जिनके कपड़े जितने उजले ,जितना उजला तन है ,
उनके उतने ही भीतर कोई स्याह फरेबी मन है !
जिनके जितने ऊंचे महल और विशाल आँगन हैं,
उनकी तिजोरियों में उतना लूट-मार का धन है !
धन-धान्य से पुण्य धरा थी , क्या से क्या कर डाला ,
उनकी करतूतों से घायल देश का हर एक जन है !
चारों ओर खूब चल रही लीपा-पोती , हेरा-फेरी
सफेदपोश हाथों में कैद अब भारत का ये चमन है !
चालबाज ने चालाकी से बेची वतन की अस्मत
जन्म-भूमि के कण-कण में बस अब केवल क्रन्दन है !
रिश्वत के ही दम पे जिनकी मनती रोज दीवाली ,
बेशर्मों की बस्ती में आज उन्हीं का अभिनन्दन है !
गाँव रौंद कर शहर बसाते कदम-कदम पर माफिया ,
मानव-जिस्मों की नींव पर बनते जिनके भवन हैं !
लोकतंत्र के नाम चल रही ये कैसी धींगा-मस्ती,
न्याय की लेकर आस अदालत में कटता जीवन है !
संविधान की कसमें खा कर बैठ गए जो कुर्सी पर
उनसे पूछो कहाँ खो गए उनके जो 'मधुर 'वचन हैं !
बेईमानों से उम्मीद करे क्यों कोई किसी ईमान की ,
जिनके लिए वतन का मतलब केवल एक 'सिंहासन' है !
-- स्वराज्य करुण
बेईमानों से उम्मीद करे क्यों कोई किसी ईमान की,
ReplyDeleteजिनके लिए वतन का मतलब केवल एक 'सिंहासन' है
आज इस गजल हार का एक एक मोती उम्दा है।
आभार
वाह बेहद सुंदर लिखा आपने निश्चित ही देश आज बुरी स्थिती मे है ।
ReplyDeleteसटीक और समसामयिक गज़ल
ReplyDeleteरिश्वत के ही दम पे जिनकी मनती रोज दीवाली ,
ReplyDeleteबेशर्मों की इस बस्ती में आज उन्हीं का अभिनन्दन है !
वाह!
आज तो टिप्पणी मे यही कहूँगा कि बहुत उम्दा ग़ज़ल है यह!
ReplyDeleteएक मिसरा यह भी देख लें!
दर्देदिल ग़ज़ल के मिसरों में उभर आया है
खुश्क आँखों में समन्दर सा उतर आया है