जनता झुलस रही है
महंगाई की आग में और
दिल्ली दरबार में हर
दूसरे-तीसरे दिन सिर्फ हो रही है
चर्चा आग बुझाने के उपायों पर /
अर्थ-शास्त्री राजा , उसके
अनुभवी वित्त मंत्री और
खुशामदखोर दरबारी मिल कर
हर बार पहुंचते हैं इस नतीजे पर
कि बढ़ती कीमतों की आग में
झुलस रही जनता पर एक बार
फिर लगा दो दिलासे का मरहम
कि अगले कुछ दिनों या फिर
कुछ महीनों में
इस आग की तपिश हो जाएगी कुछ कम /
और धीरे-धीरे ठंडी पड़ जाएगी,
महंगाई की रफ्तार जाएगी थम /
फिर आता है रेडियो और टेलीविजन पर और
अखबारों की सुर्ख़ियों में राजा और
मंत्री का बयान- 'महंगाई डायन' से
घबराने की ज़रूरत नहीं , मत हो कोई परेशान /
कीमतों की आग में झुलसती जनता
हाथ जोड़ कर कहती है-
हे राजन ! हे मंत्रीगण ! हे दरबारियों !
हम तो जल ही रहे हैं इस आग में ,
ज़रा निकलो तो सही घरों से बाहर
अपने ही बनाए गए 'खुले बाज़ार ' में,
ताकि तुम भी महसूस कर सको इस
आग की तपिश को /
सिर्फ अपने दरबार के वातानुकूलित कमरे में
बैठ कर मगरमच्छ के आंसू बहाने
से क्या होगा राजन ?
कभी वेश बदल कर और
जेब में रख कर दस-बीस रूपए ,
अकेले झोला लेकर जाओ बाज़ार
और खरीदो चावल-गेहूं ,लहसून-प्याज,
अपने किसी बीमार रिश्तेदार के लिए
डॉक्टर की पर्ची लेकर अकेले जाओ मेडिकल स्टोर
और एक आम -इंसान की तरह
खरीदकर देखो प्राण-रक्षक दवा ,
जिसकी कीमत होगी प्राणों से भी ज्यादा ,
तभी तो महसूस कर पाओगे तुम
इस आग की आंच और
आटे-दाल का भाव /
हे राजन ! दरबारियों के साथ बैठकों में
आखिर कब तक करते रहोगे
सिर्फ और सिर्फ अपना मन बहलाव ?
राजन !मेरा दावा है -जिस दिन आप
और आपके मंत्री और दरबारी
आम जनता की तरह अकेले
जाएंगे झोला लेकर बाज़ार
उस दिन तय मानो
काफी कम हो जाएगी महंगाई की रफ्तार /
हे राजन ! लेकिन क्या ऐसा हो पाएगा ?
--स्वराज्य करुण
@हे राजन ! लेकिन क्या ऐसा हो पाएगा ?
ReplyDeleteयक्ष प्रश्न है आर्य।
शायद ऐसा कभी नही हो पायेगा। चिल्लाती रहे जनता।
ReplyDeleteऐसा कभी नही होगा।
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