Saturday, May 7, 2011

प्रेमचंद : कर्म-भूमि के पन्नों में

                                               
             हिन्दी के महान कथा -शिल्पी , उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद  वास्तव में साहित्य के माध्यम से समाज में वैचारिक बदलाव लाने के पक्षधर थे. गोदान ,रंगभूमि और कर्म भूमि जैसे उनके कालजयी महान उपन्यासों में समाज के दबे-कुचले लोगों का दर्द अपने ही अंदाज़  में उभरता और बहता हुआ लगता है . उन्होंने तत्कालीन समय के  सामाजिक-आर्थिक माहौल का बहुत बारीकी से अध्ययन -मनन किया था .समाज के  ह्रदय-परिवर्तन का प्रयास उनके साहित्य का लक्ष्य था.
         कहानियों  और उपन्यासों में उनकी लेखनी से  देश-काल और परिवेश वर्णन और  पात्रों के माध्यम से व्यक्त भावनाओं में इसकी साफ़ झलक मिलती है.देश और समाज की जैसी हालत आज है, उसे देख कर प्रेमचंद जी कहीं भी और कभी भी याद आ जाते हैं . इसलिए  बिना किसी खास प्रसंग के , मैं यहाँ उनके प्रसिद्ध  उपन्यास  'कर्म-भूमि ' के विभिन्न पृष्ठों से संकलित उन पंक्तियों को अलग-अलग शीर्षकों में पेश कर रहा हूँ , जो आज भी दिल को छू जाती हैं --
                                                                 फर्क
                             गली में बड़ी दुर्गन्ध थी . गंदे पानी के नाले दोनों तरफ बह रहे थे . घर प्रायः सभी कच्चे थे . गरीबों का मोहल्ला था . शहरों के बाज़ारों और गलियों में कितना अंतर है ! एक फूल है -सुंदर, स्वच्छ ,और सुगंधमय .दूसरी जड़ है- कीचड़ और दुर्गन्ध से भरी , टेढी-मेढ़ी ! लेकिन क्या फूल को मालूम है -उसकी हस्ती जड़ से है ?                          
                                                     स्वार्थ-बुद्धि  और  न्याय -बुद्धि
               तुम कहोगे -हमने बुद्धि बल से धन कमाया है,क्यों न उसका उपभोग करें ? लेकिन... इस बुद्धि  का नाम स्वार्थ -बुद्धि है. और जब समाज का संचालन स्वार्थ-बुद्धि के हाथ में आ जाता है,  न्याय-बुद्धि गद्दी से उतार दी जाती है, तो समझ लो कि समाज में कोई विप्लव होने वाला है. गर्मी बढ़ रही हो , तो तुरंत आँधी आती है. मानवता हमेशा कुचली नहीं जा सकती . समता जीवन का तत्व है. यही एक दशा है, जो समाज को स्थिर रख सकती है. थोड़े से धनवानों  को हरगिज़ यह अधिकार नहीं है कि वे जनता को ईश्वर प्रदत्त वायु और प्रकाश का अपहरण कर लें !

                                                                स्वार्थ
           जिसके पास जितनी बड़ी डिग्री है, उसका स्वार्थ भी उतना ही बढ़ा हुआ है. मानो  , लोभ और स्वार्थ ही विद्वता का लक्षण है ! गरीबों को रोटियां मयस्सर न हो , कपड़ों को तरसते हों , पर हमारे शिक्षित भाईयों को मोटर चाहिए , बंगला चाहिए , नौकरों की एक पलटन चाहिए ! इस संसार को अगर मनुष्य ने रचा है ,तो वह अन्यायी है,    ईश्वर ने रचा है ,तो उसे क्या कहें ?
                                                  
                                                            औचित्य

 इतनी अदालतों की ज़रूरत क्यों ? ये बड़े-बड़े महकमे किसलिए ?   ऐसा मालूम होता है-गरीबों की लाश नोचने
वाले गिद्धों का समूह हैं !   
                                                                   संकेत

         अगर धनवानों की आँखें अब भी नहीं खुलती , तो उन्हें पछताना पड़ेगा . यह जागृति का युग है. जागृति अन्याय को सहन नहीं कर सकती . जागे हुए आदमी के घर में चोर और डाकू की गति नहीं .. !
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