाखोर व्यापारी की मर्जी का कोई मतलब नहीं । मैंने अपनी प्रजा की प्राण -रक्षा के लिए अनाज लिया है।न्याय तो तब होगा ,जब तुम माखन के गोदाम का सारा अनाज जब्त करो और भूखों मर रही जनता में बाँट दो। " लेकिन मुकदमे और न्याय का नाटक कर रहे कम्पनी सरकार के अंग्रेज अफ़सर पर वीर नारायण सिंह की इन दलीलों का कोई असर नहीं हुआ ।उन्हें जेल में बंद रखा गया ।
इसके बावजूद अपने देशभक्त जेल कर्मचारियों की मदद से नारायण सिंह 28 अगस्त 1857 को वार्ड की दीवार पर बनाए गए एक बड़े छेद से निकलकर सोनाखान पहुँच गए। लेकिन दो दिसम्बर 1857 को अंग्रेज कैप्टन स्मिथ और नेपियर की फौज के साथ हुए युद्ध में नारायण सिंह ने विवश होकर स्वयं को अंग्रेजों के सामने प्रस्तुत कर दिया।
कैप्टन स्मिथ की फौज ने सोनाखान को राख में तब्दील कर दिया था
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इस बीच एक दिसम्बर की रात कैप्टन स्मिथ ने अपनी फौज से सोनाखान की निर्जन बस्ती में आग लगवा दी और गाँव को राख में तब्दील कर दिया।उसने देवरी के जमींदार महाराज साय से कहा -लो ,महाराज साय अपना इनाम। ये रहा सोनाखान।अब तुम हो सोनाखान के जमींदार। "
गिरफ़्तार हुए नारायण सिंह पर अंग्रेज हुकूमत की ओर से रायपुर में डिप्टी कमिश्नर इलियट की अदालत में फिर एक बार मुकदमे का नाटक हुआ।स्मिथ उनसे कहता है -" व्यापारी के गोदाम से अनाज लूटने के आरोप में तुम्हे गिरफ्तार कर मुकदमा चलाया जा रहा था।ट्रायल के दौरान तुम जेल से फरार हो गए और 500 लोगों की सेना तैयार कर ली।जब तुम्हें गिरफ्तार करने पलटन पहुँची ,तो तुमने उस पर आक्रमण कर दिया।कम्पनी सरकार ने तुम्हारी इन हरकतों को राजद्रोह करार दिया है। "इलियट उनसे पूछता है -तुम्हें अपनी सफाई में कुछ कहना है?
विदेशियों की इस अदालत को मैं मान्य नहीं करता
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इस पर वीर नारायण सिंह का जवाब था - "पहली बात तो यह कि तुम विदेशियों की इस अदालत को मैं मान्य नहीं करता।"स्मिथ फिर बोला-यह कोर्ट की तौहीन है।तुम्हें अदालत का सम्मान करना होगा।" नारायण सिंह ने उसे जवाब दिया -"तुम फिरंगी हमारे देश में व्यापार करने आए थे न?लूट-खसोट और फूट डालकर राज्यों और जमींदारियों पर अवैध कब्जा जमा रहे हो ।तुम किस आधार पर मुझे देशद्रोही करार देते हो? क्या यह देश तुम्हारा है ? रहा सवाल सम्मान का ,तो वह हम तुम्हें अवश्य देते ,यदि तुम्हारा आचरण अतिथि जैसा होता। ये देश तुम्हारा नहीं ,हमारा है।हम तुम्हें राजा नहीं मानते तो राजद्रोह का प्रश्न ही उपस्थित नह होता।" अंततः उनकी देशभक्तिपूर्ण सभी दलीलों को अमान्य करते हुए इलियट की अदालत ने नारायण सिंह को फाँसी की सजा सुना दी।
अंतिम इच्छा ;फिरंगी मेरा देश छोड़कर चले जाएँ
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इलियट ने 10 दिसम्बर 1857 को सुबह फाँसी देने के पहले वीर नारायण सिंह से पूछा -माफी के अलावा तुम्हारी कोई इच्छा है,तो कह सकते हो।इस पर नारायण सिंह बोले -मेरे सिर पर पड़ा यह चोंगा उतार दिया जाए,ताकि मैं अपनी धरती और अपनी मातृभूमि के अंतिम दर्शन कर सकूं।इलियट ने फिर पूछा -और कोई इच्छा ? नारायण सिंह ने कहा -मेरी अंतिम इच्छा है कि फिरंगी मेरा देश छोड़कर चले जाएँ । आखिर अंग्रेजों ने नारायण सिंह को फाँसी पर लटका दिया।वीर नारायण सिंह अपनी प्रजा और अपने देश के लिए शहीद हो गए।
छिपा हुआ साम्राज्यवादी एजेंडा लेकर
आयी थी ईस्ट इंडिया कम्पनी
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हमारे देश को गुलाम बनाना भले ही अंग्रेजों का दूरगामी और छिपा हुआ साम्राज्यवादी एजेंडा रहा होगा , लेकिन इसमें दो राय नहीं कि वे सबसे पहले ईस्ट इंडिया कम्पनी बनाकर इस महादेश में व्यापार करने आए थे। उन्होंने अपनी कपट नीति और कूटनीति से भारत में कारोबार का ऐसा मायाजाल फैलाया कि उस ज़माने की छोटी -बड़ी अधिकांश रियासतों के राजे -महाराजे उसमें उलझ कर अंग्रेजों की इस 'कम्पनी सरकार' के सामने नतमस्तक होते चले गए। तत्कालीन युग का विशाल अखण्ड भारत अंग्रेजों का गुलाम बन गया। भारत माता को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने के लिए देश के विभिन्न इलाकों में वर्षों तक रह-रहकर कई स्थानीय और व्यापक विद्रोह भी हुए ।झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के वर्ष 1857 की महान संघर्ष गाथा इतिहास में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के रूप में दर्ज है। इस विद्रोह के बाद इंग्लैंड की हुकूमत ने भारत का शासन और प्रशासन ईस्ट इंडिया कम्पनी से अपने हाथों में ले लिया।
परलकोट के गैंद सिंह की शहादत
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वैसे नारायण सिंह की शहादत के 32 साल पहले छत्तीसगढ़ अंचल में भी अंग्रेजों की 'कम्पनी सरकार 'के ख़िलाफ़ संघर्ष का वीरतापूर्ण इतिहास मिलता है ,जिसमें परलकोट यानी वर्तमान बस्तर राजस्व संभाग के कांकेर जिले में पखांजूर का इलाका भी इसका साक्षी रहा है ,जहाँ वर्ष 1825 में परलकोट के जमींदार गैंद सिंह को अंग्रेजों ने उनके महल के सामने 20 जनवरी को फाँसी पर लटका दिया था। सोनाखान के नारायण सिंह की शहादत 10 दिसम्बर 1857 को हुई।
आज़ादी मिलने के दस साल बाद शहीद घोषित हुए वीर नारायण सिंह
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असंख्य वीरों के महान संघर्षों से देश को 15 अगस्त 1947 को आज़ादी मिली और उसके लगभग 10 साल बाद 1957 में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शताब्दी वर्ष के दौरान तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार ने सोनाखान के नारायण सिंह को छत्तीसगढ़ का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और पहला शहीद घोषित किया । यानी पूरे सौ साल बाद उन्हें यह सम्मान मिला वरिष्ठ साहित्यकार और इतिहासकार हरि ठाकुर ने नारायण सिंह के बलिदान पर एक आलेख भी लिखा था ,जिसके छपने के बाद तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार ने इसका संज्ञान लिया और बलौदाबाजार के तत्कालीन तहसीलदार से जाँच प्रतिवेदन मंगवाया । नारायण सिंह को शहीद और स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा हरि ठाकुर के इसी आलेख के आधार पर दिया गया।
हरि ठाकुर ने दिया 'वीर 'विशेषण
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हरि ठाकुर के सुपुत्र और उपन्यास के लेखक आशीष सिंह ने पुस्तक की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालते हुए प्रारंभिक पन्नों में इस प्रसंग का उल्लेख किया है। उन्होंने यह भी लिखा है कि नारायण सिंह को 'वीर' विशेषण मेरे पिता (हरि ठाकुर) के द्वारा दिया गया था ,जो अब नारायण सिंह के साथ अटूट रूप से जुड़ गया है।
रायपुर की सैन्य छावनी में हुए 17 शहीद
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दिसम्बर 1857 में वीर नारायण सिंह की शहादत के बाद जनवरी 1858 में रायपुर की सैन्य छावनी में अंग्रेज अफसरों के ख़िलाफ़ मैग्जीन लश्कर हनुमान सिंह के नेतृत्व में एक सैन्य विद्रोह भड़क उठा था,जिसमें हनुमान सिंह ने तीसरे नियमित रेजिमेंट के सार्जेंट मेजर सिंडवेल की उसके बंगले में घुसकर तलवार से हत्या कर दी थी। हनुमान सिंह अंग्रेजो के शस्त्रागार को कब्जे में लेना चाहते थे ,लेकिन उनका और उनके साथियों का यह विद्रोह विफल हो गया। इस घटना के बाद हनुमान सिंह अज्ञातवास में चले गए और उनका कोई पता नहीं चला ।लेकिन उनके 17 साथियों को पकड़ लिया गया ,जिन्हें 22 जनवरी 1858 को फाँसी पर लटका दिया गया। यह उपन्यास वर्ष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौर में छत्तीसगढ़ में घटित ऐसी कई भूली -बिसरी घटनाओं की याद दिलाता है ।
-स्वराज्य करुण
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