- स्वराज करुण
अक्सर कई प्रबुद्ध जन यह सवाल उठाते हैं कि इस आधुनिक युग में हमारे देश में बनने वाली फिल्में ज्यादा दिनों तक क्यों नहीं चलतीं ? विशेष रूप से आंचलिक भाषाओं के फिल्मकार इसे लेकर काफी चिन्तित नज़र आते हैं । सिनेमाघरों की कम होती संख्या भी इसका एक कारण हो सकता है ,लेकिन एक सामान्य दर्शक के नाते मेरा यह मानना है कि फिल्मों के कन्टेन्ट पर भी यह निर्भर करता है कि वो कितने दिनों तक चलेगी ।
आज के दौर की अधिकांश फिल्मों में वो बात नज़र नहीं आती ,जो कुछ दशक पहले की कालजयी फिल्मों में हुआ करती थी , जबकि उस दौर के मुकाबले देखा जाए तो फ़िल्म निर्माण की तकनीक आज कई गुना ज्यादा उन्नत है ।
छत्तीसगढ़ी भाषा में ' कहि देबे सन्देस ' ,' घर द्वार ', और ' मोर छइहाँ भुइयाँ ' हिन्दी में ' मदर इंडिया ' 'नील कमल ' 'उपकार ', 'गीत गाता चल ' मुगलेआजम 'और मेरा नाम जोकर ' ' जैसी कई कालजयी फिल्में आज भी लोगों को याद हैं । उनके गाने आज भी लोगों की जुबान पर हैं ।भारतीय फिल्मों के इतिहास में भी कमोबेश इनकी चर्चा होती है ,क्योंकि इस प्रकार की फिल्मों की कहानियों में समाज के ज्वलन्त मुद्दे भी उठाए जाते थे । मुझे भोजपुरी भाषा में बनी फिल्म 'नदिया के पार ' और उसके गानों की भी याद आती है । मुझे लगता है कि पहले के फिल्म निर्माताओं में ,उन फिल्मों के कहानीकारों , कलाकारों ,गीतकारों और संगीतकारों में सामाजिक प्रतिबध्दता होती थी । व्यावसायिकता और मनोरंजन का उद्देश्य भी होता था ,लेकिन उनके निर्माताओं में समाज और देश के प्रति जिम्मेदारी की भावना भी होती थी ।
सामान्य दर्शक होने की वज़ह से मुझे फ़िल्म निर्माण के तकनीकी पहलुओं की और बारीकियों की जानकारी लगभग नहीं के बराबर है । इसके बावज़ूद मैं यह महसूस कर रहा हूँ कि हमारे देश में फ़िल्म बनाने की तकनीक जितनी ज्यादा उच्च से उच्चतर और उच्चतम स्तर तक जा पहुँची है ,कुछ एक अपवादों को छोड़कर देखा जाए तो इस दौर की फिल्मों के कंसेप्ट और कन्टेन्ट का स्तर उतना ही निम्न से निम्नतर और निम्नतम होता गया है ।
हम जैसे साधारण लोग सिर्फ़ दुःख व्यक्त कर सकते हैं कि कालजयी और यादगार फिल्मों का जमाना चला गया । अब तो किसी भी भाषा में कितनी ही फिल्में बनती हैं और हफ्ते - दो हफ्ते बाद लोगों के स्मृति पटल से गायब हो जाती हैं ,क्योंकि उनकी कहानियाँ सिर्फ़ मनोरंजन के लिए होती हैं । फास्टफूड की तरह एकदम तात्कालिक । उनमें देश और समाज के लिए कोई सन्देश नहीं होता । एक जैसी पटकथाओं से भी दर्शक बोर हो जाते हैं । गाने भी ऊलजलूल ! अब दर्शक झेले भी तो कितना ?
यह स्थिति कमोबेश हमारे देश के सभी राज्यों में है । फ़िल्म चाहे वो किसी भी भारतीय भाषा की क्यों न हो ,अगर उसकी कहानी में दम होगा ,वह जनता के दुःख-दर्द के करीब होगी , उसमें जन भावनाओं की सुरुचिपूर्ण अभिव्यक्ति होगी तो वह जरूर चलेगी ।
-स्वराज करुण
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