Thursday, October 7, 2010

अपनी जड़ों से दूर आसमान होता है !

                     इंसानियत को समझे वो इंसान होता है ,
                     फिर भी न जाने क्यों   नादान होता है !

                     जिंदगी गुजरती है हर पल ज़मीन पर
                     अपनी जड़ों से दूर  आसमान होता है !

         
                    दो दिन के लिए आया है जाने कहाँ से वो ,
                    सब जान कर भी राह से अनजान होता है !

     
                     ईमान -धरम से भी हैं जीने के बहुत मौके ,
                    जाने क्यों दिल  उसका बेईमान होता है !
             
                    साधू की तरह पाया   जिस आदमी को हमने ,
                    देखा तो  उसके भीतर भी शैतान होता है  !


                     कभी चलता है धीमे-धीमे  सुबह की हवाओं -सा
                     कभी आग की नदी में   क्यों तूफ़ान होता है !
               
                                                                    स्वराज्य करुण

9 comments:

  1. साधू की तरह पाया जिस आदमी को हमने ,
    देखा तो उसके भीतर भी शैतान होता है !
    धर्म के पाखंडियों पर करारा प्रहार कर लोगों को अंधविश्‍वास से दूर रहने को प्रेरित करती रचना। बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
    मध्यकालीन भारत-धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-२), राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें

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  2. भावपूर्ण रचना ! इंसानों के वस्तुपरक पर्यवेक्षण पर आधारित !

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  3. 'जड़ों से दूर आसमान' अप्रत्‍याशित सा प्रयोग, संदर्भ सहित स्‍पष्‍ट हो पाता है, बधाई.

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  4. बेहद उम्दा ...बड़ी गहराई में जाकर लिखा है आपने

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  5. साधू की तरह पाया जिस आदमी को हमने ,
    देखा तो उसके भीतर भी शैतान होता है !
    यही सच है……………सुन्दर और उम्दा प्रस्तुति।

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  6. aadarnya sir , apki kavitaaon ka sada se prashanshak . apki kavita mujhe behad achchhi lagti hai. asha hai hamesha aap se aisi hi sundar sundar rachnayen padhne ko milti rahegi .

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  7. आत्मीय टिप्पणियों के लिए आप सबको ह्रदय से धन्यवाद. शारदीय-नवरात्रि की बधाई और शुभकामनाएं .

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  8. बहुत बढ़िया रचना ... बधाई

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