-स्वराज करुण
छत्तीसगढ़ की तरह उसके नज़दीकी पड़ोसी ओड़िशा राज्य में भी कई प्राचीन मन्दिर और ऐतिहासिक स्थल हैं । पश्चिम ओड़िशा के बरगढ़ जिले का केदारनाथ मन्दिर भी उनमें से एक है ,जिस पर इतिहास और पुरातत्व की दृष्टि से अध्ययन और अनुसंधान की काफी गुंजाइश है । घूमते -फिरते उस दिन मुझे भी इस मन्दिर के परिदर्शन का सौभाग्य मिला ।
केदारनाथ के नाम से ही स्पष्ट है कि यह एक शिव मन्दिर है ,जो छत्तीसगढ़ के जिला मुख्यालय रायगढ़ से ओड़िशा के जिला मुख्यालय बरगढ़ जाने वाले रास्ते में तहसील मुख्यालय अम्बाभोना में मुख्य सड़क के किनारे स्थित है । बरगढ़ की तरफ से आएं तो बारा पहाड़ के प्राकृतिक परिवेश में अम्बाभोना घाटी की हरी -भरी पहाड़ी वादियां आपका मन मोह लेंगी छत्तीसगढ़ का नज़दीकी तहसील मुख्यालय बरमकेला अम्बाभोना से लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर है । मन्दिर ट्रस्ट ने इसके परिसर को बहुत ही अच्छे ढंग से विकसित किया है । काफ़ी साफ़ -सुथरे इस परिसर में बरगद और पीपल के प्राचीन वृक्षों की शीतल छाया श्रद्धालुओं को काफी सुकून देती है । केदार नाथ यानी भगवान शिव के इस मन्दिर के पुजारी हैं श्री ध्रुव गिरि । पुजारीजी की अनुपस्थिति में उनकी धर्मपत्नी श्रीमती शारदा गिरि पूजा -अर्चना में श्रद्धालुओं का सहयोग करती हैं ।
श्री ध्रुव गिरि ने स्मृतियों को टटोलते हुए बताया कि उनकी यह पाँचवी पीढ़ी है ,जो मन्दिर की देखभाल के साथ पूजा -अर्चना की भी जिम्मेदारी निभा रही है । इतिहास की सटीक जानकारी तो उन्हें नहीं है ,लेकिन जितना उनको मालूम है ,उस आधार पर वो यह जरूर बताते हैं कि लगभग 400 से 500 वर्ष पहले सम्बलपुर के राजा बलियारसिंह ने इसका निर्माण करवाया था । उस ज़माने में यहाँ घनघोर जंगल था । शिवलिंग यहाँ प्राकृतिक रूप से प्रकट हुआ था । मन्दिर के गर्भगृह में इसे देखा जा सकता है ,जहाँ एक नैसर्गिक जल कुण्ड में यह स्थित है ।
प्राचीन काल में इस मन्दिर के बाजू में एक प्राकृतिक जल स्रोत प्रस्फुटित हुआ था ,जिससे एक छोटा -सा सरोवर वहाँ बन गया । कुछ श्रद्धालुओं ने मुझे बताया कि इस सरोवर का पानी बहुत स्वच्छ और इतना पारदर्शी रहता था कि उसमें तैरती हुई मछलियों और पानी वाले साँपों को भी साफ़ देखा जा सकता था । लेकिन जब से लोग इसमें नहाने लगे , सरोवर के पानी की यह पारदर्शिता ख़त्म हो गयी । प्राकृतिक जल स्रोत विलुप्त हो गया ।
मैंने भी देखा कि सरोवर में पॉलिथीन की खाली थैलियों के साथ -साथ मिनरल वाटर के खाली बोतल और साबुन के खाली पैकेट भी तैर रहे हैं । केदारनाथ मन्दिर ट्रस्ट बोर्ड को इस पर ध्यान देना चाहिए । प्राचीन भारतीय इतिहास और पुरातत्व में दिलचस्पी लेने वाले अध्येताओं को यहाँ जरूर आना चाहिए । वैसे ओड़िशा के इतिहासकारों और पुरातत्वविदों ने इस दिशा में कुछ कार्य किया भी होगा तो उसकी जानकारी न तो पुजारीजी को है और न ही मुझे । हाँ ,यह जरूर उल्लेख करना चाहूँगा कि इस तीर्थ स्थान के बारे में बरगढ़ जिले के ग्राम उत्तम निवासी अध्यापक श्री अलेख प्रधान द्वारा रचित ओड़िया काव्य कृति 'केदारनाथ ' शीर्षक से छपी है ,जो मन्दिर के सामने पूजा सामग्री की एक दुकान में मुझे दस रुपए में मिल गयी । इसका प्रकाशन 'केदारनाथ साहित्य संसद ' अम्बाभोना द्वारा वर्ष 1997 में किया गया था । कवि अलेख प्रधान ने पाँच सर्गों की अपनी इस काव्य कृति के प्रथम सर्ग की प्रारंभिक पंक्तियों में केदारनाथ को आम्रवन और बांस वन से घिरे परिवेश में 'गुप्त गंगा ' के तट पर और 'ज्ञान वट ' के मूल में स्थित तीर्थ बताया है और उनकी अभ्यर्थना की है ---
"गुप्त गंगा कूले ,
ज्ञान-वट मूले
सेवित जे पँचमाथ
आम्र- वन, बांश -वन समादृत
जय हे केदारनाथ ।।
आम्र ;वन रु वट - दुर्ग
दुर्गतम पथ रे
पथ र नाथ ।
चित्रोत्पला तीर्थ सलिले सेवित
द्वादश कानन कुसुमे शोभित
जय हे केदारनाथ ।। "
कवि ने प्रथम सर्ग के फुटनोट में यह भी स्पष्ट किया है कि आम्रवन से उनका आशय अम्बाभोना से है । इन्हीं प्रारंभिक पंक्तियों में 'केदारनाथ' को ' आम्र- वन ' से 'वट-दुर्ग के दुर्गम और पथरीले पथ का नाथ भी बताया है ,जो स्वच्छ परिवेश में स्थित हैं ।। कवि ने फुटनोट में सूचित किया है की 'वट -दुर्ग ' से उनका आशय बरगढ़ से है । चित्रोत्पला यानी महानदी और द्वादश कानन मतलब इस क्षेत्र में स्थित 'बारा पहाड़ " है ।
वैसे भी देखा जाए तो छत्तीसगढ़ के सिहावा पर्वत से निकली चित्रोत्पला गंगा (महानदी ) अम्बाभोना से लगभग 45 से 50 किलोमीटर पर जांजगीर और रायगढ़ जिले में भी प्रवाहित हो रही है । दोनों जिले छत्तीसगढ़ में हैं । महानदी और माण्ड नदियों के पवित्र संगम पर चन्द्रपुर (जिला -जांजगीर चाम्पा ) स्थित चंद्रहासिनी और नाथलदाई के प्राचीन मन्दिर भी अम्बाभोना से करीब 50 किलोमीटर पर हैं ।
संभवतः कवि अलेख प्रधान ने अपनी काव्य कृति 'केदारनाथ 'में जिस ' गुप्त गंगा ' का जिक्र किया है ,वह अम्बाभोना मन्दिर परिसर में बने सरोवर का प्राकृतिक जल स्रोत ही है ,जो अब प्रदूषण के कारण विलुप्तप्राय है । मैंने देखा कि सरोवर में पॉलिथीन की खाली थैलियों के साथ -साथ मिनरल वाटर के खाली बोतल और साबुन के खाली पैकेट भी तैर रहे हैं । केदारनाथ मन्दिर ट्रस्ट बोर्ड को इस पर ध्यान देना चाहिए । प्राचीन भारतीय इतिहास और पुरातत्व में दिलचस्पी लेने वाले अध्येताओं को यहाँ जरूर आना चाहिए । वैसे ओड़िशा के इतिहासकारों और पुरातत्वविदों ने इस दिशा में कुछ कार्य किया भी होगा तो उसकी जानकारी न तो पुजारीजी को है और न ही मुझे ।
बहरहाल ,पुजारीजी ने मुझे मन्दिर का अवलोकन करवाया । मन्दिर की दक्षिणी दीवार पर दक्षिणमुखी गणेश , पश्चिमी दीवार पर कार्तिक और उत्तरी दीवार पर देवी दुर्गा की अत्यंत प्राचीन प्रतिमाएं लगी हुई हैं । गर्भगृह में भगवान शिव पूर्वाभिमुख विराजमान हैं । मन्दिर में ऊपर देखने पर एक कलात्मक गोल घेरे में भगवान चंद्रशेखर की मूर्ति के दर्शन होते हैं । मन्दिर और परिसर में रखी अधिकांश मूर्तियाँ पुरातत्व की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण हैं । उनके समुचित संरक्षण की जरूरत है ।
परिसर में पीपल के विशाल वृक्ष के नीचे निर्मित गोलाकार चबूतरे पर भगवान शंकर सहित शेषनाग और धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण विभिन्न वस्तुओं को सुव्यवस्थित रूप से रखा गया है । एक कमरे में भैरव बाबा की भी पूजा होती है,जो वास्तव में भगवान शिव का ही एक पौराणिक नाम है । अम्बाभोना के इस प्राचीन मन्दिर में हर साल महाशिवरात्रि पर विशाल मेले का भी आयोजन किया जाता है
-स्वराज करुण
(सभी तस्वीरें : मेरे मोबाइल की आँखों से )
बहुत -बहुत धन्यवाद आदरणीय शास्त्रीजी !
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