इंसान की ज़िन्दगी में खर्चे ही खर्चे हैं । खर्चो का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं लेता। अगर आप अरबों रुपयों के आर्थिक साम्राज्य वाले नामी गिरामी उद्योगपति हों, करोड़ों की पूँजी वाले बड़े व्यापारी हों, लाखों -करोड़ों रूपयों की मज़दूरी लेने वाले फ़िल्मी आदमी या फ़िल्मी औरत हों तो कोई बात नहीं,खर्च तो आप भी करते हैं, लेकिन आपको कोई फ़र्क नहीं पड़ता, लेकिन निम्न मध्यमवर्गीय, यानी हम जैसों की ज़िन्दगी में खर्चों का कोई ठिकाना नहीं रहता। खर्च करो, तभी ज़िन्दगी की गाड़ी चलती है । जन्म से लेकर अंतिम साँस लेने तक हमारी ज़िन्दगी में खर्चे ही खर्चे हैं । संतान जन्म लेने पर उसके पालन -पोषण का खर्चा, और गृहस्थी चलाने के लिए हर दिन नून ,तेल ,लकड़ी (अब रसोई गैस) का खर्चा तो चलता ही रहता है , कभी रसोई गैस का स्टोव ख़राब हो जाए ,कभी घर के सामने के गेट का पल्ला टूट जाए ,कभी कूलर या सीलिंग फेन बिगड़ जाए , कभी टीव्ही ख़राब हो जाए , बल्ब बदलवाना पड़ जाए , टीव्ही और मोबाइल फोन रिचार्ज करवाना जरूरी हो जाए तो खर्चे उठाने ही पड़ते हैं ।
! हर महीने बिजली बिल का भुगतान करना ही पड़ता है, किराये के मकान में रहते हों तो मकान किराया देना ही पड़ता है । कभी बाइक पकंचर हो जाए या उसकी सर्विसिंग करवानी पड़ जाए ,उसमें पेट्रोल डलवाना पड़ जाए , कभी घर में आटा, दाल, चावल , तेल या रसोई गैस खत्म हो जाए , बाज़ार से साग-भाजी ,आलू ,प्याज लाना पड़ जाए तो भी खर्चा ही खर्चा ।इन सबसे भी राहत मिले तो अचानक किसी को तबियत ख़राब होने पर डॉक्टर की फ़ीस और दवाइयों के लिए जेब ढीली करनी पड़ जाए तो फिर खर्चे ही खर्चे। बच्चों की स्कूल- कॉलेज की फीस और उनकी कापी -पुस्तकों के खर्चे भी इसमें जोड़ लीजिए । रिश्तेदारियों में जाने -आने और शादी -ब्याह में होने वाले खर्चो को भी लिस्ट में शामिल कर लीजिए । अगर आप किसान हैं, तो खेती -किसानी का खर्चा भी ज़िन्दगी के खर्चो की सूची में जोड़ना ही पड़ेगा ।आप अगर कर्मचारी या अधिकारी हैं, व्यापारी हैं, तो इनकम टैक्स में होने वाले खर्चे को भी मत भूलिए ।
यानी ज़िन्दगी में खर्चों की लिस्ट थकने या रुकने का नाम ही नहीं लेती । ऊपर से ये महँगाई भी बिना थके ,बिना रुके बढ़ी चली जा रही है! ये सिलसिला बहुत ज़माने से चला आ रहा है। याद आने लगता है वह पुराना फ़िल्मी गाना -आमदनी अठन्नी ,खर्चा रुपैय्या! या फिर वर्ष 1973 में आयी फ़िल्म रोटी ,कपड़ा और मकान का- 'महँगाई मार गयी ' वाला वह गाना ,जिसकी दो लाइनों में महँगाई का पूरा दृश्य उभर कर आ जाता है -
*पहले मुट्ठी में पैसे लेकर
झोली भर राशन लाते थे ,
अब झोली में पैसे जाते हैं
और मुट्ठी में राशन लाते हैं।*
यानी ऐसा लगता है कि इंसान और महँगाई का रिश्ता बहुत पुराना है। हम 50 साल पहले भी महँगाई की मार सहते हुए रोते-गाते थे और आज भी महँगाई का रोना-गाना चल ही रहा है। कभी -कभी सोचता हूँ - जब से वस्तु विनिमय के स्थान पर वित्तीय मुद्राओं का प्रचलन शुरू हुआ, ये रिश्ता शायद तभी से कायम हुआ है । कहीं यह पूँजीवादी व्यवस्था की देन तो नहीं ? -स्वराज करुणहुआ है । कहीं यह पूँजीवादी व्यवस्था की देन तो नहीं ? -स्वराज करुण
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