देखो जरा आस-पास कैसा जमाना है .
निठल्लों को घर बैठे खीर खाना है !
जनता की अर्जी पर अफसर की मर्जी ,
फाइलों का टेबल पर आना और जाना है !
पहुँच जिसकी दूर तक हो सबसे पहले ,
नज़रों ही नज़रों में उसे मुस्कुराना है !
दफ्तर को चाहिए एक ऐसी कठपुतली,
ईमानदारी से जिसका झगड़ा पुराना है !
बहुतों की होती है कुछ ऐसी फितरत,
काम करने वालों की खिल्ली उड़ाना है !
शायद ये लिखा है देश की किस्मत में ,
कामचोरी का तो ये आलम पुराना है !
रौब-दाब से रहते यहाँ सारे आलसी ,
हमको तो रात-दिन पसीना बहाना है !
स्वराज्य करुण
ईमानदार पोस्ट पर हमारी प्रशंसा स्वीकारें !
ReplyDeleteबहुत-बहुत आभार, लेकिन समझ में नहीं आ रहा है कि आज ब्लॉग-जगत में इस गज़ल पर ऐसी खतरनाक खामोशी क्यों ?
ReplyDeleteसटीक लिखा है ...हर कार्यालय की बात कह दी
ReplyDeleteरौब-दाब से रहते यहाँ सारे आलसी ,
ReplyDeleteहमको तो रात-दिन पसीना बहाना है !
बहुत अच्छी कविता के लिए आभार .
सच्ची और सही बातें समेटी है अपनी पोस्ट में आपने ...बहुत अच्छी ग़ज़ल कही . बधाई
ReplyDeleteबहुत सुन्दर शब्द चुने आपने कविताओं के लिए..
ReplyDeleteआपकी इस सुन्दर रचना की चर्चा चर्चा मंच पर भी है!
ReplyDeletehttp://charchamanch.blogspot.com/2010/11/337.html
उत्साहवर्धक टिप्पणियों के लिए आप सबका बहुत-बहुत आभार .
ReplyDeleteनिरंतर बदलते परिवेश में मानव जीवन के अंतर्विरोंधों की कटु सच्चाईयों को दर्शाती खूबसूरत और संवेदनशील प्रस्तुति. आभार.
ReplyDeleteसादर,
डोरोथी.