-- स्वराज करुण
बड़े -बड़े प्राइवेट सुपरस्पेशलिटी अस्पतालों के गहन चिकित्सा कक्ष यानी 'आईसीयू' में भर्ती गंभीर मरीजों के लिए उनके परिजनों को महँगी दवाओं की लिस्ट हर दिन कम से कम दो -तीन बार थमा दी जाती है । हजारों रुपयों की दवाइयां आने के बाद वह मरीजों को दी जाती है या नहीं , उनके परिवार वालों को कौन बताएगा ?
यह कैसे पता चलेगा कि मरीज़ को लिस्ट के अनुसार खरीदी गयी दवाइयां दी गयी हैं , क्योंकि आईसीयू के भीतर मरीजों से मिलने का एक निश्चित समय निर्धारित कर दिया जाता है । उस अवधि के बाद वहाँ किसी के भी जाने की मनाही रहती है। इसलिए परिजनों को पता ही नहीं चल पाता कि डॉक्टरों द्वारा उनसे ख़रीदवाई गयी मेडिसीन का उपयोग मरीज़ के लिए हो रहा है या नहीं ? इन परिस्थितियों में मेरा सुझाव है कि प्रत्येक अस्पताल के आईसीयू (गहन चिकित्सा कक्ष ) में सीसीटीवी और लगातार वीडियो रिकार्डिंग की व्यवस्था रखी जाए और मरीज़ के परिवार को वीडियो रिकार्डिंग पेन ड्राइव या डीवीडी में दी जाए । साथ ही आईसीयू के बाहर वेटिंग रूम में एलईडी स्क्रीन लगाकर आईसीयू की प्रत्येक गतिविधि का प्रसारण भी किया जाए ,ताकि मरीजों के परिजनों को उनके इलाज को लेकर तसल्ली हो सके । इससे अस्पतालों के प्रबंधन में भी पारदर्शिता आएगी ।
फिलहाल तो अस्पतालों में सब कुछ भरोसे पर ही निर्भर रहता है । मरीज़ के परिजन डॉक्टरों पर भरोसा करके अपने प्रियजन के स्वस्थ होने की प्रतीक्षा करते रहते हैं । लेकिन हाल ही में अक्षय कुमार अभिनीत एक फ़िल्म के एक दृश्य को देखकर हमारे जैसे साधारण लोगों का यह भरोसा टूट जाता है ।
फ़िल्म का नाम मुझे याद नहीं आ रहा ,जिसमें दिखाया गया है कि अक्षय कुमार एक मृत मरीज़ को किसी सुपरस्पेशलिटी अस्पताल में ले जाते हैं ,जहाँ पेशेंट को डॉक्टर आनन -फानन में आईसीयू में दाखिल कर देते हैं । डॉक्टरों को पता रहता है कि जिस पेशेंट को लाया गया है ,वह निष्प्राण है । इसके बावज़ूद इस मरे हुए मरीज़ के परिवार को चार लाख रुपए से ज्यादा के बिल थमा दिए जाते हैं । पैसों के प्रलोभन में जकड़े अस्पताल वाले निर्जीव शरीर को भी अपने कारोबार के लिए भर्ती कर लेते हैं । वो आईसीयू के भीतर आपसी बातचीत में इस मरे हुए मरीज़ को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी बताकर खुश होते रहते हैं । उसके परिजनों से ख़रीदवाई गयी दवाइयों को बड़े ही शातिराना तरीके से मेडिकल स्टोर में वापस भिजवा दिया जाता है ।
क्लाइमेक्स में अक्षय कुमार द्वारा मरीज़ का डेथ सर्टिफिकेट दिखाकर डॉक्टरों को असलियत बताई जाती है । इस पर डॉक्टरों के होश उड़ जाते हैं । फ़िल्म का हीरो यानी अक्षय कुमार इस पर अस्पताल प्रबंधन से मरीज़ की पत्नी को 50 लाख रुपए का मुआवजा दिलवाता है ।
यह फ़िल्म आज की चिकित्सा व्यवस्था की गोपनीयता आधारित व्यवसाय पर कड़ा प्रहार करती है ।
हालांकि सभी डॉक्टर और सभी प्राइवेट अस्पताल ऐसे नहीं होते । समाज में कई अच्छे सेवाभावी चिकित्सक और मानवता के कल्याण के लिए समर्पित अस्पताल भी हैं , लेकिन अधिकांश डॉक्टर और अस्पताल चिकित्सा व्यवसाय को अधिक से अधिक मुनाफा देने वाली मशीन मानकर चल रहे हैं । ऐसे लोगों ने इस पवित्र व्यवसाय को बदनाम कर दिया है ।
आलेख : स्वराज करुण
(फोटो : Google से साभार )
बड़े -बड़े प्राइवेट सुपरस्पेशलिटी अस्पतालों के गहन चिकित्सा कक्ष यानी 'आईसीयू' में भर्ती गंभीर मरीजों के लिए उनके परिजनों को महँगी दवाओं की लिस्ट हर दिन कम से कम दो -तीन बार थमा दी जाती है । हजारों रुपयों की दवाइयां आने के बाद वह मरीजों को दी जाती है या नहीं , उनके परिवार वालों को कौन बताएगा ?
यह कैसे पता चलेगा कि मरीज़ को लिस्ट के अनुसार खरीदी गयी दवाइयां दी गयी हैं , क्योंकि आईसीयू के भीतर मरीजों से मिलने का एक निश्चित समय निर्धारित कर दिया जाता है । उस अवधि के बाद वहाँ किसी के भी जाने की मनाही रहती है। इसलिए परिजनों को पता ही नहीं चल पाता कि डॉक्टरों द्वारा उनसे ख़रीदवाई गयी मेडिसीन का उपयोग मरीज़ के लिए हो रहा है या नहीं ? इन परिस्थितियों में मेरा सुझाव है कि प्रत्येक अस्पताल के आईसीयू (गहन चिकित्सा कक्ष ) में सीसीटीवी और लगातार वीडियो रिकार्डिंग की व्यवस्था रखी जाए और मरीज़ के परिवार को वीडियो रिकार्डिंग पेन ड्राइव या डीवीडी में दी जाए । साथ ही आईसीयू के बाहर वेटिंग रूम में एलईडी स्क्रीन लगाकर आईसीयू की प्रत्येक गतिविधि का प्रसारण भी किया जाए ,ताकि मरीजों के परिजनों को उनके इलाज को लेकर तसल्ली हो सके । इससे अस्पतालों के प्रबंधन में भी पारदर्शिता आएगी ।
फिलहाल तो अस्पतालों में सब कुछ भरोसे पर ही निर्भर रहता है । मरीज़ के परिजन डॉक्टरों पर भरोसा करके अपने प्रियजन के स्वस्थ होने की प्रतीक्षा करते रहते हैं । लेकिन हाल ही में अक्षय कुमार अभिनीत एक फ़िल्म के एक दृश्य को देखकर हमारे जैसे साधारण लोगों का यह भरोसा टूट जाता है ।
फ़िल्म का नाम मुझे याद नहीं आ रहा ,जिसमें दिखाया गया है कि अक्षय कुमार एक मृत मरीज़ को किसी सुपरस्पेशलिटी अस्पताल में ले जाते हैं ,जहाँ पेशेंट को डॉक्टर आनन -फानन में आईसीयू में दाखिल कर देते हैं । डॉक्टरों को पता रहता है कि जिस पेशेंट को लाया गया है ,वह निष्प्राण है । इसके बावज़ूद इस मरे हुए मरीज़ के परिवार को चार लाख रुपए से ज्यादा के बिल थमा दिए जाते हैं । पैसों के प्रलोभन में जकड़े अस्पताल वाले निर्जीव शरीर को भी अपने कारोबार के लिए भर्ती कर लेते हैं । वो आईसीयू के भीतर आपसी बातचीत में इस मरे हुए मरीज़ को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी बताकर खुश होते रहते हैं । उसके परिजनों से ख़रीदवाई गयी दवाइयों को बड़े ही शातिराना तरीके से मेडिकल स्टोर में वापस भिजवा दिया जाता है ।
क्लाइमेक्स में अक्षय कुमार द्वारा मरीज़ का डेथ सर्टिफिकेट दिखाकर डॉक्टरों को असलियत बताई जाती है । इस पर डॉक्टरों के होश उड़ जाते हैं । फ़िल्म का हीरो यानी अक्षय कुमार इस पर अस्पताल प्रबंधन से मरीज़ की पत्नी को 50 लाख रुपए का मुआवजा दिलवाता है ।
यह फ़िल्म आज की चिकित्सा व्यवस्था की गोपनीयता आधारित व्यवसाय पर कड़ा प्रहार करती है ।
हालांकि सभी डॉक्टर और सभी प्राइवेट अस्पताल ऐसे नहीं होते । समाज में कई अच्छे सेवाभावी चिकित्सक और मानवता के कल्याण के लिए समर्पित अस्पताल भी हैं , लेकिन अधिकांश डॉक्टर और अस्पताल चिकित्सा व्यवसाय को अधिक से अधिक मुनाफा देने वाली मशीन मानकर चल रहे हैं । ऐसे लोगों ने इस पवित्र व्यवसाय को बदनाम कर दिया है ।
आलेख : स्वराज करुण
(फोटो : Google से साभार )
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (08-05-2019) को "मेधावी कितने विशिष्ट हैं" (चर्चा अंक-3329) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हार्दिक आभार आदरणीय शास्त्रीजी ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय शास्त्रीजी ।
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