-- स्वराज्य करुण
अब कहाँ मिलेगी हरी घास की नर्म चादर
बिछ रही हर तरफ डामर की गर्म चादर !
अंगार के मौसम में कहो श्रृंगार कहाँ पाओगे ,
न जाने कहाँ जा बैठी छोड़ कर शर्म चादर !
देवों के नाम ओढ़ लो , या चढाओ मज़ार पर
रखती है ढांपकर सबके कर्म और कुकर्म चादर !
धर्मों के बिछौने की बनती है शान जो हरदम ,
छुपा लेती है आगोश में सबका अधर्म चादर !
माथे की सलवटें हों , या बिस्तर की सलवटें ,
बेफिक्र हर हाल में यहाँ हर पल बेशर्म चादर !
अमीरों को दिलाती है जो हर वक्त रेशमी छुअन
काँटों से लहुलुहान है वो गरीबों का मर्म चादर !
कट रही रोज हरियाली पहाड़ों के जिस्म से ,
कुदरत के बदन जख्मों से लिपटी है चर्म चादर !
- स्वराज्य करुण
अब कहाँ मिलेगी हरी घास की नर्म चादर
बिछ रही हर तरफ डामर की गर्म चादर !
अंगार के मौसम में कहो श्रृंगार कहाँ पाओगे ,
न जाने कहाँ जा बैठी छोड़ कर शर्म चादर !
देवों के नाम ओढ़ लो , या चढाओ मज़ार पर
रखती है ढांपकर सबके कर्म और कुकर्म चादर !
धर्मों के बिछौने की बनती है शान जो हरदम ,
छुपा लेती है आगोश में सबका अधर्म चादर !
माथे की सलवटें हों , या बिस्तर की सलवटें ,
बेफिक्र हर हाल में यहाँ हर पल बेशर्म चादर !
अमीरों को दिलाती है जो हर वक्त रेशमी छुअन
काँटों से लहुलुहान है वो गरीबों का मर्म चादर !
कट रही रोज हरियाली पहाड़ों के जिस्म से ,
कुदरत के बदन जख्मों से लिपटी है चर्म चादर !
- स्वराज्य करुण
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteबेशर्मी की चादर ओढ़े देखो इंसान दौलत को दौड़े
ReplyDeleteबहुत खूब ... गज़ल में बहुत कुछ कह दिया
ReplyDeleteदेवों के नाम ओढ़ लो , या चढाओ मज़ार पर रखती है ढांपकर सबके कर्म और कुकर्म चादर !
ReplyDeleteसच्चाई वयां करती हुई रचना , बधाई
अमीरों को दिलाती है जो हर वक्त रेशमी छुअन
ReplyDeleteकाँटों से लहुलुहान है वो गरीबों का मर्म चादर !
जो कहा वो बिल्कुल सच है...खूबसूरत ग़ज़ल...
काफी हौलनाक मंजर है,सुनामी से है घायल समन्दर
ReplyDeleteक्या हुआ है लोगों को, उनके हाथ में है क्यों खंजर.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआप ग़ज़ल बहुत अच्छी लिखते हैं!