(आलेख : स्वराज्य करुण )
राजे -रजवाड़े तो अब रहे नहीं ,लेकिन धरती के आँचल में , इतिहास के भूले -बिसरे पन्नों में , समय की सुनामी से टूटे -बिखरे भवनों और किलों के अवशेषों में और जनश्रुतियों में उनके अतीत वैभव की यादें आज भी जीवित हैं। दिल इतिहास का भी होता है , जिसकी धड़कनों में मानव सभ्यता की सैकड़ों हजारों साल पुरानी यादें आज भी धीमी आवाज़ में ही सही ,लेकिन गूंजती रहती हैं। इतिहास के दिल की इन धड़कनों को छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले में हरी -भरी ऊँची पहाड़ियों से घिरे ग्राम कौड़िया में भी महसूस किया जा सकता है। काल के प्रवाह में क्या इतिहास का यह मंद पड़ता स्पंदन एक दिन पूरी तरह बंद हो जाएगा और इतिहास मर जाएगा ? हम प्रार्थना करें कि ऐसा दिन कभी न आए और इतिहास हमेशा जीवित रहे ,ताकि हमारा वर्तमान उससे कुछ सीख सके।
पिथौरा विकासखंड में ग्राम पंचायत पिलवापाली का आश्रित गाँव है कौड़िया । यह गोंड और बिंझवार जनजाति बहुल गाँव है। ऐसा माना जाता है कि बहुत पहले रियासती राजाओं के दौर में यह राजा करिया धुरवा की राजधानी थी। वह आमात्य गोंड समुदाय के थे। धुरवा उनका गोत्र था। यह उनकी मुख्य कर्मभूमि थी।
करिया धुरवा के वंशज संतराम गोंड
संतराम गोंड जैसे उनके कुछ वंशज आज भी कौड़िया में रहते हैं ,लेकिन उन्हें अपने इस बहादुर पूर्वज के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं है ,सिवाय इसके , कि यहाँ उनका एक गढ़ (किला )था और उनका मंदिर यहाँ से करीब 16 किलोमीटर दूर ग्राम अर्जुनी में है और जहाँ हर साल अगहन महीने की पूर्णिमा के दिन विशाल तीन दिवसीय मेले का आयोजन किया जाता है। संतराम हमें यह भी बताते हैं कि कौड़िया गाँव से लगी पहाड़ी के ऊपर राज दरबार के भी अवशेष हैं ,जहाँ पत्थरों पर ' धन ' और 'ऋण ' की आकृतियां भी बनी हुई हैं । समय की कमी थी। इसलिए हम 'राज दरबार ' तक नहीं पहुँच सके ,लेकिन पहाड़ी के एक ओर ऊँचे स्थान पत्थरों से निर्मित सिद्ध बाबा की एक अनगढ़ मूर्ति हमने जरूर देखी।
ग्राम कौड़िया का प्रवेश मार्ग
कौड़िया गाँव के लोग हमें उस किले को दिखाते हैं ,जो अब समय के तेज प्रवाह में विलुप्त होने के कगार पर है। करिया धुरवा का यह गढ़ आज की स्थिति में एक -दूसरे पर बेतरतीब रखे हुए बड़े -बड़े पत्थरों से घिरा हुआ है और उसकी एक दीवार लगभग आधे किलोमीटर तक जाकर कौड़िया डोंगरी को स्पर्श करती है।लेकिन यह दीवार भी बीच -बीच में बने मकानों और लोगों की बाड़ियों आदि के कारण ठीक से नज़र नहीं आती। करिया धुरवा के गढ़ का यह ध्वंसावशेष उनके गौरवशाली अतीत की याद दिलाता है।
अंचल के प्रसिद्ध लेखक शिवशंकर पटनायक ने करिया धुरवा की जीवन गाथा को उपन्यास के साँचे में ढाला है। उनका उपन्यास 'देवी करिया धुरवा 'के नाम से काफी चर्चित भी हुआ है। इस उपन्यास की चर्चा मैंने फेसबुक पर दो दिन पहले 27 अक्टूबर को अपनी पोस्ट में विस्तार से की है।
बहरहाल ,उनका उपन्यास पढ़कर मैं जिज्ञासावश अपने मित्र प्रवीण 'प्रवाह' के साथ कल कौड़िया चला गया था।
वहाँ स्थित करिया धुरवा के विलुप्त हो रहे गढ़ में ग्रामीणों ने एक चबूतरा बना दिया है ,जिस पर बहुत प्राचीन शिव लिंग स्थापित है। ग्रामीण उनकी पूजा करते हैं। बाजू में काले पत्थरों से निर्मित एक प्रतिमा रखी हुई है। सूरज की रोशनी , हवा और बारिश की बौछारों से इसका क्षरण होता जा रहा है। ध्यान से देखने पर यह उमा -महेश्वर ,(पार्वती महादेव) या अर्ध नारीश्वर की मूर्ति प्रतीत होती है। इसी गढ़ के परिसर में वृक्ष के नीचे पत्थर की एक लम्बी -आकृति भी शान से खड़ी है।
गाँव वाले इसे ' पाट -देवी ' मानते हैं ,जो उनके अनुसार ग्राम भुरकोनी से आयी हैं । ग्रामवासी उमा -महेश्वर के साथ इनकी भी पूजा करते हैं। लेकिन वनवासियों के इस गाँव के आस -पास कौड़िया डोंगरी के नाम से प्रसिद्ध इन पहाड़ियों के कुछ हिस्सों में वनों की कटाई देखकर पर्यावरण की दृष्टि से चिन्ता भी होती है।हालांकि कौड़िया से लगी पहाड़ियों में हरे -भरे वन अभी पर्याप्त बचे हुए हैं।
प्राचीन भारत के इतिहास को जानने समझने के लिए देश के ग्रामीण क्षेत्रों में बिखरी पुरातात्विक सम्पदाओं को सहेजने की जरूरत है। पुरातत्व विशेषज्ञ कार्बन डेटिंग पद्धति और अन्य तकनीकों से इनका काल निर्धारण कर सकते हैं। करते भी हैं। इसके बावज़ूद व्यवहारिक कठिनाइयों के कारण पुरातात्विक महत्व के अनेक स्थान और स्मारक अनदेखे और अनछुए रह जाते हैं ,क्योंकि पुरातत्व विभाग की अपनी सीमाएं हैं ,संसाधन भी सीमित हैं। ऐसे में अगर विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के इतिहास विभाग के अध्यापक अपने विद्यार्थियों के साथ ऐसे स्थानों का अध्ययन करें ,अनुसंधान करें तो कई नये ऐतिहासिक तथ्य सामने आ सकते हैं और पुरातत्व विभाग के मार्गदर्शन में इन पुरावशेषों को ग्राम पंचायतों और स्थानीय निकायों के सहयोग से संरक्षित भी किया जा सकता है।
-- स्वराज्य करुण
बहुत सुन्दर
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