Sunday, November 2, 2025

(आलेख )साहित्य -सृजन से भी साकार हुआ सबका सपना (लेखक -स्वराज्य करुण )

 (आलेख ; स्वराज्य करुण


छत्तीसगढ़ प्रदेश की स्थापना के 25 साल पूरे हो गए हैं ।  राज्य  निर्माण का यह रजत जयंती वर्ष है ।परस्पर सहमति और सदभावना के वातावरण में मध्यप्रदेश के पुनर्गठन के जरिए छत्तीसगढ़ प्रदेश का अस्तित्व में आना एक ऐतिहासिक घटना है। आज़ादी के लगभग तिरेपन साल बाद भारत के मानचित्र पर एक नवम्बर सन 2000 को इक्कीसवीं सदी के प्रथम नये राज्य के रूप में और देश के 26 वें नये प्रदेश के रूप में छत्तीसगढ़ का उदय हुआ । 

 नये राज्य के निर्माण में यहाँ के राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ  सांस्कृतिक कर्मियों, पत्रकारों, समाचार पत्र -पत्रिकाओं और साहित्यकारों का भी बराबरी का योगदान रहा है। इसमें  समाज के सभी वर्गों की सराहनीय भूमिका थी ।रायपुर में लम्बे समय तक सबकी भागीदारी से अखंड धरना भी हुआ था, जिसे लोग आज भी याद करते हैं ।  साहित्यिक रचनाओं से राजनीति को भी दिशा मिलती है ।राज्य निर्माण के लिए समय -समय पर हुए राजनीतिक जन आंदोलनों को रचनात्मक ऊर्जा और दिशा देने का महत्वपूर्ण कार्य  छत्तीसगढ़ अंचल के साहित्यकारों की रचनाओं ने किया । 

   इस आलेख में हम छत्तीसगढ़ प्रदेश के निर्माण में साहित्यकारों की  सृजनात्मक भूमिका की चर्चा करेंगे ।किसी भी सार्वजनिक विषय के लिए जन -चेतना के विकास और विस्तार में साहित्य उत्प्रेरक की भूमिका में होता है । हमारे देश के स्वतंत्रता संग्राम में इसके कई उदाहरण मिलते हैं। कविता, कहानी, उपन्यास, लघुकथा, नाटक, निबंध और व्यंग्य जैसी अलग -अलग विधाओं में अपने लेखन के जरिए साहित्यकार जन - भावनाओं को व्यक्त करते हैं ।

 छत्तीसगढ़ पहले  एक भौगोलिक इलाका माना जाता था । यहाँ के विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित लोकगीतों, लोकनृत्यों, लोक नाटकों, ग्रामीण त्योहारों, साहित्यिक रचनाओं और अनेक ऐतिहासिक तथ्यों  से यह प्रमाणित हुआ कि देश के अन्य प्रदेशों की तरह छत्तीसगढ़ भी इस विशाल भारत -भूमि की एक सांस्कृतिक इकाई है और  अलग राज्य के रूप में  इसके उभरने की तमाम संभावनाएँ मौज़ूद हैं  ।

    छत्तीसगढ़ को  राज्य का दर्जा दिलाने का सपना सबका था। यह सपना आम जनता के साथ -साथ यहाँ के साहित्यकार भी बहुत समय से देखते आ रहे थे।  आंचलिक कवियों के गीतों में भी यह जन -भावना ख़ूब झलकती थी । यह कहना गलत नहीं होगा कि विभिन्न विधाओं में साहित्य -सृजन के जरिए साहित्यकारों ने भी सकारात्मक जनमत बनाकर अपने और आम जनता के इस सपने को साकार किया है। भले ही उनमें से कई साहित्यकारों की रचनाओं में छत्तीसगढ़ राज्य की मांग अलग से प्रतिध्वनित नहीं हुई, लेकिन उनके साहित्य में इस अंचल की आम जनता के सुख -दुःख को अभिव्यक्ति मिली । 

  अंचल के लोकगीतों पर, यहाँ की लोक संस्कृति और  यहाँ के रीति -रिवाजों पर,यहाँ की सामाजिक -आर्थिक समस्याओं पर और यहाँ के दर्शनीय स्थलों पर भी साहित्यकारों ने ख़ूब लिखा । उनके लेखन से देश और दुनिया में छत्तीसगढ़ को एक विशेष पहचान मिली और यहाँ का मूल्यवान साहित्य भंडार और भी अधिक समृद्ध हुआ ।साहित्यकारों का सृजन रंग लाया और एक नये राज्य के रूप में सबका सपना साकार हुआ । अनेक साहित्यकार अपने  इस सपने के साकार होने के पहले ही इस भौतिक संसार से चले गए, लेकिन उनकी साहित्य -साधना व्यर्थ नहीं गई ।  छत्तीसगढ़ का रंग- बिरंगा साहित्यिक कैनवास बहुत दूर तक फैला हुआ है । इसमें हिन्दी, छत्तीसगढ़ी और आंचलिक बोलियों की रचनाओं के कई रंग खिलते नज़र आते हैं  । 

  'छत्तीसगढ़ -मित्र' का आगमन

   प्रदेश के साहित्यिक संसार में 'छत्तीसगढ़ -मित्र ' के आगमन से एक नया वातावरण बना, जब 125 साल पहले  पहले वर्ष 1900 के जनवरी महीने में  साहित्यकार पंडित माधव राव सप्रे ने अपने साथी रामराव चिंचोलकर के साथ मिलकर पेंड्रा से इस मासिक पत्रिका का सम्पादन  शुरु किया  । इस अंचल में समाचारों और विचारों के प्रकाशन के लिए यह उस दौर की पहली पत्रिका थी ।  इसके माध्यम से छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता की बुनियाद रखी गई । इसे हम साहित्यिक -पत्रकारिता भी कह सकते हैं, क्योंकि इसमें  मुख्य रूप से साहित्यिक चिंतन पर आधारित रचनाएँ प्रकाशित की जाती थीं ।स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और सहकारिता आंदोलन के प्रमुख नेता वामन राव लाखे इसके प्रकाशक थे । इस पत्रिका का मुद्रण रायपुर के एक प्रिंटिंग प्रेस में होता था ।

बंद होने के 110 साल बाद फिर 

 शुरु हुआ 'छत्तीसगढ़ मित्र

आर्थिक समस्याओं के कारण 'छत्तीसगढ़ मित्र 'का प्रकाशन तीन साल बाद दिसम्बर 1902 में बंद करना पड़ा, लेकिन छत्तीसगढ़ में साहित्य और पत्रकारिता के विकास की राह पर उनका यह ऐतिहासिक प्रयास मील का पत्थर साबित हुआ । लगभग 110  साल बाद नये सिरे से इसका प्रकाशन रायपुर से सितम्बर 2012 में शुरु हुआ  ।  वर्तमान में इसके सम्पादक डॉ. सुशील त्रिवेदी और प्रबंध सम्पादक डॉ. सुधीर शर्मा हैं ।

अलग राज्य की परिकल्पना आधुनिक युग में विगत एक शताब्दी से कुछ पहले भी 

छत्तीसगढ़ की परिकल्पना एक राज्य के रूप में एक शताब्दी से कुछ पहले भी की जाने लगी थी।उन दिनों अपनी पत्रिका 'छत्तीसगढ़ मित्र' की नियमावली में माधव राव सप्रे जी ने इस विशाल अंचल का उल्लेख  'छत्तीसगढ़ विभाग ' के नाम से किया था। यानी सौ साल से अधिक पहले सप्रेजी जैसे विद्वान लेखक ,साहित्यकार और पत्रकार  इस इलाके की सामाजिक -सांस्कृतिक विशेषताओं को देखते हुए इसे  भारत  के एक अलग भौगोलिक विभाग (शायद राज्य )के रूप में देखने लगे थे।उनकी पत्रिका  के तो शीर्षक में ही 'छत्तीसगढ़ 'नाम  जुड़ा हुआ था । इससे भी यह संकेत मिलता है कि सप्रे जी और 'छत्तीसगढ़ मित्र' के  उनके साथियों के मन में भी कहीं  कहीं छत्तीसगढ़ राज्य की परिकल्पना उमड़ -घुमड़ रही होगी 

सप्रे जी की  मर्मस्पर्शी  कहानी 'एक टोकरी भर मिट्टी ' उनकी इस पत्रिका में वर्ष 1901में प्रकाशित हुई थी, जिसे उन दिनों भारत के हिन्दी जगत में काफी प्रशंसा  मिली  । 

वर्ष 1906 के खंड-काव्य 'दानलीला' में 

           भी छत्तीसगढ़ प्रान्त

ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि अंग्रेजी हुकूमत  के दौरान जब यह इलाका सी.पी .एंड बरार (मध्य प्रान्त एवं बरार ) प्रशासन के अधीन था ,उस समय वर्ष 1906 में राजिम क्षेत्र के ग्राम चमसूर निवासी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ,सामाजिक कार्यकर्ता ,कवि और लेखक स्वर्गीय पंडित सुंदरलाल शर्मा ने अपने खंड  काव्य  'दानलीला' में  प्रकाशन स्थल ' सी.पी.एंड बरार प्रान्त  के बदले ' छत्तीसगढ़ प्रान्त ' अंकित करवाया था । इस प्रकार उन्होंने भी छत्तीसगढ़ की परिकल्पना एक अलग प्रान्त (राज्य )के रूप में की थी ।  ललित मिश्रा द्वारा सम्पादित और वर्ष 2007 में  'युग प्रवर्तक : पंडित सुन्दर लाल शर्मा 'शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक में भी इसका उल्लेख है । पंडित सुन्दरलाल शर्मा ने अछूतोद्धार के लिए  जन जागरण में भी ऐतिहासिक भूमिका निभाई । उनका जन्म ग्राम चमसूर में 21दिसम्बर 1881 को हुआ था । निधन 28 दिसम्बर 1940 को हुआ ।

पहला छत्तीसगढ़ी व्याकरण छपा 140 साल पहले 

 छत्तीसगढ़ी भाषा का पहला व्याकरण 140 साल पहले छप चुका था  । यह वर्ष 1885 में प्रदेश के धमतरी नगर में लिखा गया था । इसके रचनाकार थे व्याकरणाचार्य हीरालाल काव्योपाध्याय । अपने महाग्रंथ 'छत्तीसगढ़ गौरव गाथा ' में स्वर्गीय हरि ठाकुर ने प्रदेश की 51 महान विभूतियों के साथ हीरालालजी का भी परिचय दिया है। उन्होंने लिखा है कि छत्तीसगढ़ी व्याकरण की रचना में 'कृष्णायन'  महाकाव्य के रचयिता बिसाहूराम ने भी हीरालालजी को  सहयोग दिया था।  

        लगभग 88 साल पहले आया 

           हल्बी का पहला व्याकरण

   यह भी उल्लेखनीय है कि 'छत्तीसगढ़ी व्याकरण 'के प्रकाशन के  52 साल बाद यानी आज से 88 साल पहले वर्ष 1937 में राज्य के बस्तर अंचल की प्रमुख सम्पर्क भाषा 'हल्बी'का व्याकरण भी सामने आया, जब  'हल्बी भाषा बोध'शीर्षक से इसका प्रकाशन हुआ। जगदलपुर के ठाकुर पूरन सिंह  हल्बी व्याकरण की इस प्रथम पुस्तक के लेखक थे । लगभग आठ दशक बाद वर्ष 2016 में उनके पौत्र और जगदलपुर के वरिष्ठ साहित्यकार विजय सिंह के प्रयासों से इस महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक पुस्तक का दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ । 

 पहला छत्तीसगढ़ी नाटक 

 छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के अध्यक्ष रह चुके, बिलासपुर के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. विनय कुमार पाठक के अनुसार पहला छत्तीसगढ़ी नाटक आज से 120 साल पहले छपा था । उन्होंने अपनी पुस्तक 'छत्तीसगढ़ी साहित्य अउ साहित्यकार 'में लिखा है कि   पंडित लोचन प्रसाद पांडेय के वर्ष 1905 के नाटक 'कलिकाल' को छत्तीसगढ़ी भाषा का पहला नाटक माना जा सकता है ,जिसकी भाषा में  लरिया बोली की छाप मिलती हैउल्लेखनीय है कि लरिया बोली छत्तीसगढ़ के ओड़िशा से लगे रायगढ़ जिले के कई गाँवों में प्रचलित है ।पंडित लोचनप्रसाद पांडेय रायगढ़ के पास ग्राम बालपुर के निवासी थे ,लेकिन रायगढ़ उनका कर्मक्षेत्र रहा।

छत्तीसगढ़ी भाषा का पहला उपन्यास

  रायगढ़ के पास महानदी के किनारे ग्राम बालपुर  के  पाण्डेय बंशीधर शर्मा छत्तीसगढ़ी भाषा के प्रथम उपन्यासकार माने जाते हैं । उन्होंने ' हीरू के कहिनी ' शीर्षक छत्तीसगढ़ी उपन्यास लिखा था, जो आज से लगभग सौ साल पहले वर्ष 1926 में पहली बार प्रकाशित हुआ था ।   उनके इस छत्तीसगढ़ी उपन्यास का  दूसरा संस्करण इसके लगभग 74 साल बाद, वर्ष 2000 में राज्य बनने के सिर्फ़ डेढ़ महीने पहले डॉ. राजू पाण्डेय के सौजन्य से नये स्वरूप में प्रकाशित हुआ। द्वितीय संस्करण का सम्पादन रायगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार ईश्वर शरण पाण्डेय ने किया  । इस छत्तीसगढ़ी उपन्यास में ब्रिटिश युग के गुलाम भारत के छत्तीसगढ़ के गाँवों, किसानों और मज़दूरों की  दुर्दशा का मार्मिक चित्रण है।  छत्तीसगढ़ी भाषा के प्रथम उपन्यासकार पाण्डेय बंशीधर शर्मा का जन्म वर्ष 1892 में और निधन 1971 में हुआ। उनका पुश्तैनी गाँव बालपुर वर्तमान में जांजगीर -चाम्पा जिले में है।

अमर शहीद वीर नारायण सिंह पर पहला उपन्यास

  वर्ष 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ़ संघर्ष में छत्तीसगढ़ की सोनाखान जमींदारी के वीर नारायण सिंह ने भी अपने प्राणों की आहुति दी थी. उनके वीरता पूर्ण संघर्ष और बलिदान पर पहला उपन्यास '1857 सोनाखान ' शीर्षक से वर्ष 2022 में प्रकाशित हुआ । यह उपन्यास रायपुर के वरिष्ठ पत्रकार आशीष सिंह ने लिखा था । विगत 7सितम्बर 2025 को रायपुर स्थित जवाहर लाल नेहरू स्मृति मेडिकल कॉलेज अस्पताल (मेकाहारा )में उनका निधन हो गया । उन्होंने कई महत्वपूर्ण पुस्तकों का लेखन और सम्पादन किया था । उनका लेखन मुख्य रूप से छत्तीसगढ़ की उन महान विभूतियों के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित रहा है ,जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना भरपूर योगदान दिया था।  आशीष छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध साहित्यकार स्वर्गीय हरि ठाकुर के सुपुत्र थे । 

  पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म 

 नाटकों की तरह आधुनिक युग में कथा साहित्य पर आधारित फिल्मों को भी दृश्य -काव्य माना जाता है । इस अंचल में दृश्य -काव्य के रूप में पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म 'कहि देबे सन्देस' वर्ष 1965 में प्रदर्शित हुई। लेखक और निर्माता -निर्देशक मनु नायक की यह फिल्म छुआछूत के खिलाफ़ जन -जागरण के साथ -साथ सहकारिता के महत्व को रेखांकित करती है ।

प्रदेश का पहला हिन्दी व्यंग्य उपन्यास

       रायपुर जिले के ग्राम सकलोर में जन्मे विश्वेन्द्र ठाकुर का व्यंग्य उपन्यास'किस्सा बहराम चोट्टे का ' भी छह दशक पहले ख़ूब चर्चित और प्रशंसित हुआ था । छत्तीसगढ़  में छपा पहला हिन्दी व्यंग्य उपन्यास था ।वर्ष 1962 में प्रकाशित इस  उपन्यास को कुछ विद्वानों ने  स्वतंत्र भारत में हिन्दी का पहला व्यंग्य उपन्यास माना  है । उपन्यास का दूसरा संस्करण तिरेसठ साल बाद इस वर्ष 2025 में प्रकाशित हुआ है, जिसका विमोचन स्वर्गीय विश्वेन्द्र जी के जन्म दिन पर 25 अक्टूबर को रायपुर में किया गया। 

पहले भी ख़ूब हुआ साहित्य सृजन

 छत्तीसगढ़ में साहित्य सृजन राज्य बनने के पहले भी ख़ूब होता था ,आज भी हो रहा है और आगे भी होता रहेगा।  साहित्यकारों के बिना साहित्यिक वातावरण भला कैसे बन सकता है ? जिस लेखन में समाज और संसार की बेहतरी की सोच हो , वही सच्चा साहित्य है। ऐसा साहित्य ही जनमत का निर्माण करता है, जिसके सार्थक नतीजे मिलते हैं । 

साहित्यिक जनमत के उत्साहजनक नतीजे

  साहित्य सृजन से निर्मित सकारात्मक जनमत के तीन प्रमुख उत्साहजनक नतीजे विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।नये राज्य की सरकारों ने भी यहाँ के साहित्यिक -जनमत का सदैव हार्दिक स्वागत किया है । राज्य गठन के सिर्फ़ सात वर्ष बाद विधानसभा में सर्व सम्मति से विधेयक पारित हुआ और प्रदेश सरकार द्वारा वर्ष 2007 में छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा दिया गया । वर्ष 2008 में छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग का गठन हुआ ।छत्तीसगढ़ सरकार ने वर्ष 2019 में सुप्रसिद्ध साहित्यकार स्वर्गीय डॉ. नरेंद्र देव वर्मा के लोकप्रिय छत्तीसगढ़ी गीत 'अरपा पैरी के धार -महानदी हे अपार* को राज्य -गीत का दर्जा दिया  ।डॉ. वर्मा द्वारा वर्ष 1973 में रचित इस गीत में 'छत्तीसगढ़ -महतारी'  की वंदना है । 

राज्य निर्माण आंदोलन में 

साहित्यकारों की भागीदारी

 इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस राज्य के गठन में  राजनीतिक आंदोलनों का अपना ऐतिहासिक महत्व रहा है। छत्तीसगढ़ राज्य के निर्माण के लिए जन आंदोलनों में यहाँ के अनेक साहित्यकारों की सक्रिय भागीदारी थी ।रायपुर के वरिष्ठ साहित्यकार हरि ठाकुर छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण आंदोलन के लिए गठित सर्वदलीय मंच के संयोजक बनाए गए थे । राजिम के संत कवि पवन दीवान भी अपनी कविताओं के माध्यम से लगातार जन -जागरण करते रहे । एक बड़ी संख्या उन साहित्यकारों की भी है , जिन्होंने पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के गठन के लिए किसी आंदोलन में  प्रत्यक्ष रूप से तो हिस्सा नहीं लिया, लेकिन वे अपनी रचनाओं के माध्यम से, परोक्ष रूप से   भी लगातार जन - जागरण में लगे रहे । इन रचनाकारों ने छत्तीसगढ़ की जन - भावनाओं को, यहाँ के आर्थिक पिछड़ेपन को और संभावित राज्य की  साहित्यिक-सांस्कृतिक पहचान को अपनी लेखनी से लगातार  रेखांकित किया । उन्होंने अपनी कविताओं ,कहानियों ,उपन्यासों  नाटकों और अन्य रचनाओं में अंचल की सामाजिक -सांस्कृतिक विशेषताओं को, जनता की आशाओं और आकांक्षाओं  को उजागर किया। परिणामस्वरूप देश के कर्णधारों को भी यह मानना पड़ा कि आंचलिक अस्मिता के साथ छत्तीसगढ़ में भौगोलिक और प्रशासनिक दृष्टि से भी एक अलग राज्य बनने की  तमाम विशेषताएँ मौज़ूद हैं । 

छत्तीसगढ़ जागरण गीत 

 कविताओं  के माध्यम से   छत्तीसगढ़ राज्य आंदोलन को  दिशा देने का एक महत्वपूर्ण प्रयास वर्ष 1977 में हुआ ,जब वरिष्ठ साहित्यकार, भिलाई नगर निवासी स्वर्गीय विमल कुमार पाठक के सम्पादन में आंचलिक कवियों का सहयोगी संकलन 'छत्तीसगढ़ जागरण गीत ' के नाम से सामने आया।  प्रयास प्रकाशन, बिलासपुर द्वारा प्रकाशित इस गीत - संग्रह की रचनाओं से जन - जागरण का शंखनाद  हुआ। 

सीमावर्ती राज्यों का सांस्कृतिक प्रभाव 

  देश के जिन राज्यों ( मध्यप्रदेश , उत्तरप्रदेश , झारखण्ड ,महाराष्ट्र  ओड़िशा ,आंध्रप्रदेश और तेलंगाना )की सीमाएं छत्तीसगढ़ से लगी हुई हैं ,वहाँ की भाषा ,बोली और संस्कृति का प्रभाव यहाँ के जन -जीवन और लोक साहित्य पर भी स्वाभाविक रूप से देखा जा सकता है। इन लोक भाषाओं और बोलियों में लिखने -रचने वाले साहित्यकार भी बहुत हैं, जिनमें से अधिकांश की अभिव्यक्ति अपने अंचल विशेष में ही सीमित रह जाती है। हालांकि अब रेडियो और टेलीविजन के साथ -साथ इंटरनेट आधारित सोशल मीडिया के आधुनिक मंचों से उनके लिए अभिव्यक्ति के नये अवसर  उपलब्ध हुए हैं ।हिन्दी और छत्तीसगढ़ी भाषाओं के साथ सम्बलपुरी ओड़िया (कोसली),  हल्बी ,भतरी , गोंडी ,कुड़ुख , सादरी (सरगुजिहा)जैसी रंग -बिरंगी बोलियों के सम्मोहक संसार को अपने में समाए छत्तीसगढ़ प्रदेश का साहित्य भी विविधताओं से भरपूर है। लेकिन तमाम विविधताओं के बावज़ूद भारतीय संस्कृति की तरह उसकी आत्मा भी एक है।

वर्ष 1956 में युवा कवियों की एक नई शुरुआत

  पिछले कुछ दशकों के यहाँ के साहित्यिक परिदृश्य पर अगर निगाह डालें तो हम देख सकते हैं कि छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों ने व्यावसायिकता के मायाजाल से ऊपर उठकर रचनाएँ लिखीं हैं और स्थानीय स्तर के छोटे -छोटे सामूहिक प्रयासों के जरिए किताबें छपवायी हैं। लेखकों का सहकारी संघ बनाकर रायपुर के कुछ युवा कवियों ने वर्ष 1956 में एक नयी शुरुआत की ,जब उन्होंने 'नये स्वर ' शीर्षक से एक संयुक्त काव्य संग्रह निकाला। इसमें अंचल के छह रचनाकारों -- हरि ठाकुर , गुरुदेव काश्यप चौबे , सतीश चंद्र चौबे ,नारायणलाल परमार ,ललित मोहन श्रीवास्तव और देवीप्रसाद वर्मा 'बच्चू जांजगीरी ' की कविताएँ शामिल हैं।इसके बाद इन्हीं रचनाकारों के संगठन लेखक सहयोगी प्रकाशन  द्वारा  नये स्वर -2 और नये स्वर -3 का भी प्रकाशन किया गया । वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. विनय कुमार पाठक के अनुसार 'नये स्वर ' को छत्तीसगढ़ का 'तार सप्तक' भी कहा जा सकता है ।स्वर्गीय हरि ठाकुर ने ' नये स्वर ' के प्रथम प्रकाशन की अपनी भूमिका में लिखा है -- " हिन्दी साहित्य के इतिहास निर्माण में छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों का गौरवपूर्ण स्थान रहा है । द्विवेदी युग में छत्तीसगढ़ ने भी हिन्दी साहित्य और भाषा को अपनी लेखनी से पुष्ट किया ।उस युग के कुछ साहित्यिकों और कवियों ने पर्याप्त ख्याति प्राप्त की थी।      नये स्वर (प्रथम ) की भूमिका में स्वर्गीय जगन्नाथ प्रसाद भानु , पंडित लोचन प्रसाद पांडेय , मुकुटधर पांडेय , पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी , माधवराव सप्रे , मेदिनी प्रसाद पांडेय , मावली प्रसाद श्रीवास्तव , बलदेव प्रसाद मिश्र ,सुंदरलाल शर्मा ,सैयद मीर अली मीर  आदि अनेक  कवियों और लेखकों की साहित्य साधना का उल्लेख किया गया गया है।  हरि ठाकुर के अनुसार --" स्वर्गीय पंडित सुंदरलाल शर्मा ने हिन्दी और छत्तीसगढ़ी दोनों में अनेक  काव्य ग्रंथ  लिखे।छायावादी युग में भी छत्तीसगढ़ पीछे नहीं रहा ।स्वर्गीय कुंजबिहारी चौबे के काव्य ने छत्तीसगढ़ के मस्तक को बहुत ऊँचा  उठा दिया। स्वर्गीय चौबे का स्वर प्रखरता और विद्रोह से भरा हुआ था ।उनका मूल स्वर प्रगतिवादी था ।स्वर्गीय महादेव प्रसाद 'अतीत' छत्तीसगढ़ के ' निराला ' थे। प्रकाशन के अभाव ने उनकी रचनाओं को निगल लिया ।"  

छत्तीसगढ़ी साहित्य का क्रमबद्ध इतिहास

  वरिष्ठ साहित्यकार ,  भाषा विज्ञानी और छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. विनय कुमार पाठक ने अपनी पुस्तक 'छत्तीसगढ़ी साहित्य अउ साहित्यकार ' में छत्तीसगढ़ी साहित्य के इतिहास को क्रमबद्ध ढंग से प्रस्तुत किया है। यह पुस्तक छत्तीसगढ़ी भाषा में है।बिलासपुर के प्रयास प्रकाशन द्वारा इसका पहला संस्करण वर्ष 1971में, दूसरा संस्करण वर्ष 1975 में और तीसरा संस्करण वर्ष 1977में प्रकाशित किया गया था ।लेखक डॉ. पाठक ने इसके गद्य साहित्य खंड में लिखा है कि आरंग मे प्राप्त सन 1724 के शिलालेख को छत्तीसगढ़ी गद्य लेखन का पहला उदाहरण माना  जा सकता है ।यह कलचुरि राजा अमरसिंह का शिलालेख है ।डॉ . पाठक ने अपने इस लघु शोध ग्रंथ  में छत्तीसगढ़ी गद्य साहित्य की विकास यात्रा को कहानी ,उपन्यास , नाटक और एकांकी ,निबंध और समीक्षा,  अनुवाद और छत्तीसगढ़ी कविता  के क्षेत्र में हुए कार्यों को रेखांकित किया है।    छत्तीसगढ़ी भाषा में रचित  डॉ. विनय कुमार पाठक की लगभग 106 पन्नों की यह छोटी -सी पुस्तक एक महत्वपूर्ण संदर्भ -ग्रंथ है।इसमें उन्होंने छत्तीसगढ़ी साहित्य की विकास यात्रा को क्रमशः मौखिक परम्परा(प्राचीन साहित्य ), आदिकाल मध्यकाल ,चारण काल और वीरगाथा काल से लेकर लिखित परम्परा यानी वर्ष 1900 से अब तक के अलग -अलग काल खंडों में प्रस्तुत किया है।

साहित्यकार डॉ. खूबचन्द बघेल की ऐतिहासिक भूमिका*

  स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और साहित्यकार  स्वर्गीय डॉ. खूबचन्द बघेल  ने  गांधीवादी सत्याग्रह के साथ  अपने  साहित्यिक लेखन के जरिए भी आज़ादी के आंदोलन में ऐतिहासिक योगदान दिया। इसके साथ ही साथ उन्होंने छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के लिए भी जन जागरण के उद्देश्य से  ऐतिहासिक भूमिका निभाई ।उन्हें नये राज्य के स्वप्न-दृष्टा के रूप में सम्मान के साथ याद किया जाता है ।उन्होंने देश की आज़ादी के बाद राज्य निर्माण के लिए संघर्ष को गति देने वर्ष 1956 में राजनांदगांव में 'छत्तीसगढ़ी महासभा 'और वर्ष 1967 में रायपुर में 'छत्तीसगढ़ भातृ संघ ' का गठन किया।वह हिन्दी और छत्तीसगढ़ी ,दोनों ही भाषाओं के विद्वान थे। उन्होंने 'ऊंच -नीच ' , 'करम छड़हा' 'जरनैल सिंह ' और 'लेड़गा सुजान के गोठ ' जैसे लोकप्रिय नाटकों की रचना की।  डॉ. बघेल  साहित्यकार होने के अलावा राजनीतिज्ञ भी थे।  देश की आज़ादी के बाद वर्ष 1947 में बनी प्रांतीय सरकार में उन्हें संसदीय सचिव बनाया गया था ,लेकिन कुछ ही समय बाद  वह इस्तीफ़ा देकर छत्तीसगढ़ की जनता के बीच आ गए ।  वह वर्ष 1951 से 1962 तक विधायक और वर्ष 1967 से  1969 तक  राज्यसभा सांसद भी रहे।  रायपुर जिले के ग्राम पथरी में 19 जुलाई 1900 को जन्मे डॉ. बघेल का निधन 22 फरवरी 1969 को हुआ। 

महाग्रंथ 'गांधी मीमांसा 'के रचयिता पंडित  रामदयाल तिवारी

 रायपुर के साहित्यकार स्वर्गीय पंडित रामदयाल तिवारी ऐसे तपस्वी साहित्यकार थे ,जिन्होंने आज़ादी के आंदोलन के दिनों में वर्ष 1935 में  महात्मा गांधी  के विचारों की समालोचना पर आधारित 36 अध्यायों में लगभग 850 पृष्ठों  के विशाल ग्रंथ ' गांधी  मीमांसा ' की रचना की थी और  पूरे देश का ध्यान छत्तीसगढ़ की ओर आकर्षित किया था। इस ग्रंथ में महात्मा गांधी के विचारों की रचनात्मक समालोचना है।   तिवारीजी का जन्म 23 जुलाई 1892 को रायपुर में हुआ था। वह स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी थे ।  अपने जन्म स्थान और गृहनगर (रायपुर)  में ही 21 अगस्त 1942 को दाऊ कल्याण सिंह अस्पताल में मात्र 50 वर्ष की आयु में तिवारी जी का निधन हो गया। इतनी अल्पायु में ही वह  हिन्दी संसार को अपनी प्रकाशित ,अप्रकाशित रचनाओं का अनमोल खज़ाना सौंप गए। 

  अविस्मरणीय योगदान

छत्तीसगढ़ की आम जनता के सुख -दुःख को और यहाँ के विभिन्न अंचलों की सामाजिक -सांस्कृतिक विशेषताओं को कविता, कहानी, निबंध, व्यंग्य आदि अलग -अलग विधाओं की अपनी  हिन्दी और छत्तीसगढ़ी रचनाओं के माध्यम से सशक्त अभिव्यक्ति देने और राज्य के रूप में इस अंचल की पहचान बनाने में अनेक  साहित्यकारों का अविस्मरणीय योगदान रहा है ।उन सबकी साहित्यिक भूमिका को इतिहास में रेखांकित किया जाएगा । साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए रायगढ़ के पंडित मुकुटधर पाण्डेय, बिलासपुर के पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी और दुर्ग के डॉ. सुरेन्द्र दुबे  को भारत सरकार द्वारा पद्मश्री अलंकरण से सम्मानित किया जा चुका है । दुर्भाग्य से ये तीनों साहित्यिक दिग्गज अब इस दुनिया में नहीं हैं ।

   रायगढ़ के पंडित लोचन प्रसाद पांडेय, बंशीधर पांडेय , बन्दे अली फ़ातमी , आनंदी सहाय शुक्ल , मुस्तफ़ा हुसैन मुश्फिक , गुरुदेव कश्यप, डॉ. राजू पाण्डेय, चिरंजीव दास,डॉ. बलदेव साव और तिलक पटेल , बिलासपुर के हृदय सिंह चौहान,डॉ .पालेश्वर शर्मा ,पण्डित द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र', कपिलनाथ कश्यप और श्रीकांत वर्मा  ',  बस्तर (जगदलपुर )  के  लाला जगदलपुरी ,सोनसिंह पुजारी, रघुनाथ महापात्र ,गुलशेर खाँ  शानी, और ग़नी आमीपुरी, धमतरी के  नारायणलाल परमार ,  इंदिरा परमार, भगवतीलाल सेन ,मुकीम भारती, त्रिभुवन पांडेय और सुरजीत नवदीप,अम्बिकापुर के अनिरुद्ध नीरव और डॉ. कुंतल गोयल और दुर्ग के कोदूराम दलित , डॉ. हनुमंत नायडू 'राजदीप ', विमल कुमार पाठक ,रघुवीर अग्रवाल 'पथिक'  , मुकुंद कौशल और दानेश्वर शर्मा का साहित्य -सृजन भी बहुत लोकप्रिय रहा है । बागबाहरा के  प्रभंजन शास्त्री,गजेन्द्र तिवारी , हरिकृष्ण श्रीवास्तव और मेहतर राम साहू ,महासमुंद के चेतन आर्य और लतीफ़ घोंघी ,राजिम  के पवन दीवान ,कृष्णा रंजन, पुरुषोत्तम अनासक्त और लक्ष्मण मस्तुरिया  ,रायपुर के  केयूर भूषण ,हरि ठाकुर ,डॉ. नरेन्द्रदेव वर्मा ,आशीष सिंह, बद्रीविशाल परमानंद ,हेमनाथ यदु ,डॉ. मन्नूलाल यदु ,विनोदशंकर शुक्ल , स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी , रूप नारायण वर्मा 'वेणु ', मधुकर खेर , रमेश नैयर,प्रभाकर चौबे ,विभु कुमार ,मायाराम सुरजन,ललित सुरजन ,  देवीसिंह चौहान ,डॉ. राजेन्द्र सोनी और   सुशील यदु भी अपनी हिन्दी और छत्तीसगढ़ी भाषाओं की रचनाओं के लिए याद किए जाते हैं ।

 बालोद के सलीम अहमद ' जख़्मी बालोदवी, 'कोंडागांव के हरिहर वैष्णव तथा  पिथौरा के अनिरुद्ध भोई और  मधु धांधी सहित विभिन्न क्षेत्रों के  कई  बेहतरीन रचनाकार हुए, जिनकी रचनाओं की अपनी ही रंगत है ।

 राजनांदगांव जिला  साहित्य के तीन महारथियों की कर्मभूमि के रूप में प्रसिद्ध है । डॉ. पदुमलाल पुन्नालाल बख़्शी , डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र और गजानन माधव मुक्तिबोध ने इस कस्बाई शहर में रहकर अपनी सुदीर्घ साहित्य साधना से राष्ट्रीय स्तर पर छत्तीसगढ़ का नाम रौशन किया। धमतरी जिले के मगरलोड निवासी वरिष्ठ कवि (स्वर्गीय )डॉ. दशरथ लाल निषाद 'विद्रोही' ने आंचलिक खान -पान , रीति -रिवाज और जीवन शैली सहित छत्तीसगढ़ की सामाजिक -सांस्कृतिक विशेषताओं पर  कई पुस्तकों की रचना की है। 

        वर्तमान दौर के साहित्यकार

छत्तीसगढ़ के विभिन्न क्षेत्रों में साहित्य की विभिन्न विधाओं में सृजनशील रचनाकारों की एक लम्बी सूची बन सकती है । इनमें उपन्यास, कहानी, कविता,निबंध, नाटक, लघुकथा और व्यंग्य  आदि सभी विधाओं के साहित्यकार शामिल किए जा सकते हैं ।  वर्तमान दौर के प्रमुख और सक्रिय साहित्यकारों में भिलाई नगर के डॉ. परदेशी राम वर्मा, रवि श्रीवास्तव, कनक तिवारी,विनोद साव, शरद कोकास,ललित कुमार वर्मा, लोक बाबू, नासिर अहमद सिकंदर विनोद मिश्र और मुमताज़, दुर्ग के  अरुण कुमार निगम ,संजीव तिवारी,कमलेश चंद्राकर, दीनदयाल साहू, विजय वर्तमान ,बलदाऊ राम साहू , ठाकुरदास ' सिद्ध ', दीक्षा चौबे,और संजय दानी भी हैं । रा

रायपुर के विनोद कुमार शुक्ल, डॉ. चित्तरंजन कर , संजीव बख्शी, रामेश्वर वैष्णव ,गिरीश पंकज ,डॉ. सुशील त्रिवेदी, डॉ. सुधीर शर्मा,  परमानंद वर्मा ,डॉ. संकेत ठाकुर, शीलकांत पाठक, जीवेश प्रभाकर, अनिल कुमार शुक्ला, जयप्रकाश मानस ,रमेश अनुपम, चेतन भारती,  जागेश्वर प्रसाद ,भगतसिंह सोनी,  राजेन्द्र ओझा, मीर अली 'मीर', रामेश्वर शर्मा , सुशील भोले, अनिल भतपहरी, शकुंतला तरार,अनामिका शर्मा, मृणालिका ओझा, अखतर अली,केवल कृष्ण, आनन्द हर्षुल और डॉ. माणिक विश्वकर्मा 'नवरंग ',खैरागढ़ के डॉ.जीवन यदु 'राही' और संकल्प पहाटिया, महासमुंद के अशोक शर्मा, ईश्वर शर्मा, श्लेष चंद्राकर और बंधु राजेश्वर खरे, तुमगांव के शशि कुमार शर्मा, भाटापारा के बलदेव सिंह भारती, हथबंध (भाटापारा ) के चोवाराम वर्मा 'बादल 'और अभनपुर के ललित शर्मा (कुमार ललित ) की साहित्यिक सृजनशीलता भी प्रभावित करती है  । 

      गंडई पंडरिया के डॉ. पीसीलाल यादव,  कवर्धा के गणेश सोनी 'प्रतीक ' पांडुका के काशीपुरी कुंदन तथा नगरी (जिला -धमतरी )की डॉ. शैल चंद्रा और उसी क्षेत्र की श्रीमती अमिता दुबेराजिम के दिनेश चौहान, प्रिया देवांगन 'प्रियू ', राजिम के पास के ग्राम कोमा मांझी अनंत,  पथिक तारक,  पलारी के पोखन लाल जायसवाल और पूरन जायसवाल, बालको नगर (कोरबा )के जीतेन्द्र वर्मा 'खैरझिटिया ' धमतरी के रंजीत भट्टाचार्य, निकष परमार, सरिता दोशी और डुमनलाल ध्रुव, बिलासपुर के डॉ. विनय कुमार पाठक, राघवेंद्र दुबे, डॉ. विवेक तिवारी, केशव शुक्ला और देवधर दास महंत की साहित्य साधना भी अनवरत चल रही है । 

    अम्बिकापुर के विजय गुप्त, श्याम कश्यप 'बेचैन'  श्रीश मिश्रा और उमाकांत पाण्डेय,रायगढ़ के कस्तूरी दिनेश, बसंत राघव,हरकिशोर दास, रमेश शर्मा,  सनत कुमार और प्रकाश गुप्ता 'हमसफ़र '  कोसीर (सारंगढ़)के लक्ष्मीनारायण लहरे 'साहिल ',खैरागढ़ के डॉ.जीवन यदु 'राही ', संकल्प पहटिया,  जांजगीर के सतीश कुमार सिंह और विजय राठौर ,बागबाहरा के रजत कृष्ण,  पीयूष कुमार, रूपेश तिवारी और धनराज साहू, बसना के बद्रीप्रसाद पुरोहितऔर मीनकेतन दास, पिथौरा के शिवशंकर पटनायक,स्वराज्य करुण तथा प्रवीण प्रवाह भी अपनी -अपनी विधाओं में साहित्य सृजन में लगे हुए हैं। इन रचनाकारों के अलावा भी प्रदेश के विभिन्न इलाकों के अनेक कवि और  लेखक  छत्तीसगढ़ के जन-  जीवन को, यहाँ की जनभावनाओं को और  माटी की महिमा को विभिन्न विधाओं की अपनी रचनाओं में लगातार स्वर दे रहे हैं ।मगरलोड के वरिष्ठ  साहित्यकार पुनुराम साहू 'राज ' विगत कई दशकों से छत्तीसगढ़ी साहित्य सृजन के लिए समर्पित हैं ।  मगरलोड के पास ग्राम बोड़रा निवासी वीरेन्द्र सरल व्यंग्य लेखन में सक्रिय हैं और 'कार्यालय तेरी अकथ कहानी 'जैसे अपने कई प्रकाशित व्यंग्य संग्रहों के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुए हैं ।जगदलपुर (बस्तर )के विजय सिंह, हिमांशु शेखर झा और सुभाष पाण्डेय ने हिंदी नई कविताओं के सृजन में अपनी नई पहचान बनायी है।जगदलपुर के ही जोगेन्द्र महापात्र जैसे कई वरिष्ठ रचनाकार अपनी साहित्य साधना से हल्बी और भतरी सहित वहाँ की  लोकभाषाओं को लगातार  समृद्ध बना रहे हैं  । राजिम के पास ग्राम कोमा में पले-बढ़े एकांत श्रीवास्तव ने हिन्दी नई कविताओं में राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की है  । बस्तर संभाग की लौह अयस्क नगरी  बचेली में जन्मे राजीव रंजन प्रसाद  वर्तमान में फ़रीदाबाद स्थित भारत सरकार के उपक्रम राष्ट्रीय जल विद्युत निगम (एन. एच. पी. सी.)में वरिष्ठ प्रबंधक के पद पर कार्यरत हैं। उन्होंने बस्तर अंचल की पृष्ठ भूमि पर 'आमचो बस्तर'जैसे प्रसिद्ध उपन्यासों की रचना की है । 

       सपना तो साकार हुआ, लेकिन अब आगे क्या?

  छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों ने वर्षों पहले जो सपना देखा था , पच्चीस वर्ष पहले  राज्य निर्माण के साथ ही वह साकार हो गया है।लेकिन साकार हुए इस सपने को सार्थकता तभी मिलेगी ,जब हम इस प्रश्न पर विचार करेंगे कि यह सपना आख़िर किसके लिए था ?निश्चित रूप से यह उस विशाल जन समुदाय का सपना था ,जिसमें लाखों -लाख किसानों और मज़दूरों सहित जनता का हर वह मेहनतकश तबका शामिल है ,जिसे मिलाए बिना छत्तीसगढ़ प्रदेश का नक्शा बन ही नहीं सकता था। छत्तीसगढ़ महज एक राज्य नहीं , बल्कि एक बहुरंगी संस्कृति है।बस्तर से सरगुजा तक , दुर्ग से सरायपाली तक , महानदी से इन्द्रावती तक ,राजिम से रतनपुर तक ,रायपुर से रामानुजगंज तक , महासमुंद से मनेन्द्रगढ़ तक ,  और मैनपाट से बैलाडीला तक  हजारों -हजार रंगों से सुसज्जित है  इस विशाल धरती का  आंचल ।  रंग -बिरंगी बोलियाँ हैं ,इन्द्रधनुषी लोकगीत हैं ,सबका अपना -अपना लोक साहित्य है,सम्मोहक छटा बिखेरते लोकनृत्य हैं ,मेले -मड़ई हैं, तीज -त्यौहार हैं । हर गाँव के अपने ग्राम देवता और ग्राम देवियां हैं । आधुनिकता की अंधाधुंध रफ़्तार वाली हृदय विहीन पाषाण -संस्कृति के फैलते मायाजाल के बावज़ूद ,छत्तीसगढ़ की यह बहुरंगी मानवीय संस्कृति हम सबकी एक अनमोल धरोहर है ।इसे संभाल कर रखने और पहले से भी ज़्यादा सजाने और संवारने की जरूरत है ।

आलेख -स्वराज्य करुण 

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