( स्वराज करुण )
छपाक ...छपाक ..छपाक ! रात एक बजे हॉस्टल के थर्ड फ्लोर में दक्षिणी कॉरिडोर के अंतिम छोर पर बने बाथरूम के भीतर से यह कैसी आवाज़ आ रही है ? पूरा कॉरिडोर गूँज रहा है ! मैं परीक्षाओं के उस मौसम में बीए फाइनल के तीसरे पर्चे की तैयारी के लिए अपने रूम पार्टनर महेन्द्र के साथ रतजगा कर रहा था । थर्ड फ्लोर में तीन कॉरिडोर और तीस कमरे थे ,लेकिन अधिकांश खाली थे । जिनकी परीक्षाएं हो चुकी थी, वो सब विद्यार्थी अपने -अपने घर चले गए थे । छात्रों की इतनी कम संख्या को देखते हुए मेस की व्यवस्था भी अस्थायी रूप से बन्द कर दी गयी थी । भोजन बाहर किसी होटल से करके आना पड़ता था। हमारी लाइन के दस कमरों में से तो सिर्फ हमारा ही कमरा हम दोनों मित्रों से आबाद था। बाकी पूरे कॉरिडोर में सन्नाटा पसरा हुआ था ।
उस गहराती हुई रात में सिर्फ़ छपाक -छपाक की आवाज़ बीच -बीच में इस ख़ामोशी को तोड़ रही थी । (स्वराज करुण) मैंने महेन्द्र से कहा - लगता है कि हमारा कोई साथी बाथरूम में अपने कपड़े काछ रहा है ।वह रहस्यमयी आवाज़ हर बीस सेंकेंड के अंतराल पर आ रही थी । बीच में बीस सेकेंड का गैप हमारे मन में रह -रह कर एक सवाल खड़ा करता जा रहा था । महेन्द्र ने हैरानी जताई और कहा -इतनी रात भला कौन बाथरूम में कपड़े धोएगा ? हमारी लाइन के तो बाकी सभी कमरे खाली हैं ।फिर भी चलो देखकर आते हैं ,लेकिन दबे पाँव चलना है । चप्पल से चटाक -चटाक की ध्वनि निकलती है । कोई बाहरी व्यक्ति बेजा तरीके से हॉस्टल में घुसकर कपड़े काछ रहा होगा ,तो वह सतर्क हो कर भागने की कोशिश करेगा । हो सकता है कि वह पिस्तौल न सही ,चाकू रखा हो और भागने की कोशिश में हमसे उलझ कर हम पर हमला कर दे । मैंने महेन्द्र से कहा -तुम्हारा सोचना ठीक है । चलो ,खाली पैर चलते हैं । हालांकि कॉरिडोर में बिजली की पर्याप्त रौशनी थी । एक मटमैला बल्ब बाथरूम में भी था ,फिर भी हमने ऐहतियात के तौर पर बैटरी वाला टॉर्च रख लिया था ।
हमारे कमरे से दक्षिणी कॉरिडोर के आख़िरी छोर पर बाथरूम की दूरी करीब 100 फुट रही होगी । हम दोनों हल्के -हल्के कदमों से उस दिशा में बढ़ने लगे । बाथरूम के नज़दीक पहुंचकर हमने देखा कि भीतर अंधेरा था । महेन्द्र ने मेरे कानों में धीमे स्वर में कहा -शायद बल्ब फ्यूज हो गया है । मैंने कहा -हो सकता है । हम दोनों बाथरूम के सामने खड़े हो गए ।कपड़े काछने की आवाज़ हर बीस सेकेंड के अन्तराल पर आ ही रही थी और पहले के।मुकाबले और भी तेज़ होती जा रही थी । ऐसा लगा नल भी खुला हुआ था ।
मैंने दबी आवाज़ से महेन्द्र के कानों में कहा -दरवाज़े पर दस्तक दें क्या ? उसने कहा -ठीक है। मैंने दरवाजे को ढकेला तो लगा कि भीतर से कुंडी लगी हुई है । महेन्द्र ने चिल्लाकर कहा -कौन है ? दरवाज़ा खोलो ! मैंने खटखटाया तो छपाक ..छपाक की आवाज़ बन्द हो गयी । कुछ ही पलों में दरवाज़ा भी खुल गया और मोंगरे की ख़ुशबू वाले इत्र की भीनी महक के साथ हवा का एक झोंका हमें छूकर निकल गया । पूरे बदन में सिहरन दौड़ गयी । हम यह देखकर हैरत में पड़ गए कि भीतर कोई नहीं था और एक बाल्टी में निचुड़े हुए कपड़े रखे हुए थे । टॉर्च जलाकर देखा तो उनमें था एक सफ़ेद पैजामा ,एक सफ़ेद कुर्ता , सफ़ेद बनियान और एक टर्किश टॉवेल । हम उल्टे पाँव अपने कमरे में लौट आए ।
रात के दो बजे गए थे । हमें नींद नहीं आयी । सुबह होने तक कौतूहल मिश्रित चर्चा में मशगूल रहे कि आख़िर वह कौन था ? दूसरे दिन चौकीदार से पूछने पर मालूम हुआ कि हर बुधवार आधी रात के बाद उस बाथरूम में किसी निराकार शख्स के हाथों कपड़े धोने की और मेस में बर्तनों के टकराने की आवाज़ आती है । जिस ज़मीन पर इस प्रायवेट हॉस्टल की यह बहुत बड़ी बिल्डिंग खड़ी है ,वह पहले इस शहर के बाहरी इलाके में एक गाँव के किसी ग़रीब किसान की थी ,जो अब बढ़ती आबादी और शहरी बसाहटों के फैलाव की वजह से नगरीय क्षेत्र में आ गयी है ।उस ज़मीन पर वह धान की खेती करता था । दूसरे किसानों की तरह उसकी खेती भी सिर्फ़ बारिश के भरोसे थी ।
लगभग 30 साल पहले एक बार कमजोर मानसून की वज़ह से भयानक सूखा पड़ गया । उसके एक साल पहले किसान ने अपनी बेटी की शादी के लिए एक महाजन से ब्याज़ में 20 हजार रुपए का कर्ज़ लिया था । ब्याज़ की रकम बढ़ते -बढ़ते मूलधन से कई गुना ज्यादा हो गयी । । वह महाजन के लगातार तगादे से तंग आ गया था । एक दिन महाजन ने उससे कहा -अगर कर्ज़ पटा नहीं सकते तो दो एकड़ का अपना यह खेत मेरे नाम कर दो । तुम्हारा पूरा कर्जा माफ़ हो जाएगा । तगादे की वज़ह से मानसिक संताप झेल रहे किसान को कुछ नहीं सूझा ,तो उसने महाजन की बातों में आकर अपनी ज़मीन उसके नाम कर दी । वह खेत जो उसकी और उसके परिवार की रोजी -रोटी का एक मात्र सहारा था ,वह भी किसान के हाथों से चला गया । शहर में कॉलेजों की संख्या बढ़ती जा रही थी ।महाजन ने अपनी व्यावसायिक बुद्धि से सुदूर भविष्य की सोचकर इस ज़मीन पर हॉस्टल बनवा लिया । किसान अपने परिवार के भरण -पोषण के लिए अपनी ही ज़मीन पर मज़दूरी करने के लिए मज़बूर हो गया । महाजन उससे अपने बंगले की साफ-सफ़ाई से लेकर कपड़े धुलवाने का भी काम करवाने लगा । रसोई का काम भी करवाता था ।
एक दिन वह किसान गले के कैन्सर से पीड़ित हो गया । उसने महाजन के आगे हाथ फैलाया ,लेकिन सिर्फ़ निराशा हाथ लगी । किसान की आँखों मे अंधेरा छा गया । उसने एक बुधवार इसी जगह पर ज़हर ख़ाकर अपनी ज़िन्दगी खत्म कर ली । एक वो दिन था और ये आज का दिन । तब से लेकर अब तक उसकी आत्मा एक निराकार शख्स के रूप में इस हॉस्टल की बिल्डिंग में मंडरा रही है । वह प्रत्येक बुधवार कभी रसोईघर में पहुँचकर बर्तनों को खंगालती रहती है तो कभी बाथरूम में कपड़े धोने के लिए आ जाती है । किसी को नुकसान नहीं पहुँचाती । पिछले बीस साल से ये सिलसिला बदस्तूर जारी है । पता नहीं आगे कब तक चलता रहेगा ?
चौकीदार की बातें सुनकर हम तनाव में आ गए । उसने हम दोनों के माथे पर चिन्ता की लकीरों को पढ़ लिया था । बुजुर्ग चौकीदार ने हमसे कहा -डरने की कोई बात नहीं । वह निराकार शख़्स हॉस्टल के विद्यार्थियों के कमरों में कभी नहीं जाता । उसकी अदृश्य गतिविधियाँ सिर्फ किचन और बाथरूम तक सीमित रहती हैं । बीती रात की उस रहस्यमयी घटना के बाद हम दोनों ने हॉस्टल छोड़ने और शहर में ही किसी बैचलर्स होम में कमरा लेने का मन बना लिया था ,लेकिन चौकीदार ने हौसला बढ़ाया तो हमारी भी हिम्मत बढ़ी और हम दोनों दोगुने उत्साह के साथ परीक्षा की तैयारी में जुट गए । कुछ हफ़्तों बाद जब रिजल्ट आया तो बीए अंतिम की मेरिट लिस्ट के टॉप टेन में हम दोनों का भी नाम शामिल था ,जो अखबारों में भी छपा हुआ था । बीए की पढ़ाई कम्प्लीट होने के बाद हमने हॉस्टल छोड़ दिया और नौकरी की तलाश में इधर -उधर हो गए ।
--स्वराज करुण
(प्रतीकात्मक फोटो : इंटरनेट से साभार )
सु न्दर
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