Tuesday, December 16, 2025

(पुस्तक -चर्चा ) दूसरों के लिए रास्ता नहीं बन पाने का दर्द / आलेख -स्वराज्य करुण


दूसरों के लिए रास्ता 

नहीं बन पाने का दर्द 

(आलेख- स्वराज्य करुण) 

साहित्य मानवीय भावनाओं का दूसरा नाम है।कहानी, कविता, उपन्यास आदि साहित्य की अनेक विधाएँ हैं।कोई भी कविता, चाहे वह तुकांत हो या अतुकांत, उनमें मनुष्य के सुख -दुःख की, रिश्ते -नातों  की, धरती और आसमान की,अपने आस -पास हो रही हलचलों  की अभिव्यक्ति होती है।वे जो हमारी भाषा या हमारी बोलियों में हमसे कुछ कह नहीं पाते उन ख़ामोश खड़े पेड़ -पौधों की,रंग -बिरंगे फूलों की,फलों की, पशुओं और पंछियों की अमूर्त भावनाओं को भी कवि अपनी रचनाओं में शब्द और स्वर देता है, जिनसे हमें मनुष्य होने की पहचान मिलती है। मनुष्य होने के नाते हमें काव्य रचनाओं में व्यक्त भावनाओं को समझना और उनका सम्मान करना चाहिए।    

       पेशे से पत्रकार और स्वभाव से कवि छत्तीसगढ़ के निकष परमार का पहला कविता संग्रह 'पृथ्वी पर जन्म लेने के बाद ' शीर्षक से प्रकाशित हुआ था । इस वर्ष 2025 में उनकी कविताओं की दूसरी किताब  'हम कोई रास्ता न  बन पाए 'शीर्षक से सामने आई है । इसे वैभव प्रकाशन, रायपुर ने प्रकाशित किया है । पुस्तक 64 पेज की  और 100 रूपए की है । प्रारंभ में 'कविता का निकष और निकष की कवितायें 'शीर्षक से वरिष्ठ लेखक  और पत्रकार पंकज झा ने भूमिका लिखी है, जो सारगर्भित होने के साथ -साथ बहुत महत्वपूर्ण है ।भूमिका में उन्होंने निकष की भावनाओं और संवेदनाओं को रेखांकित किया है, जिससे कवि की रचनाधर्मिता का परिचय मिलता है ।

   निकष के इस संग्रह की रचनाओं में मनुष्य और प्रकृति की, उसके प्राकृतिक परिवेश की और उस परिवेश में उमड़ते -घुमड़ते सुःख -दुःख की ऐसी अभिव्यक्ति है, जो हमारे हृदय को छूने के साथ -साथ उसे झकझोरती भी है। यह संग्रह 26 छोटी -छोटी कविताओं, चार गीतों, पाँच गज़लों और सोलह मुक्तकों से सुसज्जित है।इन कविताओं में सिर्फ़ सपाट बयानी नहीं है । उनमें शब्दों की बाज़ीगरी भी नहीं है । इनकी बुनावट भावनाओं के महीन धागों से हुई है ।  इसलिए इनकी बनावट बेहद कोमलता लिए हुए है, जो  पाठकों के दिलों को छू जाती हैं ।

                                       


  वैसे तो हर कवि भावुक होता है, लेकिन निकष की कविताओं में  भावुकता के बादल घनीभूत होकर बरसते हैं। दुनिया में इंसानियत के नाते दूसरों को रास्ता दिखाना, दूसरों के लिए रास्ता बनाना तो अच्छी बात है, लेकिन उससे भी अच्छी बात तब होगी, जब हम ख़ुद दूसरों के लिए रास्ता बन जाएँ ।कुछ इसी तरह के भाव निकष के इस दूसरे कविता संग्रह के शीर्षक में झलकते हैं। उनमें दूसरों के लिए रास्ता बन जाने की चाहत तो है, लेकिन नहीं बन पाने का दर्द भी है । कवि की यह भावना  संग्रह के 16 मुक्तकों में से आख़िरी मुक्तक में महसूस की जा सकती है -

    *हम कोई रास्ता न बन पाए 

     जिससे होकर कोई गुज़र जाए,

    कब अंधेरा हुआ, पता न चला,

    छोड़ कर कब चले गए साए।*


आधुनिक दुनिया में एक तरफ जहाँ सम्पन्नता की चकाचौंध हैं, लोगों में शहरों का लगातार बढ़ता आकर्षण है,वहीं  दूसरी तरफ बेबसी के चक्रव्यूह में घिरे असंख्य गरीब इंसान मन ही मन बेचैन हैं।ऐसे ही एक बेचैन इंसान की पीड़ा कवि निकष के इस मुक्तक में उभरती है -

   *कार, दौलत, जश्न, आलीशान घर थोड़े ही था,

   प्यार था उसको शहर से, मैं शहर थोड़े ही था.

   मैं दरकता जा रहा था, उसको भी मालूम था,

  उससे क्या उम्मीद करता, उसका घर थोड़े ही था ।*


संग्रह में शामिल सभी कविताएँ,सभी गीत, ग़ज़ल और सभी मुक्तक एक से बढ़कर एक हैं. उनमें जीवन -दर्शन की सुकोमल अभिव्यक्ति है, और है जीवन के यथार्थ का चौंकाने वाला प्रतिबिम्ब ।समाज में खींची जा रही विभाजन की दीवारों के बीच आज मानवता कराह रही है.भले ही उसे दिल को बहलाने के लिए सुन्दर सपने दिखाए जा रहे हों ।कवि निकष 'शुक्रिया' शीर्षक कविता में कहते हैं -

 *जब चारों तरफ 

    खड़ी की जा रही थीं दीवारें,

     मुझे हवा के कंधों पर 

     अपने साथ बिठाने का शुक्रिया ।

     जब हर कोई नज़र फेर कर 

     चला जा रहा था,

     मुझसे नज़रें मिलाने का शुक्रिया ।

     सपने तो टूटते रहते हैं मगर,

     जब सपने देखने की ताकत भी 

      नहीं बची थी,

     मुझे इतने सुन्दर सपने 

     दिखाने का शुक्रिया।*

पिंजरों में तोता-मैना जैसे पंछियों को पालने के शौक़ीन लोगों को उनकी पीड़ा का अनुभव शायद ही होता होगा. एक मैना को बचाने के लिए हो रही क़वायद पर कवि  'मैना ' शीर्षक कविता में लिखते हैं -

    * उन्होंने मैना को बचाने के लिए 

        उसे पिंजरे में कैद कर लिया।

        उनके पास यही एक तरीका था 

        मैना को बचाने का ।

       पिंजरे में रहते -रहते मैना मर गई ।

       मैना तो उसी दिन मर गई थी 

      जिस दिन पिंजरे में कैद हुई थी ।*

 

निर्ममता शहरों की तासीर में होती ही है।तेज रफ़्तार शहरीकरण से भयभीत कवि निकष अपने इस डर को एक बहुत छोटी कविता 'चीतल' में कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं -

       *जंगल से भटक कर 

         शहर में घुस आए चीतल को 

         कुत्तों ने नोचकर मार डाला ।

        बरसों पहले छोड़कर अपना घर 

        मैं भी आया था शहर।*

 निकष की हर कविता में प्रतीकों और बिम्बों का अपना सौन्दर्य है।वे वर्तमान युग की हकीकतों पर संकेतों में अपनी बात कहते हैं ।आदमी जब सूरज हो जाता है, दुनिया के सबसे घने जंगल, 'एक सूरज कितनी जगह डूबता है ' जैसी उनकी कविताओं में यह बात देखने को मिलती है  ।उनकी कविता -'एक मौसम होता है, एक उम्र होती है ' का अंतिम हिस्सा  देखिए -

     एक दौर होता है 

     टूटे हुए ख्वाबों का 

     और उदास खयालों का,

     जब हम तय नहीं कर पाते 

     कि यह मौसम है 

    जो गुज़र जाएगा 

    या उम्र है जो लौट कर नहीं आएगी.*

अपनी कविता -' जब ज्यादातर लोग घर लौट रहे होते हैं ' में कवि ने आमजनों की दिनचर्या को भावनाओं में बहते हुए बहुत सहज -सरल ढंग से रेखांकित किया है-

       *शाम ढले ज्यादातर लोग 

       घर लौट रहे होते हैं,

      पर कुछ लोग घर नहीं लौट रहे होते हैं।

     बच्चों के लिए दाने और तिनके बटोरने वाली 

     चिड़िया आख़िरी खेप के साथ 

      घर लौट रही होती है ।

      कोई नौकरी की तलाश में 

      नए शहर जा रहा होता है ।

       कोई अस्पताल में किसी के पास 

      रात रुकने के लिए जा रहा होता है ।

       जिनका कोई ठिकाना नहीं होता,

       वे पता नहीं कहाँ जा रहे होते हैं ।

       उम्र की शाम भी ऐसी ही होती है.

       जब ज्यादातर लोग घर लौट रहे होते हैं,

       बहुत -से लोग घर नहीं लौट रहे होते हैं ।


  इंसानी फ़ितरत की तस्वीर कवि निकष ने 'कुछ लोग कभी नहीं बदलते ' शीर्षक कविता में कुछ इस तरह खींची है -

       *कुछ लोग होते हैं 

         जो कभी नहीं बदलते ।

         बरसों बाद उनसे मिलो 

       तो वे जहाँ के तहाँ मिलते हैं 

      जस के तस ।

       ऐसे लोगों की हमें

      अक्सर याद नहीं आती ।

      वहीं कुछ लोग होते हैं 

      जो बड़ी तेजी से बदल जाते हैं ।

      कुछ पैसे कमा लेने के 

       बाद बदल जाते हैं ।

      कुछ ओहदे पाकर बदल जाते हैं,

      कुछ मतलब निकल जाने के बाद 

       बदल जाते हैं ।*

   बेतरतीब, बेहिसाब और बेरहम आधुनिकता के इस भयानक दौर में अधिकांश नदियाँ अपनी रेत के अवैध दोहन के साथ -साथ 

प्रदूषण की चपेट में आ गई हैं, लेकिन समाज का एक वर्ग या कहें कि एक सम्पन्न तबका ऐसा है, जिसे नदियों के इस दर्द से कोई लेना -देना नहीं. निकष की कविता 'नदी ' ऐसे ही लोगों पर कटाक्ष करती है-

      *नदी से उन्हें कोई मतलब नहीं होता,

         वे नदी में नहीं नहाते ।

       नदी का पानी उनके घर तक आ जाता है ।

        नदी के पानी से वे अपने घर में नहाते हैं. 

       उन्हें नदी का नाम तक पता नहीं होता,

       वे नहीं जानते कि नदी मौसमी है कि बारहमासी ।

       उन्हें नदी से रेत निकाले जाने से भी 

         फ़र्क नहीं पड़ता, 

         न शहर की गंदगी नदी में जाने से ।

          कारखानों के अपशिष्ट से सड़ चुके 

        नदी के पानी के पास से गुज़रते हुए 

       वे नाक पर रूमाल रख लेते हैं  ।

       हाँ, जब नदी के किनारे मेला लगता है,

       तब वे लाव -लश्कर के साथ 

        नदी तक आते हैं और नदी में नहाने वालों को 

       बताते हैं कि नदी को बचाना क्यों ज़रूरी है ।

        अपने लोगों की चिन्ता में नदी 

        कविताएँ लिखती है 

         जो उन लोगों तक नहीं पहुँचती 

        जिनके घर नदी का पानी 

        पहुँच जाता है ।


निकष की कलम ने गीतों में भी कमाल दिखाया है. संग्रह में शामिल एक गीत 'किसको अच्छा लगता है ' की शुरुआत के दो अंतरों  को देखिए -

    *जब देखो तब खाली -खाली 

    तनहा -तनहा लगता है,

     तुमको खोकर भी ख़ुश रहना 

    किसको अच्छा लगता है ।

   तुम जो साथ नहीं तो सारी 

    दुनिया ही बेमानी है,

    परबत, जंगल, नदिया,झरना

    किसको अच्छा लगता है।* 

लगातार बदलती टेक्नोलोजी के इस दौर में निकष ने अपने इस गीत के साथ एक नया प्रयोग भी किया है । यह ए. आई. जैसी नई टेक्नोलोजी के साथ उनका  नया काव्यात्मक प्रयोग है ।उनके इस गीत को संगीत के साथ ए. आई. के एक अदृश्य गायक ने स्वर दिया है, जो बहुत बेहतरीन बन पड़ा है ।

इस कविता -संग्रह के समर्पण की निकष की बहुत भावुक अभिव्यक्ति है।संग्रह की शुरुआत करते हुए वे लिखते हैं -


समर्पित 

******

*राह के उन पत्थरों को 

जिनकी ठोकर से आह निकली 

और कविता में बदल गई.

बंजर में खिले फूलों को 

जिन्हें रुककर देखा 

तो एक कविता का जन्म हुआ।

उन लोगों को 

जिन्हें मेरा लिखा -बोला 

अच्छा लगा और बताने पर जाना 

कि इसे कविता कहते हैं।*

छत्तीसगढ़ के बागबाहरा कस्बे (जिला -महासमुन्द ) में 25 जून 1967 को जन्मे निकष परमार धमतरी जिले के निवासी हैं। इस जिले का मुख्यालय  धमतरी उनका गृह नगर है । प्राथमिक से लेकर आगे की पढ़ाई लिखाई भी धमतरी में हुई.लेकिन पत्रकारिता के पेशे में होने के कारण वे विगत साढ़े तीन दशकों से  राजधानी रायपुर में हैं।धमतरी निवासी उनके पिता स्वर्गीय नारायण लाल परमार और माता स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा परमार छत्तीसगढ़ के जाने -माने साहित्यकार थे.पत्र -पत्रिकाओं में दोनों की कविताएँ कई दशकों तक छपती रहीं।दोनों ने  अपने साहित्य सृजन से राष्ट्रीय स्तर पर छत्तीसगढ़ की पहचान बनाई. स्वर्गीय नारायण लाल परमार तो  हिन्दी और छत्तीसगढ़ी दोनों भाषाओं के कवि होने के साथ -साथ कहानीकार और नाट्य लेखक भी थे।उन्होंने हिन्दी में उपन्यास भी लिखे.उनके  प्रकाशित उपन्यासों में प्यार की लाज (वर्ष 1954), छलना (वर्ष 1956)और पूजामयी (वर्ष 1959) उल्लेखनीय हैं। 

    इस प्रकार यह कहना उचित होगा कि निकष परमार को साहित्यिक प्रतिभा विरासत में मिली है। संग्रह के अंतिम आवरण पृष्ठ पर उन्होंने स्वयं इसे स्वीकारा भी है । वे लिखते हैं - "पिता साहित्यकार थे। माँ भी लिखती थीं । घर पर साहित्यिक गोष्ठियां हुआ करती थीं । देश भर की साहित्यिक पत्रिकाएँ घर पर आती थीं । तो साहित्य के संस्कार विरासत में मिले । "

    बहुत ख़ामोशी से साहित्य सृजन में, विशेष रूप से कविताएँ लिखने में लगे निकष से साहित्यिक बिरादरी को अनेक आशाएँ हैं। उनकी कविताओं को पढ़कर मैं भी उन्हें अपनी शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ । 

  -स्वराज्य करुण 

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