शहरों की भीड़ में कई गाँव खो गए ,
डामर की सड़क पर जैसे पाँव खो गए !
झील ,नदी और कई तालाब खो गए ,
कुछ उम्मीद खो गयी ,कुछ ख़्वाब खो गए !
कांक्रीट के जंगल में पहाड़ खो गए ,
सवाल बेहिसाब और जवाब खो गए !
आग लगी चमन में उठता नहीं धुंआ ,
जाड़ों में वो प्यार के अलाव खो गए !
संगीत खो गया , कई गीत खो गए ,
लफ़्ज थे लबों पे जिनके भाव खो गए !
नोटों की थप्पियों पे थिरके है सियासत
उसूल आज उनके बेहिसाब खो गए !
-- स्वराज करुण
डामर की सड़क पर जैसे पाँव खो गए !
झील ,नदी और कई तालाब खो गए ,
कुछ उम्मीद खो गयी ,कुछ ख़्वाब खो गए !
कांक्रीट के जंगल में पहाड़ खो गए ,
सवाल बेहिसाब और जवाब खो गए !
आग लगी चमन में उठता नहीं धुंआ ,
जाड़ों में वो प्यार के अलाव खो गए !
संगीत खो गया , कई गीत खो गए ,
लफ़्ज थे लबों पे जिनके भाव खो गए !
नोटों की थप्पियों पे थिरके है सियासत
उसूल आज उनके बेहिसाब खो गए !
-- स्वराज करुण
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल गुरुवार (16-05-2019) को "डूब रही है नाव" (चर्चा अंक- 3337) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत खूब...... ,सादर नमस्कार
ReplyDelete