पचास रूपए की हो
या हज़ार रूपए की , चोरी तो चोरी है ,
महज़ एक सौ रूपए की हो
या एक करोड की, रिश्वत तो रिश्वत है /
फिर क्यों ऐसा होता है कि
सौ-पचास की
रिश्वत के आरोपी
धरा जाते हैं रंगे हाथ और
पहुंचा दिए जाते हैं जेल ,
लेकिन हज़ारों-हज़ार करोड़ की
चोरी और रिश्वत के अपराधी
हमेशा खेलते रहते हैं -
जनता के खजाने को लूटने का खेल /
उनके हर झूठ को
सच साबित करने तैयार रहती है-
काले कोट वालों की फौज ,
न्याय के मन-मंदिर में
सब मिल कर मनाते हैं मौज /
बस स्टैंड और रेलवे स्टेशन पर
पकड़े गए जेबकतरे पर
बरसती है मुसाफिरों की बेरहम लात
जबकि देश की जेब काटने वाले
सफेदपोश शातिरों पर
होती है फूलों की बरसात !
वे सोते हैं नोटों के नरम बिछौने पर ,
उन्हें भला क्या लेना-देना किसी गरीब के रोने पर ?
प्रजा को ऐसे डाकुओं की काली कमाई का
हिसाब देने से इनकार करता है
प्रजा का ही चुना हुआ राजा ,
इन लुटेरों के साथ
हर मौके पर दिखता है वह तरोताजा ,
समझ में नहीं आता कि
बेचारी प्रजा कब मिलकर बजाएगी
इस बेईमान राजा का बाजा ?
अस्पताल के दरवाज़े पर
तड़फ रहा है एक लावारिस मरीज़
और वहीं पर डॉक्टरों की महफ़िल है /
इस जटिल और कुटिल दुनिया के
दांव-पेंच को समझ पाना बहुत मुश्किल है /
- स्वराज्य करुण
योग्य को सूखी रोटी,अयोग्य उड़ा रहे हैं चिल्ली।
ReplyDeleteछोटा चोर अंदर है,बड़ा उड़ाए कानून की खिल्ली।।
जनता का धन लूटने वाले डकैतों की पौ बारह।
चोर चोर मौसेरे भाई,खामोश बैठी हुई है दिल्ली॥
दुनिया, दिखाई तो ऐसी ही दे रही है, लेकिन शायद कुछ अदृश्य-ओझल भी है, जो हमें कायम रखे है.
ReplyDeleteविकट स्थिति है। विचारोत्तेजक कविता। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteविचार
चिंताजनक !
ReplyDeleteनई बाचन हम भईया अइसन तंत्र मा.. जियादा दिन । रोकना परही जम्मो ला मिलके..
ReplyDeleteनई बांचन जियादा दिन भईया अइसनहा तंत्र मां... फेर मिलजुल के कछु करना परही । कोन रद्दा धराही नई जानवं
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