स्वराज्य करुण
परिंदों के पंख छिल रहे हैं प्याज की तरह
उतरा है वो ज़मीन पर बाज़ की तरह !
वतन के पेट पर लगा महंगाई का हंटर ,
ये वक्त है तानाशाह -ताज की तरह !
खेतों में उग रहे हैं कांक्रीट के जंगल
सपने हुए गिरवी अनाज की तरह !
घर में उनके बरसता ही जा रहा सोना
गिर रही है गरीबी तुझ पर गाज की तरह !
क्यों और ऊंची हो गयी उनकी हवेलियाँ ,
राज़ इसका रहेगा बस ' राज ' की तरह !
दिल्ली के दलालों से दहलने लगा है देश,
ठहाके हैं उनके राक्षसी -अंदाज़ की तरह !
अब हाथ उनका आ गया तेरे गले के पास ,
रह जाएगा तू इक दबी आवाज़ की तरह
स्वराज्य करुण
आपकी आवाज तो यहां बुलंद है, यही मुकाबिल रहती है.
ReplyDeleteखरी खरी खूब कही
ReplyDeleteबात बिलकुल सही
दिल्ली के दलालों से दहलने लगा है देश
ReplyDeleteek lne me sab samjha diya aapne.... but picture is changing so fast..