तूफानों से तहस-नहस
गाँवों के देश में ,
रोटी के लिए दौड़ते
पांवों के देश में !
मदमस्त मचलती विष-कन्याओं का जमघट , ये देख के घबराया मेरे गाँव का पनघट !
बाढ़ से बेघर , बेहाल
किसानों के देश में ,
चिथड़ों को तरसते
इंसानों के देश में !
शौक से निर्वसन औरतों की खिलखिलाहट ,
ये देख के घबराया मेरे गाँव का पनघट !
रुपयों के खुले खेल में
मांसल मुस्कान लिए
उतरी हैं आसमान से
देह की दुकान लिए !
दूर कहीं फेंक आयीं रिश्तों का घूंघट ,
ये देख के घबराया मेरे गाँव का पनघट !
इन्हें नहीं कुछ लेना-देना
चट्टान तोड़ती राधा से ,
दुधमुँहे के दूध के लिए
हाथ जोड़ती राधा से !
इन आँखों से कहाँ दिखेगी उसकी घबराहट ,
ये देख के घबराया मेरे गाँव का पनघट !
--- स्वराज्य करुण
( सन्दर्भ - बेंगलुरु में सन 1996 में आयोजित विश्व सुन्दरी प्रतियोगिता )
प्रतीक फोटो google से साभार
विष-कन्याओं का जमघट , देख के घबराया गाँव का पनघट ..
ReplyDeleteसही है . इन्हें नहीं कुछ लेना-देना
चट्टान तोड़ती राधा से यह तो और भी सही है..
ये देख के घबराया मेरे गाँव का पनघट ....सच ही है. अब तो पनघट ही नहीं जाने क्या क्या घबराता होगा
ReplyDeleteअब तो मन वाकई घबरा जाता है कभी -कभी ..
ReplyDeleteबडा सटीक चित्रण किया है…………शानदार्।
ReplyDeleteअच्छी रचना .बधाई !
ReplyDeleteअच्छी कविता बहुत बहुत बधाई
ReplyDeleteTaje halaat pr bilkul sahi bat
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