Friday, July 24, 2020

पुस्तक चर्चा : हल्बी लोकभाषा का पहला व्याकरण

                      आलेख : स्वराज करुण 
जब कभी साहित्यिक -सांस्कृतिक दृष्टि से सम्पन्न   लोकभाषाओं को सम्पूर्ण भाषा के रूप में स्वीकार करने की बात होती है ,तो अक्सर कुछ लोग इस तरह की चर्चा को यह कह कर ख़ारिज कर देते हैं कि इनका  न तो कोई व्याकरण है और न ही इनकी कोई लिपि । लेकिन वो भूल जाते हैं कि जहाँ तक सम्पूर्ण कही जाने वाली भाषाओं की लिपि का सवाल है तो हमारे पड़ोसी देश नेपाल की राजभाषा नेपाली  भी देवनागरी लिपि में ही लिखी जाती है। हमारे देश की मराठी भाषा की वर्णमाला भी मामूली अंतर से देवनागरी ही है। 
   भले ही इन सम्पूर्ण मानी जाने वाली भाषाओं का अपना व्याकरण है ,लेकिन लिपि वही है जो हम लोग अपनी  राष्ट्रभाषा हिन्दी के लिए इस्तेमाल करते हैं। यानी देवनागरी । छत्तीसगढ़ प्रदेश में भी छत्तीसगढ़ी सहित अनेक आंचलिक लोक भाषाएं प्रचलित हैं। अलग से कोई लिपि न होने के बावज़ूद उनका अपना व्याकरण है ,  अपना लोक साहित्य है  , अपने लोकगीत हैं और अपना लोक संगीत है ,अपने लोकनृत्य हैं। इन लोकभाषाओं को भी देवनागरी वर्णमाला में ही लिखा जाता है।
                         
 वर्ष  2000 में राज्य बनने के बाद वर्ष 2007 में विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर  छत्तीसगढ़ी को तो  इस प्रदेश की राजभाषा का भी दर्जा दिया जा चुका है। छत्तीसगढ़ी भाषा का पहला व्याकरण आज से 135 साल पहले वर्ष 1885 में  धमतरी में व्याकरणाचार्य हीरालाल काव्योपाध्याय द्वारा लिखा गया था। वह शिक्षक थे और अपनी लोकप्रियता के कारण बाद में धमतरी नगरपालिका के अध्यक्ष भी निर्वाचित हुए  थे। उनके छत्तीसगढ़ी व्याकरण के प्रकाशन के लगभग 52 साल बाद  बस्तर जैसे उस समय के बेहद पिछड़े  अंचल में  वहाँ की प्रमुख लोक भाषा हल्बी का व्याकरण तैयार करने का ऐतिहासिक कार्य हुआ । वर्ष 1937 में जगदलपुर के ठाकुर पूरनसिंह की पुस्तक 'हल्बी भाषा बोध ' का पहला प्रकाशन हुआ था  । बस्तर के इतिहास की इस महत्वपूर्ण घटना के लगभग आठ दशक बाद इसका द्वितीय संस्करण वर्ष  2016 में प्रकाश में आया।  ठाकुर पूरनसिंह के  पौत्र और जगदलपुर निवासी कवि विजय सिंह ने  अपनी साहित्यिक संस्था 'सूत्र प्रकाशन" के बैनर पर नये कलेवर में  इसे पुनः प्रकाशित किया  है। विजय सिंह कहते हैं कि ' हल्बी भाषा -बोध ' दरअसल इस लोकभाषा का पहला व्याकरण है।  
     इसमें दो राय नहीं कि छत्तीसगढ़ का आदिवासी बहुल वनांचल बस्तर  अपनी समृद्ध लोक संस्कृति के लिए देश और दुनिया में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस राजस्व संभाग का भौगोलिक क्षेत्रफल 39 हजार 171 वर्ग किलोमीटर है । क्षेत्रफल की  दृष्टि से यह केरल राज्य के क्षेत्रफल से कुछ अधिक है। केरल का क्षेत्रफल 38 हजार 863 वर्गकिलोमीटर है ।  यानी छत्तीसगढ़ का बस्तर संभाग केरल प्रदेश से भी बड़ा है।  बस्तर राजस्व संभाग में  7 जिले हैं - उत्तर बस्तर (कांकेर ), कोंडागांव , बस्तर (जगदलपुर), दक्षिण बस्तर (दंतेवाड़ा ), बीजापुर , सुकमा और नारायणपुर । देश की आज़ादी के पहले यह  सम्पूर्ण इलाका रियासती शासन के अंतर्गत आता था।  वैसे तो बस्तर अंचल में मुख्य रूप से पांच जनजातीय बोलियां (लोक भाषाएं ) प्रचलित हैं -हल्बी ,भतरी ,गोंडी ,दोरली और धुर्वी ।  इन सबमें हल्बी यहाँ की प्रमुख सम्पर्क भाषा है। ब्रिटिश हुकूमत के दौरान  तब वहाँ नियुक्त  और पदस्थ होने वाले बाहर के सरकारी अधिकारी और कर्मचारी हल्बी सीख सकें ,ताकि उनके द्वारा जनता से जुड़े शासकीय काम-काज सुगमता से हो सकें , इस  उद्देश्य को अपनी किताब 'हल्बी भाषा बोध ' के माध्यम से  पूरा किया ठाकुर पूरनसिंह ने । हम कह सकते हैं कि जिस तरह व्याकरणाचार्य हीरालाल काव्योपाध्याय ने छत्तीसगढ़ी भाषा का पहला व्याकरण लिखा ,उसी तरह बस्तर में सबसे पहले ठाकुर पूरनसिंह  ने  हल्बी भाषा -बोध के नाम से हल्बी व्याकरण की पहली किताब  लिखी ।
      वरिष्ठ साहित्यकार जगदलपुर निवासी   स्वर्गीय लाला जगदलपुरी ने अपनी पुस्तक 'बस्तर इतिहास एवं संस्कृति ' में ठाकुर पूरनसिंह की इस पुस्तक का  जिक्र किया है। लालाजी लिखते हैं --"हल्बी यद्यपि बस्तर -स्टेट में 'राजभाषा ' के पद पर आसीन रह चुकी थी , फिर भी उसमें आंचलिक लेखन का अभाव था।हल्बी में आंचलिक लेखन का शुभारंभ सन 1937 में हुआ था।स्वर्गीय  ठाकुर पूरनसिंह और स्वर्गीय पण्डित गणेश प्रसाद सामंत ने हल्बी में लेखन -प्रकाशन का सूत्रपात किया था । ठाकुर पूरनसिंह ने 'हल्बी भाषा -बोध' की रचना की थी और पण्डित गणेश प्रसाद सामंत ने 'देवी -पाठ ' नामक एक पद्य -पुस्तिका  लिखी थी। सन 1945 में मेजर आर.के.एम .बेट्टी लिखित 'ए हल्बी ग्रामर ' का प्रकाशन हुआ था।सन 1950 में स्वर्गीय पण्डित गंभीरनाथ पाणिग्रही लिखित एक छोटा -सा हल्बी कविता संग्रह ' गजामूँग' प्रकाशित हुआ था।" 
     हल्बी लोकभाषा का प्रारंभिक ज्ञान अर्जित करने की दृष्टि से ठाकुर पूरनसिंह की यह किताब काफी उपयोगी है। जैसा कि बताया गया है -रियासत कालीन बस्तर में यह पुस्तक बस्तर के बाहर के क्षेत्रों से नौकरी में आने  वाले सरकारी कर्मचारियों और अफसरों को हल्बी सिखाने के लिए प्रकाशित की गई थी , तो इसकी जरूरत आज के समय में भी महसूस की जा रही है । अन्य नागरिक भी इस पुस्तक से हल्बी सीख सकते हैं।   यह पुस्तक हल्बी लोकभाषा के शिक्षण और  प्रशिक्षण के लिए पहली प्रामाणिक पुस्तक मानी जाती है। लगभग 70 पृष्ठों के इसके द्वितीय संस्करण के प्रकाशन से बस्तर में निश्चित रूप से हल्बी लोकभाषा के संरक्षण और संवर्धन की दिशा में एक ऐतिहासिक काम हुआ है।
           आलेख : स्वराज करुण 

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