स्वराज्य करुण
याद आती हैं नदियाँ ,
याद आते हैं तालाब ,
याद आती है उनके किनारों से
गायब हरे-भरे पीपल और
बरगद की छाँव ,
चिड़ियों की चहक ,
धूल भरी माटी की
मन भावन महक,
मिट गए हैं जिनके
नाम-ओ-निशान ,
विकास की बेरहम आंधी में
खो गयी है जिनकी
बेशकीमती पहचान /
गाँवों को अपने खूनी पंजों में
जकड़ने लगे हैं शहर
खो गयी है जाने कहाँ
पानी और प्यार की एक नहर /
कभी खुलते थे जहां दानवीरों के प्याऊ
राहगीरों की प्यास बुझाने का
उनमे था संस्कार ,
अब तो वे भी करने लगे
शीतल-पेय का चोखा कारोबार /
सड़क चौड़ीकरण के नाम
हो रही है हत्या बेजुबान वृक्षों की ,
मुसाफिरों को मिलती नहीं
अंजुरी भर छाया ,
नव-तपे की धूप में जलती है
मेहनतकशों की काया /
होगी इस बार भी
अंगारों की बारिश
और बहुत याद आएंगें पेड़-पौधे ,
याद आएगी हरियाली ,
याद आएगा -ज़मीन के नीचे
गहरे और गहरे चला जा रहा पानी /
जब-जब आता है --
आसमान से आग बरसाने वाला मौसम ,
जब-जब सूरज बरसाता है शोला
हमें बहुत याद आती है शबनम /
दोस्तों ! लग चुकी है आग
आओ ,अब हम खोदने लग जाएँ कुआं ,
घर तो अपना जल ही रहा हैआओ देखें दूर तक उठता धुंआ /
-- स्वराज्य करुण
कुआं तो खुदने से रहा बोर के लिए भी पहले इजाजत लेनी होगी, जाएं तो जाएं कहां...
ReplyDeleteगहन चिंतन ...अच्छी नज़्म सोचने पर विवश करती हुई
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