आलेख : स्वराज करुण
भाषाएं मानव समाज में व्यक्तियों, राज्यों और देशों के बीच परस्पर संवाद का माध्यम होती हैं। आम तौर पर भाषाएं अपने समय की शासन व्यवस्था से कदम मिलाकर चलती हैं। जिस शासन के काम -काज की जो भाषा होती है ,वही उसकी जनता की भी भाषा बन जाती है। हालांकि लोकभाषाओं और बोलियों का अस्तित्व कायम रहता है।
ईस्ट इंडिया कम्पनी के समय को जोड़कर देखें हमारे देश पर अंग्रेजों का शासन लगभग 200 वर्षों तक रहा है। लेकिन यह सुखद आश्चर्य है कि भारत में इतने लम्बे शासन काल के बावज़ूद अंग्रेजों की सरकारी भाषा अंग्रेजी हिन्दुस्तान के आम नागरिकों की भाषा नहीं बन पाई। हमारे यहाँ अंग्रेजी आज भी बमुश्किल पाँच प्रतिशत लोगों की भाषा है। देश की 95 प्रतिशत जनता के लिए आज भी यह एक कठिन और समझ में नहीं आने वाली भाषा है ,जबकि देश की प्रमुख सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी का प्रचलन पूरे देश में है। किसी भी भाषा को सीखने में कोई बुराई नहीं है। देश -विदेश के लोगों से सम्पर्क के लिए और आज के समय में विज्ञान और प्रौद्योगिकी तथा अंतर्राष्ट्रीय काम -काज के लिए यह बहुत जरूरी भी है ,लेकिन दूसरी भाषाओं को सीखते और बोलते हुए हम अपनी भाषाओं को भूल जाएं या उनमें भरपूर शब्द भंडार होते हुए भी बाहरी भाषाओं के शब्दों को जबरन ठूंसते रहें तो क्या यह उचित होगा ?
साहित्य की दृष्टि से यह हमारी 'राष्ट्रभाषा ' और संविधान से मान्यता प्राप्त 'राजभाषा ' है। लेकिन दुःखद और विचारणीय पहलू ये है कि विगत कुछ दशकों में हिन्दी में अंग्रेजी के ऐसे -ऐसे शब्दों की घुसपैठ और भरमार होती जा रही है,जो भारतीय परिवेश में बेहद भावहीन , संवेदनहीन और निरर्थक लगते हैं ! जैसे अंकल और आन्टी , मम्मी , डैडी , मॉम , डैड , ग्रैंड पा , बॉय फ्रेंड और गर्ल फ्रेंड । ऐसे शब्द हमारी संस्कृति को भी बुरी तरह प्रभावित कर रहे है। देश की विभिन्न प्रांतीय भाषाओं में भी यह प्रदूषण कमोबेश आ ही गया है । संचार और प्रचार माध्यमों का भी हमारी भाषाओं पर गहरा असर होता ही है। आधुनिक युग में सिनेमा और टेलीविजन के हिन्दी सहित अन्य भारतीय भाषाओं कार्यक्रमों में भी अंग्रेजी शब्दों की भरमार देखी जा सकती है। चाहे वह कोई समाचार बुलेटिन हो , या फिर आधुनिक जीवन शैली पर आधारित धारावाहिक। राहत की बात यह है कि पौराणिक और ऐतिहासिक कहानियों पर आधारित धारावाहिकों में सरल और शुद्ध हिन्दी का प्रयोग होता है। यह अच्छी बात है।
लेकिन हमारे भारतीय समाज में इधर आजकल एक नया चलन आ गया है - हैलो गाइज और हैलो ड्यूड कहने का ! कितने बनावटी लगते हैं ये शब्द ! अब तो 'ब्रदर' (भाई ) शब्द के स्थान पर 'ब्रो' कहकर काम चलाया जा रहा है। पूरा शब्द बोलने में इन अंग्रेजी वालों को शायद आलस आता है इंग्लैड ,अमेरिका जैसे अंग्रेजी भाषा वाले देशों में भले ही अंग्रेजी के ऐसे शब्द भले ही प्रचलन में हों ,लेकिन हमारे देश में हमारी भारतीय संस्कृति के साँचे के अनुकूल नहीं है और बेहद अटपटे ,हास्यास्पद और बेहूदे लगते हैं ! अधिकांश भारतीय बच्चों को हिन्दी की गिनती और हिन्दी महीनों और सप्ताह के दिनों नाम तक ठीक से याद नहीं । क्या इसके लिए हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली ज़िम्मेदार नहीं है ?
यह बड़े अफ़सोस की बात है कि हमारे यहाँ माता -पिता अपने बच्चों को तहज़ीब सिखाने के नाम पर उन्हें किसी के लिए भी अंकल ,आन्टी सम्बोधित करने को प्रेरित करते हैं , जैसे- बेटा ! अंकल , आन्टी को नमस्ते करो , गुड मॉर्निंग बोलो ! जबकि अगर मैं गलत नहीं कह रहा हूँ तो क्या यह सच नहीं है कि अंकल -आन्टी जैसे शब्दों का इस्तेमाल चाचा -चाची , ताऊ - ताई किसी के लिए भी कर दिया जाता है ? मुझे तो अंग्रेजी के ऐसे शब्द बिल्कुल पथराए हुए लगते हैं , उनमें कोई सौम्यता महसूस नहीं होती !
जरूरत इस बात की है कि हम अंग्रेजी जरूर सीखें ,लेकिन अपनी हिन्दी को तो न भूलें। हिन्दी भाषी प्रान्तों के अलावा यह बात देश के अन्य राज्यों के लोगों के लिए भी है कि वो भी अपने दैनिक जीवन में ,अपने घरों में और स्थानीय समाज में बोलचाल के लिए अपनी प्रादेशिक भाषाओं का ही प्रयोग करें।
सटीक। हम खुद इससे निकलें पहले :)
ReplyDeleteत्वरित टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार ।
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (19-08-2020) को "हिन्दी में भावहीन अंग्रेजी शब्द" (चर्चा अंक-3798) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बहुत -बहुत धन्यवाद आदरणीय शास्त्री जी ।
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