Sunday, April 30, 2023

(आलेख) सरहदों के मिलन -बिंदु पर आकर

(आलेख :  स्वराज्य करुण  )

जहाँ कुछ ही कदमों के फासले पर बदल जाती हैं संस्कृतियाँ ,भाषाएँ  और बोलियाँ ,वहाँ  इस बदलाव को देखना और महसूस करना क्या आपको  रोमांचक नहीं  लगता ? मुझे तो लगता है। देश के भीतर ऐसे कई सीमावर्ती  मिलन -बिंदु हैं ,जहाँ आकर हम और आप स्वयं को रोमांचित महसूस कर सकते हैं ,जहाँ  हमें अपने भारत की सांस्कृतिक विविधता के भी  कई रंग देखने को मिलते हैं।  

    ऐसा ही रोमांच हमें  पड़ोसी देशों से लगी हमारी अंतर्राष्ट्रीय  सीमाओं पर भी होता है , लेकिन मैं जिनकी चर्चा कर रहा हूँ ,वो हमारी आंतरिक (घरेलू ) सरहदें हैं। हालांकि  अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं पर कई तरह की सख़्त बंदिशें भी होती हैं ,लेकिन देश के अंदर राज्यों के बीच  अंतर्राज्यीय सरहदों पर  सब कुछ सहज भाव से चलता  है ,क्योंकि इन सरहदों के इधर -उधर  रहने के बावज़ूद हम सब एक हैं, एक ही देश के निवासी हैं । पिछले साल इन्हीं गर्मियों में उधर से गुजरते हुए  अपने मोबाइल कैमरे से  मैंने ये दृश्य संकलित कर लिए।  इन तस्वीरों में  नज़र आ रहे दो सरकारी बोर्ड हमारे देश के दो प्रदेशों  की सरहदों के मिलन बिंदुओं  के सूचक हैं। नीले रंग का बोर्ड ओड़िशा के लोक निर्माण विभाग का है और पीले कलर का बोर्ड छत्तीसगढ़ सरकार के लोक निर्माण विभाग का । दोनों बोर्डों के बीच कुछ ही कदम पैदल  चलकर हम एक -दूसरे के राज्यों में आ -जा सकते हैं। इन चंद कदमों के फासले पर ही काफी कुछ बदल जाता है। बच्चों की स्कूली पढ़ाई की भाषा बदल जाती है , शासन -प्रशासन बदल जाता है। सामाजिक -सांस्कृतिक  राजनीतिक और प्रशासनिक  गतिविधियाँ बदल जाती हैं।


                                             



बोलचाल के लिए उधर  छत्तीसगढ़ मे छत्तीसगढ़ी और हिन्दी का चलन है  और इधर ओड़िशा के इलाके में ओड़िया भाषा और सम्बलपुरी बोली। हालांकि एक दूसरे के  इलाकों में स्थानीय लोग एक -दूसरे की भाषाओं और बोलियों के भी अभ्यस्त हैं। इन भाषाओं और बोलियों में एक -दूसरे के यहाँ लोक संस्कृति से जुड़े कार्यक्रम भी समय -समय पर ख़ूब होते हैं। काम -काज के सिलसिले में एक -दूसरे के यहाँ आना -जाना भी हमेशा लगा ही रहता है। (स्वराज्य करुण ) यह स्थान छत्तीसगढ़ के तहसील मुख्यालय बसना (जिला -महासमुंद) से मात्र साढ़े तेरह किलोमीटर पर ओंग नदी के किनारे है। इधर से गुजरने वाली  सड़क बसना (छत्तीसगढ़ )से  ओड़िशा के सबडिविजनल मुख्यालय पद्मपुर की दिशा में जा रही है ,जो बसना से लगभग  40 किलोमीटर पर है। इस पुल से छत्तीसगढ़ के विकासखंड मुख्यालय बसना की दूरी मात्र साढ़े तेरह किलोमीटर है। कभी -कभी मुझे लगता है कि इस नदी का नाम 'ओम नदी'  या 'अंग नदी'  रहा होगा और शायद  समय के साथ आंचलिक उच्चारण के असर से जन -जीवन में इसका नाम 'ओंग' प्रचलित हो गया। पिछले साल जब मैं उस रास्ते से गुज़र रहा था ,तो वहाँ  छत्तीसगढ़ की तरफ की सड़क का उन्नयन और चौड़ीकरण किया जा रहा था। । उधर ओड़िशा की तरफ कुछ वर्ष पहले ओंग नदी पर एक बड़े पुल का निर्माण हो चुका है और आगे के  लगभग 26 किलोमीटर के रास्ते का चौड़ीकरण और डामरीकरण भी। इस रास्ते पर ओंग नदी का पुल पार करने के बाद आपको जगदलपुर भी मिलेगा , लेकिन वह  छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले का मुख्यालय जगदलपुर नहीं ,ओड़िशा का एक कस्बा है। इसके  आस - पास है  पहाड़ियों का  सुरम्य नैसर्गिक परिवेश । 

      दोनों सरहदों के मिलन -बिंदु के इर्द-गिर्द   कुछ पेड़ आम के भी हैं ,जो इन दिनों गर्मियों में फलों से लदे हुए नज़र आते है। फल अभी पके नहीं हैं। राहगीर कुछ फल चटनी और अचार बनाने के लिए तोड़ भी लें तो यहाँ कोई रोक -टोक नहीं है । यानी लगता है कि ये सार्वजनिक पेड़ हैं। अच्छा भी है। पहले ज़माने में राजा -महाराजा लोग जनता के लिए और कुछ करें या न करें ,लेकिन  सड़कों के किनारे फलदार पौधे जरूर लगवाते थे , जो बड़े होकर राहगीरों को छाया और स्वादिष्ट फल  मुफ़्त में दिया करते थे। ये पेड़ उनके लगवाए हुए हैं या  नहीं ,ये तो मुझे नहीं मालूम ,लेकिन जिन्होंने भी लगवाए होंगे , उनके इस परोपकार की प्रशंसा तो करनी ही चाहिए। उनसे प्रेरणा भी लेनी चाहिए।

    आलेख      -- स्वराज्य करुण 

  

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर

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  2. ओंकार जी , बहुत -बहुत धन्यवाद।

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