Friday, April 8, 2011

धर्म यज्ञ से पहले ज़रूरी है कर्म यज्ञ

           छत्तीसगढ़ के सहज-सरल ग्रामीण परिवेश में रचे-बसे कवि और लेखक  पुनूराम साहू 'राज' की सातवीं किताब हिन्दी लघु नाटक 'कर्म यज्ञ ' के नाम से हाल ही में सामने आयी है.  हिन्दी जगत में   नाटक लिखने  और किताब के रूप में उसके प्रकाशन   की परम्परा लगातार कम होती जा रही है .  मंचन का माहौल भी  पहले जैसा  नहीं रहा .  अब अधिकाँश  नाट्य-लेखक सिनेमा और छोटे परदे के धारावाहिकों के पट-कथा लेखक और संवाद-लेखक की भूमिका में आ गए हैं. ऐसे में नाट्य-साहित्य का लेखन और प्रकाशन अगर छुट-पुट कहीं हो भी रहा हो ,तो सबको कहाँ नज़र आएगा ? अब इस नाटक  को ही लीजिए .लेखक   अनुसार वे इसे करीब चौबीस वर्ष पहले सन 1987 में लिख चुके थे . लंबे इंतज़ार और बड़े अंतराल के बाद आज सन 2011 में किताब की शक्ल में इसके प्रकाशन का सपना पूरा हुआ है .
          धमतरी जिले के मगरलोड निवासी हिन्दी और छत्तीसगढ़ी भाषाओं के आंचलिक साहित्यकार पुनूराम जी ने ग्राम्य-जीवन  के सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक परिवेश पर केन्द्रित 'कर्म यज्ञ ' के  लेखन और प्रकाशन से यह संकेत भी दे दिया है कि परम्परागत रंगमंचों के लिए उम्मीदों का अलाव आज भी जल रहा है और हालात कतई मायूस करने वाले नहीं हैं . नाटक  के शुरुआती दृश्य में राजा  कुंवर प्रताप देव के निवास पर पूजा -अनुष्ठान के बाद सामूहिक भोज की पंगत से एक पंडित जी के आदेश पर  कथित निम्न जातियों के लोगों को अछूत समझ कर उठा दिए जाने की घटना तत्कालीन भारतीय समाज में व्याप्त  कुरीति  को उजागर करती है ,कहानी के नायक विशाल देव ,जो राजा कुंवर प्रताप देव के छोटे भाई हैं , इस आदेश का  यह कह कर विरोध करते हैं - ''ओह ! यह कैसी व्यवस्था है ? जो दिन रात मेहनत करके अन्न उपजाते हैं और जिनकी कमाई से सब सुख भोग रहे हैं, उन्हें अछूत और अशुभ समझा जाता है ? '' लेखक ने इस संवाद के ज़रिये निश्चित रूप से सामाजिक भेदभाव पर प्रहार किया है. हालांकि बीसवीं सदी के महा मानव महात्मा गांधी सहित कई महान विभूतियों की लगातार कोशिशों से हमारे यहाँ  जाति-भेद की विषैली जड़ें कमज़ोर तो हुई हैं ,लेकिन उसके रहे-सहे अवशेषों को भी खत्म करने की ज़रूरत है. नाटक आगे बढ़ता है . राज्य में अवर्षा के कारण अकाल की स्थिति निर्मित होती है. राजा कुंवर प्रताप देव पंडितों के कहने पर बारिश के लिए महायज्ञ कराने और उसमे भारी मात्रा में अनाज और घी की आहुति देने का सुझाव मान लेते  हैं ,लेकिन विशाल देव अपने बड़े भाई के इस फैसले पर यह कह कर आपत्ति करते हैं कि यज्ञ के नाम पर भारी मात्रा में अनाजऔर घी  भस्म करना ठीक नही है .जब पंडित चतुरानन्द समझाने की कोशिश करते हैं कि यज्ञ-हवन से वायु-मंडल शुद्ध होता है और   ललुआ प्रसाद कहता है कि  यज्ञ-हवन नहीं होने के कारण बारिश नहीं हो रही है , तो विशाल देव कहते हैं- मैं मानता हूं कि यज्ञ से वायुमंडल शुद्ध होता है, लेकिन इसके लिए दसियों मन अनाज जलाना ज़रूरी तो नही है. जहां तक वर्षा नहीं होने की बात है , इसमें यज्ञ हवन नहीं होना कोई कारण नही है, बल्कि असली कारण है जंगलों का सफाया होना , दिनों दिन लाखों-करोड़ों वृक्षों का कटना और हरे-भरे वन-प्रांतरों का वीरान होते जाना . विशाल देव के इस संवाद के माध्यम से लेखक ने समाज को प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा का सन्देश दिया है .
          महा यज्ञ को लेकर विशाल देव की आपत्ति नहीं मानी जाती और प्रताप देव उन्हें नास्तिक कह कर घर से निकाल देते हैं. विशाल देव एक गाँव में  गरीब आदिवासी के घर में रह कर ग्रामीणों को श्रमदान के लिए प्रोत्साहित करते हैं . पास की एक पहाड़ी पर पानी से लबालब भरे पोखर तक नाली बनाने का काम सब मिलकर शुरू करते हैं .पहाड़ी के नीचे कल तक  सूखे पड़े खेतों में  पानी पहुँचने पर  अब  हरियाली छा जाती है. गाँव में उत्साह का वातावरण बन जाता है. विशाल देव जिस गरीब के घर रहते थे, उसकी बेटी श्यामली से उनका विवाह हो जाता है , बड़े भाई कुंवर प्रताप देव का भी ह्रदय परिवर्तन हो जाता है और वे उसे अपना लेते हैं यह कहते हुए कि धर्मान्धता के कारण मुझसे जो अन्याय हुआ , उसके लिए मै शर्मिन्दा हूं .घर से निकल कर तुम कर्म वीर बन गए और कर्म यज्ञ पूर्ण हुआ . प्रताप देव यह भी  स्वीकार करते हैं कि विशाल देव की प्रेरणा से ही ग्रामीणों में भयंकर अकाल से लड़ने की हिम्मत आयी . विशाल देव और श्यामली के विवाह की तैयारी शुरू हो जाती है और शहनाई की मंगल  ध्वनि के साथ नाटक समाप्त होता है . लेखक पुनूराम साहू 'राज' ने सम्पूर्ण  नाटक को  एक साथ चार प्रमुख सामाजिक समस्याओं पर केंद्रित किया है --जातिवाद , धार्मिक अंध-विश्वास , जंगल का विनाश और सामूहिक अकर्मण्यता . उन्होंने नाटक के विभिन्न संवादों से इन समस्याओं  को सामाजिक समरसता , सहज वैज्ञानिक चेतना , पर्यावरण संरक्षण और सामूहिक श्रमदान की सार्थक  भावनाओं के ज़रिये हल करने का एक बेहतर विकल्प समाज के सामने रखा है.  नाटक के शीर्षक में भी यह सन्देश बहुत साफ़ है कि धार्मिक पूजा-पाठ , यज्ञ -हवन  आदि रीति -रिवाज अपनी जगह हैं , लेकिन मानव-जीवन में कर्म अर्थात  मेहनत से बड़ा कोई यज्ञ नहीं है. धर्म-यज्ञ से पहले कर्म-यज्ञ ज़रूरी है.  जीवन की हर समस्या का समाधान इसमें निहित है.लगता है  योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने 'गीता ' में जिसे 'कर्म-योग' कहा है , पुनूराम साहू 'राज'  ने अपने नाटक में उसे कर्म-यज्ञ के रूप में प्रस्तुत किया है .
             सामाजिक नाटक  'कर्म यज्ञ ' को पुस्तक रूप में  मगरलोड की संगम साहित्य एवं सांस्कृतिक समिति ने प्रकाशित किया है. . इसके प्रकाशन में .छत्तीसगढ़ सरकार के राज भाषा एवं संस्कृति विभाग से भी सहयोग मिला है. साहित्यिक प्रतिभाओं को  प्रोत्साहित करने की राज्य सरकार की यह नीति  वास्तव में सराहनीय और स्वागत योग्य है .                                                              ---  स्वराज्य करुण

3 comments:

  1. पुनू राम साहू जी का लेखन ग्रामीण वातावरण की झांकी प्रस्तुत करता है.......

    कर्म यज्ञ ही जीवन में महत्वपूर्ण होता है.

    आभार

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  2. पुनूराम जी मगरलोड में रह कर यज्ञ-निष्‍ठा से सक्रिय हैं.

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  3. एक ही कहानी मे कितने विषयो को समेटता यह कथानक बेहद दिल को छू लेने वाला है पुनूराम साहू जी से परिचित कराने के लिये आपका आभार

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