Monday, September 19, 2011

बिन भूकम्प यहाँ डोले धरती !

             फैक्ट्री की सुबह  की पाली शुरू  होने से पहले  सुखीराम   के टपरे में  कुछ मजदूर चाय-भजिये  के साथ आज का  अखबार देख रहे थे. सुर्ख़ियों में देश के कुछ राज्यों में आए भूकम्प की खबरों के साथ वहाँ जान-माल को हुए नुकसान की तस्वीरें भी छपी थीं. बड़े-बड़े गड्ढों और दरारों वाली एक क्षतिग्रस्त सड़क की तस्वीर देख कर बनमाली कहने लगा- अरे ! ये तो अपने शहर की सड़क लग रही है .हमारे यहाँ तो भूकम्प आया नहीं था ! फिर ये इस सड़क की फोटो उधर की  भूकम्प पीड़ित सड़क के नाम पर तो नहीं छप गयी ?  इस गंभीर सवाल पर सुखीराम के इस  टपरेनुमा रेस्टोरेंट में एक छोटा लेकिन महत्वपूर्ण 'गोल-मेज सम्मेलन ' बिना किसी ताम-झाम के शुरू  हो गया .
               दयालू   ने बनमाली की शंका का समाधान किया-भाई ! फोटो  असली है और कुदरती भूकम्प से नष्ट हो चुकी सड़क की ही है .बनमाली को समझाने के बाद वह  कहने  लगा -वाकई  असली भूकम्प से टूटी- फूटी सड़क और बगैर भूकम्प के उखड़ी सड़क में आज कोई फर्क नज़र नहीं आता . इसलिए तुम्हारा चकित होना स्वाभाविक ही था .अब तो भारत  में ऐसे कई शहर हैं ,जहां बिना भूकम्प के भी सडकें भूकम्पग्रस्त  लगने लगी हैं .धरती के डोले बिना ही  उनमें  गड्ढे बन जाते हैं ,जिनमें बारिश के मौसम में लोग  बड़े आराम से मछली पालन भी कर सकते हैं ,   हम-तुम  ऐसी खंडहरनुमा  सडकें तो हमारे शहर में चारों तरफ  रोज देखते हैं, उन पर मजबूरी में चलते भी हैं. दुपहिया , तिपहिया और  चौपहिया गाड़ियों में हिचकोले खाते हुए हम लोग तो इन सड़कों पर रोज आते-जाते हैं.गनीमत है कि इन हिचकोलों से अब तक किसी ह्रदय-रोगी का ह्रदय नहीं हिला  और   न ही किसी गर्भवती माता का प्रसव सड़क पर हुआ .लेकिन  रिक्टर पैमाने पर आशंकाओं की तीव्रता तो महसूस की ही जा सकती है .कुछ सड़कों पर कल बिछाई गयी डामर की परतें आज  उखड़ जाती हैं .पता नहीं , कौन कब उनमें बिछी हुई बजरी और गिट्टियों को  बाहर निकाल देता है और वह बिखर कर भूकम्प का नजारा पेश करने लगती है.
            आधी कप चाय की बची हुई बूंदों को सुड़कने के बाद रामगोपाल ने कहा -- हाँ यार !   किसी भी निर्माण कार्य को देखो, इंजीनियरों का तो कहीं दूर-दूर तक पता ही नहीं चलता . सारा जिम्मा मजदूरों के भरोसे छोड़ पता नहीं, कहाँ घूमते  रहते हैं ? कहीं टेलीफोन कम्पनियों के मजदूर केबल बिछाने के नाम पर गड्ढे खोद जाते हैं , तो कहीं जल-आपूर्ति की पाइप  -लाइन  मरम्मत के नाम पर सड़क की खोदाई हो जाती है ,खोदने वाले खोद कर चले जाते हैं और उन्हें खोजने वाले खोजते रहते हैं . कहीं चौड़ीकरण के नाम पर तोड़-फोड़ दस्ते  सड़कों से लगी निजी और सरकारी दोनों तरह की दीवारें ढहा कर चले जाते हैं और मलबा सफाई के लिए मुड़कर भी नहीं देखते ! मलबे का ढेर वहाँ कई-कई दिनों तक लगा रहता है  बिना सोचे-समझे वर्षों पुराने हरे-भरे पेड़  बेरहमी से काट दिए जाते हैं  .गर्मियों में राहगीर छाया के लिए तरसते रहते हैं . कई शहरों में ओवर -ब्रिजों का निर्माण अधूरा पड़ा है , उन पर हम जैसे राहगीर हर दिन बेतरतीब यातायात की यातना झेलते रहते हैं .उधर भूकम्प की वजह से  भवनों में  दरारें  पड़ जाती हैं, जबकि इधर भूकम्प आए बिना ही कल की  बनी  इमारतों  में  भी आज   क्रेक  आ जाती हैं . फिर भी हम लोग आराम से जी रहे हैं .धरमू ने टोका - आराम से जी नहीं ,बल्कि लाचारी में जी रहे हैं . करें भी तो क्या करें ? कौन सुनने वाला है ?
       बनमाली ने कहा -  हाँ भाई ! हम हर तरह का भूकम्प आराम से झेल लेते हैं  .हमारी झेलन-शक्ति गज़ब की है .लेकिन अपनी  उन सड़कों और इमारतों का क्या कहें ,जो  भ्रष्टाचार के भयानक भूकम्प से भयभीत होकर भसकने की हालत में आ चुकी हैं. ? लगता है ,यहाँ धरती बिना किसी भूकम्प के डोल  रही है . क्या कोई बता सकता है -  रिक्टर स्केल पर इस गैर कुदरती भूकम्प की तीव्रता कितनी होगी ? उसके  इस सवाल का किसी के पास कोई ज़वाब नहीं था !  तभी उधर पाली शुरू होने का सायरन बजा और इधर सुखीराम के टपरे में मजदूरों का 'गोल मेज सम्मेलन ' खत्म हुआ और  वे चल पड़े फैक्ट्री के भीतर . 
                                                                                                      -  स्वराज्य करुण 

  ( फोटो : google  से साभार )

9 comments:

  1. सोचने को विवश करता आलेख्।

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  2. काफी गंभीर चिंतन ......सार्थक आलेख

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  3. विचारणीय पोस्ट|

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  4. सोचने पर विवश करती सार्थक पोस्ट.

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  5. लगता है ,यहाँ धरती बिना किसी भूकम्प के डोल रही है . क्या कोई बता सकता है - रिक्टर स्केल पर इस गैर कुदरती भूकम्प की तीव्रता कितनी होगी ..

    सत्य को कहती अच्छी पोस्ट ..बिना भूकंप के ही सड़कों का ऐसा हाल है ..

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  6. विचारणीय पोस्ट|

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  7. भगवान ही मालिक है....
    विचारणीय आलेख...
    सादर...

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