Tuesday, October 5, 2010

नदी के सम्मान में नत-मस्तक मंदिर !

   .वास्तव में परोपकार तो कोई नदियों से सीखे .हर किसी की प्यास बुझाने वाली नदियाँ अपना पानी खुद नहीं पीतीं . वे अपने पानी से इंसान, जानवर और पेड़-पौधों सहित सम्पूर्ण जीव-जगत में प्राणों का संचार कर दुनिया में चहल-पहल बनाए रखती हैं.ऐसे में किसी नदी के इस उपकार के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए कोई मंदिर अगर पिछले नौ सौ वर्षों से नत-मस्तक खड़ा हो , तो देखकर भला किसे आश्चर्य नहीं होगा ?   आश्चर्य इसलिए कि आज की दुनिया में ऐसा नज़ारा दुर्लभ है . आज का इंसान किसी के एहसान का क्या प्रतिफल देता है , इसे हर कोई देख रहा है . वह  एहसान करने वाले के लिए सम्मान प्रकट करना तो दूर ,उसे धन्यवाद देना तक  भूल जाता है ,लेकिन उड़ीसा के पश्चिमांचल में महानदी के किनारे ग्राम हुमा में 'वक्र मंदिर' के नाम से प्रसिद्ध बाबा विमलेश्वर के  मंदिर को देख कर ऐसा लगता है मानो यह इस  नदी के लिए आदर भाव के साथ हर मौसम में शीश झुकाए अपनी ओर से   आज की दुनिया को यह सन्देश  दे रहा है कि इंसान को नदियों का एहसान कभी नहीं भूलना चाहिए . शायद आप भी मेरे साथ वहां ज़रूर चलना चाहेंगे , लेकिन इसके पहले हम अपने सफ़र की शुरुआत करेंगे नदी के उदगम से और महसूस करेंगे इसके दोनों किनारों पर छत्तीसगढ़ और उत्कल राज्य में इसकी जल -धाराओं के साथ प्रवाहित अनेकानेक सांस्कृतिक धाराओं की गरिमा और महिमा को .
पश्चिम उड़ीसा में महानदी के तट पर 'वक्र-मंदिर' और गर्भ-गृह , ग्राम हुमा
  हमारी महान भारतीय संस्कृति में अधिकाँश तीर्थ नदियों के किनारे विकसित ,पुष्पित और पल्लवित हुए हैं.गंगा-यमुना- सरस्वती  से लेकर महानदी , नर्मदा , क्षिप्रा , और कृष्णा -कावेरी-गोदावरी तक देश में नदियों के किनारे-किनारे तीर्थों की एक लंबी कतार पुष्प-मालाओं और दीप-मालिकाओं की तरह भारत-माता के मान-चित्र को सैकड़ों-हजारों वर्षों से सुशोभित करती आ रही हैं.भारतीय इतिहास  और संस्कृति की  पावन जल-धाराएं भी इन्हीं नदियों के पवित्र आँचल से निकल कर दूर-दूर तक फैलती चली गयी है. भारतीय राज्य छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की जीवन-रेखा है महानदी,जो छत्तीसगढ़ के सिहावा पर्वत से निकल कर उड़ीसा में कटक के नज़दीक  बंगाल की खाड़ी में अपनी  लगभग आठ सौ पच्यासी किलोमीटर  लंबी यात्रा को पूर्ण-विराम देती है. कई सहायक नदियाँ भी महानदी में समाहित होकर उसका हमसफ़र बन जाती हैं .महानदी का एक प्राचीन नाम चित्रोत्पला भी है .  नदियों के देश भारत में दूसरी नदियों की तरह महानदी के दोनों किनारों पर भी धार्मिक-आस्था और ऐतिहासिक-सांस्कृतिक महत्व के अनेक दर्शनीय स्थान हैं,जहाँ हमारे इतिहास और हमारी परम्पराओं का गौरव बढ़ाने वाले पूजा-अनुष्ठानों और मेले-ठेलों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही एक लंबी श्रृंखला है .
                                                 छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले के  सिहावा में इस नदी की उदगम भूमि रामायण-काल के महान तपस्वी श्रृंगी -ऋषि की तपो-भूमि के रूप में लाखों लोगों की आस्था का केन्द्र है .इसी जिले में इस नदी पर निर्मित विशाल गंगरेल बाँध राज्य के लाखों किसानों के खेतों की प्यास बुझाने का एक बहुत बड़ा संसाधन है. सिहावा से आगे चलें तो रायपुर जिले में धार्मिक-नगरी राजिम में महानदी अपनी दो सहायक नदियों-पैरी और सोंढूर के साथ त्रिवेणी संगम बनाती है , जहाँ आठवीं-नवमी शताब्दी में निर्मित भगवान श्री ,राजीवलोचन और कुलेश्वर महादेव के प्रसिद्ध मंदिर हैं . छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह की सरकार ने यहाँ माघ-पूर्णिमा के पन्द्रह-दिवसीय वार्षिक मेले को पिछले कुछ वर्षों में अपने बेहतर प्रबंधन के ज़रिए  'राजिम-कुम्भ ' के नाम से एक नयी पहचान दिलाई है , जिससे यह परम्परागत मेला अब देश भर के लाखों श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र बन गया है .अब तो इसे देश का पांचवां कुम्भ भी कहा जाने लगा है .राजिम से आगे निकलें तो करीब १५ किलोमीटर पर महाप्रभु वल्लभाचार्य के जन्म-स्थान के नाम से प्रसिद्ध चम्पारण्य है , जहाँ पंद्रहवीं सदी में जन्मे महाप्रभु ने वैष्णव सम्प्रदाय को जन-जन तक पहुंचाने का ऐतिहासिक कार्य किया. यहाँ उनके पवित्र मंदिर की अपनी महिमा है.  वहां से आगे जाएँ तो  पुराण-प्रसिद्ध  दानवीर  राजा मोरध्वज की नगरी के नाम से मशहूर आरंग मिलेगा , जहाँ ग्यारहवीं-बारहवीं सदी में निर्मित जैन सम्प्रदाय का मंदिर भांड-देवल  इतिहास और पुरातत्व के नज़रिए से भी काफी महत्व रखता है . आरंग से आगे महानदी  महासमुंद जिले में दाखिल होती है .इस जिले में  दक्षिण कोशल के नाम से प्रसिद्ध प्राचीन छत्तीसगढ़ की राजधानी सिरपुर है , जो अपने ऐतिहासिक स्मारकों की वजह से शैव, वैष्णव और बौद्ध संस्कृतियों का त्रिवेणी संगम माना जाता है और जहाँ पांचवीं से दसवीं सदी के बोलते इतिहास के रूप में खड़े लक्ष्मण मंदिर , गंधेश्वर मंदिर और  बौद्ध स्मारक लोगों के आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं . सिरपुर और आस-पास के कुछ किलोमीटर के दायरे में शैव, वैष्णव और बौद्ध प्रतिमाओं सहित जैन-प्रतिमाएं भी उत्खनन में मिली हैं . इसी महानदी के किनारे रायपुर जिले में  तुरतुरिया को 'रामायण' के महाकवि महर्षि वाल्मिकी की तपोभूमि और गिरौदपुरी को अठारहवीं सदी के महान  समाज सुधारक और सतनाम पंथ के प्रवर्तक संत गुरु घासीदास की जन्म स्थली और तपोभूमि होने का गौरव प्राप्त है . वहाँ से थोड़ा आगे चले जाएँ तो महानदी जांजगीर -चाम्पा जिले के प्रसिद्ध तीर्थ  शिवरीनारायण में शिवनाथ और जोंक नदियों के  पवित्र संगमसे जुडती है. माघ-पूर्णिमा पर शिवरीनारायण में लगने वाले वार्षिक मेले का भी छत्तीसगढ़ के जन-जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है .महानदी शिवरीनारायण से  चंद्रपुर आती है , जहाँ मांड नदी केसाथ इसके संगम तट पर  देवी चंद्रहासिनी और नाथल दाई के प्राचीन मंदिर हैं. चंद्रपुर से  होकर रायगढ़ जिले में प्रवाहित होते हुए महानदी उत्कल प्रदेश ( उड़ीसा) में प्रवेश करती है , जहाँ सम्बलपुर के पास इस पर १९५७ में निर्मित विश्व-विख्यात हीराकुद बाँध के चार हजार ८०० मीटर के दायरे में यह  अपनी अपार , अथाह और विशाल जल-राशि से किसी महासागर का नज़ारा पेश करती है.  . हीराकुद बाँध  भारतीय इजीनियरिंग की एक शानदार मिसाल है, जिसका शिलान्यास देश की आज़ादी के महज  आठ महीने बाद १२ अप्रेल १९४८ को  हमारे प्रथम प्रधान मंत्री  पंडित जवाहर लाल नेहरू ने किया था. लगभग नौ साल में निर्माण पूरा हुआ और नेहरूजी ने ही १३ जनवरी १९५७ को इसका लोकार्पण भी किया. करीब ७४३ वर्ग किलोमीटर के जल-विस्तार वाले इस बाँध से उड़ीसा में किसानों के तीन लाख ९० हजार एकड़ खेतों को पानी मिलता है और ३२७ मेगावाट बिजली पैदा होती है . हीराकुद से आगे देखें तो महानदी  का आँचल रेतीला नहीं बल्कि पथरीला हो जाता है .सम्बलपुर में इस नदी के किनारे माँ समलेश्वरी का प्राचीन मंदिर पश्चिम उड़ीसा के प्रमुख आस्था केन्द्रों में से एक है .  वहां से महानदी आगे सोनपुर की तरफ निकल पडती है . हीराकुद से करीब ४५ किलोमीटर और सम्बलपुर से २५ किलोमीटर पर हुमा-धुमा   के नाम से मशहूर ग्राम हुमा  में  इसके  तट पर बाबा विमलेश्वर महादेव का लगभग  नौ सौ साल पुराना मंदिर अपनी विशेष निर्माण शैली की के कारण वक्र-मंदिर के नाम से दूर-दूर तक प्रसिद्ध है. आम तौर पर सभी मंदिर और भवन सीधे तन कर खड़े होते हैं लेकिन वहां न  केवल बाबा विमलेश्वर का मुख्य मंदिर बल्कि उसी परिसर में स्थित दो छोटे शिव-मंदिर भी कुछ वक्राकार झुके हुए नज़र आते हैं . बाबा विमलेश्वर के मंदिर के गर्भ गृह के प्रवेश द्वार की चौखट भी कुछ तिरछापन लिए हुए है.पीसा की झुकती हुई नज़र आती मीनार तो मैंने नहीं देखी लेकिन अपनी महानदी के पावन तट पर  झुकी हुई संरचना वाले इस मंदिर को देख कर उसकी याद ज़रूर आ गयी.बाबा विमलेश्वर महादेव की महिमा तो अपरम्पार है ही , मंदिर के तिरछेपन या झुकी हुई मुद्रा के कारण ही उनके इस मंदिर को  'वक्र-मंदिर' के नाम से ख्याति मिली है .यह सचमुच आश्चर्य का विषय है कि नौ सौ  साल से यह मंदिर इसी तरह शान से खडा है और बड़ी शालीनता से जीवनदायिनी माँ महानदी के प्रति झुक कर अपना सम्मान प्रकट कर रहा है .
हुमा  के वक्र-मंदिर के पीछे महानदी
 पुजारी श्री भवानी सेनापति ने चर्चा के दौरान मुझे  बताया कि सन १११९ में जगन्नाथ पुरी के राजा अनंग भीम देव ने बाबा विमलेश्वर के मंदिर  का निर्माण करवाया था . अपने निर्माण काल से ही यह मंदिर इसी तरह झुका हुआ नज़र आता है . भारत सरकार ने ऐतिहासिक स्मारक संरक्षण अधिनियम १९५६ के तहत इसे संरक्षित स्मारक घोषित किया है .  मंदिर के पीछे कल-कल बहती महानदी का अपना एक अदभुत सौंदर्य और अनोखा आकर्षण है नदी के आँचल में कई बड़े शिलाखंड हैं , जिनके बीच से होकर पानी का प्रवाह लगातार जारी रहता है .  यहाँ का एक और अनोखा आकर्षण बन जाती हैं वे मछलियाँ जो तीर्थ-यात्रियों द्वारा घाट पर उन्हें चारा देने पर झुण्ड के झुण्ड झपटने का प्रयास करती नज़र आती है. उन्हें यहाँ पूर्ण संरक्षण प्राप्त है. कोई भी इन मछलियों को मारने की हिमाकत नहीं कर सकता . सैकड़ों साल पहले एक मछुआरे ने  ऐसा दुस्साहस किया और किसी मछली को काटने की कोशिश की तो वह पत्थर की मूर्ति में बदल गया . वह मूर्ति आज भी वहां मौजूद है . यह  भी बताया जाता है कि ज्यादा बारिश होने पर  महानदी जब उफान पर होती है ,तो मंदिर के गर्भ-गृह में बनी सुरंग के रास्ते  एक बड़ी मछली अक्सर गर्भ-गृह में पहुँच जाती है और स्थिति सामान्य होने पर उसी सुरंग के रास्ते लौट भी जाती है.    बहरहाल महानदी के शांत-शीतल तट पर नदी को प्रणाम करने की मुद्रा में झुके हुए इस मंदिर को देख कर मन में सहज ही यह सवाल  जाग उठता है कि  हम इंसान भी  नदियों का एहसान मान कर कुछ देर के लिए ही सही , क्या कभी उनके आगे नत-मस्तक होंगे ? जब एक मंदिर नौ सौ वर्षो से नदी के सम्मान में माथ नवाए खड़ा  है ,तो क्या हम इंसान अपने आस-पास की किसी नदी को महज नौ मिनट या नौ सेकेण्ड भी इतना आदर नहीं दे सकते ? लेकिन हम एहसान-फरामोशों को तो फिलहाल अपनी नदियों के अमृत जैसे पानी को  ज़हरीला  करने से फुरसत नहीं है ! फिर भी ग्राम हुमा  का यह नत-मस्तक  'वक्र  मंदिर' बारम्बार हमारे भीतर के सोए हुए इंसान को झकझोरने की कोशिश कर रहा है.  देखें ! कब जागती है हमारी इंसानियत !
                                                                                                     स्वराज्य करुण

4 comments:

  1. बड़ी सुन्दर प्रविष्टि है !

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  2. मंदिर के पीछे कल-कल बहती महानदी का अपना एक अदभुत सौंदर्य और अनोखा आकर्षण| छत्तीसगढ़ की सुदूर की सुन्दर और अनूठी जगहों को नेट पर ला कर दुनिया में प्रसारित प्रचारित करने का शुक्रिया| देखा नहीं है अभी तक अब मौक़ा लगा तो जरूर जाउंगा|

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  3. नदियों को हम माँ की तरह आदर देते हैं। गंगा माँ की नित्य आरती उतारते हैं। लेकिन अपना कर्तव्य भूल जाते हैं।
    ..उम्दा पोस्ट।

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