(आलेख : स्वराज्य करुण )
हमारी संस्कृति और हमारे जन -जीवन से जुड़ी नदियाँ पहले बारहमासी हुआ करती थीं ,अब उनमें से अधिकांश ' बरसाती नदियाँ ' कहलाने लगी हैं। ठीक भी है। बारहों महीने तो उनमें पानी नहीं रहता । आजकल उनके जल में जीवन की कुछ हलचल सिर्फ़ बरसात के दिनों में ही नज़र आती है। पहले नदियों में नौकाओं के जरिए यातायात और माल परिवहन भी होता था । देश के भीतर जल मार्ग से व्यापार व्यवसाय होने की जानकारी भी इतिहास में मिलती है । कई नदियों के किनारे पुरातत्वविदों को उत्खनन में प्राचीन बंदरगाहों के अवशेष भी मिले हैं।
पहाड़ों की संतान हैं उनकी गोद से निकलने वाले नदी -नाले। लेकिन विगत सैकड़ों वर्षों से मानव के हाथों से हो रहे प्राकृतिक संसाधनों के असंतुलित और निर्मम दोहन की वजह से पहाड़ उजड़ने लगे और नदियाँ भी सूखने लगीं ,पहाड़ों से निकलकर नदियों से मिलने वाले झरने भी सूखने लगे और जल मार्ग विलुप्त हो गए। यह सिलसिला आज भी जारी है। नदियों के साथ - साथ कई प्राकृतिक बरसाती नाले भी सूखकर बेजान होते जा रहे हैं। जब हमारी प्राकृतिक जल -धाराएँ सूखने लगीं तो धरती पर हमारा 'जन - जीवन 'भी इस समस्या से अछूता कैसे रह सकता है ?लिहाजा जल -जीवन के साथ जन -जीवन भी सूखने लगा ।
( दृश्य - पश्चिम ओड़िशा के ओंग नदी का , पिछले साल गर्मी के मौसम में )
खेती के लिए पानी और सिंचाई भी जरूरी है। बिजली और पेयजल के लिए भी पानी का बारहमासी स्रोत चाहिए। इसलिए नदियों पर छोटे- बड़े बांधों के जरिए उनका पानी रोका जाने लगा तो उनकी जल धाराएँ आगे नहीं बढ़ पायीं और आगे चलकर नदियाँ सूखने लगीं । बरसाती नाले भी। मानव बसाहटों का कचरा नदी -नालों में डाला जाने लगा। ये प्राकृतिक जल स्रोत प्रदूषण का शिकार होने लगे।
बड़े -बड़े उद्योगों को चलाने के लिए विशालकाय पाइप लाइनों के जरिए नदियों का पानी सोखा जाने लगा। भू -जल का भी निर्मम शोषण होने लगा। हालांकि मानव जीवन के लिए तरह -तरह के उद्योग भी जरूरी हैं ,लेकिन उनमें पानी के इस्तेमाल के लिए क्या कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हो सकती ? वाटर रिचार्जिंग और रेन वाटर हार्वेस्टिंग की सहज -सरल तकनीक शायद उनके लिए विकल्प बन सकती है। उनके लिए ही क्यों , आम जनता के लिए भी यह बहुत उपयोगी है। अब तो कई राज्यों में सरकारी और निजी भवन और मकान बनाने के लिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग की तकनीक अनिवार्य कर दी गयी है।बरसात में छत पर जमा होने वाले पानी को पाइपों के माध्यम से ज़मीन के भीतर भेजकर इमारतों के आस -पास के गिरते हुए भू -जल स्तर को संभाला जा सकता है। बहुमूल्य खनिज, वन और जल -सम्पदा के रूप में हम इंसान प्रकृति से बहुत कुछ लेते हैं ,लेकिन जितना उससे लेते हैं ,उसके बदले हम उसे क्या और कितना देते हैं ? इस पर भी हमें विचार करना चाहिए ।
भारत में नदियों को माता कहकर सम्बोधित किया जाता है ,क्योंकि वे अपने अमृत तुल्य पानी से मनुष्य का लालन -पालन करती हैं। लेकिन देश के कई शहरी इलाकों में नदियों के इस 'अमृत जल ' को उनके बेटे -बेटियों ने ही विषैला बना दिया है। गंगा और यमुना के किनारे बसे कई शहरों से इस प्रकार के चिन्ताजनक सचित्र समाचार गाहेबगाहे आते रहते हैं। यह जरूर है कि नये दौर में वाटर ट्रीटमेंट तकनीक के जरिए हम नदियों के प्रदूषित ,जहरीले पानी को भी साफ़ करके पीने योग्य बना रहे हैं। लेकिन यह तो कृत्रिम उपाय है। (स्वराज्य करुण) कृत्रिमता कभी नैसर्गिकता का विकल्प नहीं बन सकती। अगर जीवन को स्वस्थ रखना है तो नदी -नालों को भी स्वच्छ रखना होगा । उनकी गोद में कचरा डालना बंद करना होगा। उनके किनारों पर और उनके उदगम पहाड़ों पर सघन वृक्षारोपण करना होगा। वर्तमान में प्राकृतिक वनों का असंतुलित दोहन भी नदी -नालों के सूखते जाने का एक बड़ा कारण है। नदी -नालों के किनारे बसे कई गाँवों ,कस्बों और शहरों में ग्रीष्म ऋतु में पानी के लिए हाहाकार क्यों मचता है ,जबकि पानी का नैसर्गिक स्रोत तो उनके नज़दीक ही होता है ? इसके कई कारण हो सकते हैं।
बाकी तो बड़े -बड़े विशेषज्ञ ही बताएंगे कि इस गंभीर समस्या के निराकरण के क्या -क्या उपाय हो सकते हैं ? पिछले साल इन्हीं गर्मियों के दिनों में ओड़िशा में ओंग नदी के पुल से गुजरते हुए गर्मियों में सूखी इस नदी की हालत को देखकर मन में ऐसे कई विचार आए ,जिन्हें मैंने तस्वीरों सहित आप सबके चिन्तन-मनन के लिए यहाँ प्रस्तुत किया।
आलेख : स्वराज्य करुण
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