अब नज़र आती नहीं कोई चिड़िया डाल पर ,
शिकारी की नज़र है बिछे हुए जाल पर !
जाने कहाँ चली गयी
आंगन की गौरैया ,
बेहद मायूस है
जीवन की गौरैया !
नाविक के गीत नहीं झील, नदी , ताल पर ,
शिकारी की नज़र है बिछे हुए जाल पर !
जाने क्यों रुक गया
पेड़ों का हिलना ,
हवाओं का बहना और
कलियों का खिलना !
वक्त के तमाचे हैं तितलियों के गाल पर ,
शिकारी की नज़र है बिछे हुए जाल पर !
इस भरी महफ़िल में
सरगम की खामोशी
बेचैन कर रही है क्यों
मौसम की खामोशी !
सन्नाटा कायम है यहाँ इस सवाल पर
शिकारी की नज़र है बिछे हुए जाल पर !
स्वराज्य करुण
सुन्दर गीत
ReplyDeleteshayad yah shikari bhi hum hi hai .humne paryavaran ko aisa chhoda hi kanha hai ki ye nanhe jeev jeevan dharan kar sake.bhavon se bhari sundar abhivayakti .
ReplyDeleteबाऊ जी,
ReplyDeleteनमस्ते!
'यथा नाम तथा गुण' को चरितार्थ कर रही है कविता.
आशीष
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नौकरी इज़ नौकरी!