-- स्वराज्य करुण
दफ्तर की ऊंची कुर्सी पर बस बैठे-बैठे इतराए
उनकी खूब चलती है जो तोड़-जोड़ में माहिर हैं,
कुछ लोगों के लिए सब कुछ हथियाने का मौसम है ,
अपने रोने का मौसम है , उनके गाने का मौसम है,
यारों अब तो गदहों के भी खीर खाने का मौसम है !
होशियारों का है जाने यह किस जनम का पाप ,
सारे मूरख आज बन गए बुद्धिमान के बाप !
उनके लिए फ़ोकट में सब कुछ पाने का मौसम है,
यारों अब तो गदहों के भी खीर खाने का मौसम है !
दफ्तर की ऊंची कुर्सी पर बस बैठे-बैठे इतराए
बिना भेंट-पूजा के काम करने से जो कतराए !
मन ही मन ऐसे लोगों के बौरा जाने का मौसम है ,
यारों अब तो गदहों के भी खीर खाने का मौसम है !
उनकी खूब चलती है जो तोड़-जोड़ में माहिर हैं,
जिनके दिल में है कपट , वही सफल हैं ज़ाहिर है !
इस कलि-युग में हर सच को झुठलाने का मौसम है
यारों अब तो गदहों के भी खीर खाने का मौसम है !
उलटा-पुल्टा चित्र बनाकर चित्रकार कहलाए ,
चार लाईन जो लिख न पाए पत्रकार कहलाए !
उनके हाथों छल-प्रपंच का जाल बिछाने का मौसम है ,
यारों अब तो गदहों के भी खीर खाने का मौसम है. !
छोटे परदे पर देखो रंग-बिरंगी फ़िल्मी दुनिया ,
परदे के बाहर फ़ैली यह बदरंग जुल्मी दुनिया !
परदे के बाहर फ़ैली यह बदरंग जुल्मी दुनिया !
कुछ लोगों के लिए सब कुछ हथियाने का मौसम है ,
यारों अब तो गदहों के भी खीर खाने का मौसम है
स्वराज्य करुण
कुछ गदहे तो 12 महीनों खीर खा रहे हैं।
ReplyDeleteइसीलिए मौसम को भी ठेंगा दिखा रहे है।।
सुंदर रचना
आभार
अज कल गदहे ही तो खीर खा रहे हैं जनता को तो सूखी रोटी भी नही मिल रही। अच्छी लगी रचना। बधाई।
ReplyDeleteवाह ..वाह..वाह..
ReplyDelete'यारों अब तो गदहों के भी खीर खाने का मौसम है '
बहुत करार व्यंग !
सिर्फ गदहे खीर खाएं, तब गड़बड़ है, लेकिन गदहे 'भी' खाएं तो क्या बुरा.
ReplyDeleteएक नई कहावत सूझी है जमे तो बताइएगा :)
ReplyDeleteसुअरों के पनीर खाने का मौसम