(आलेख - स्वराज्य करुण )
क्या भारतीय शहरों का बेतरतीब यातायात कभी सुधर पाएगा ? विकसित देशों की साफ़-सुथरी ,चौड़ी ,चमचमाती सड़कों और उनमें अनुशासित ढंग से आती -जाती गाड़ियों की तस्वीरें देखकर हमें ईर्ष्या होने लगती है कि ऐसा हमारी किस्मत में क्यों नहीं है ? लगता है कि आधुनिक युग की मशीनी ज़िन्दगी ने भारत की सड़कों पर मशीनों से चलने वाले दोपहिया और चार पहिया वाहनों की संख्या में ऐसा इज़ाफ़ा किया है कि इन गाड़ियों की संख्या देश की जनसंख्या से भी ज़्यादा हो गई है। शहरों की अंदरूनी सड़कों पर वाहनों की भीड़, इंसानों की भीड़ और आवारा जानवरों के बीच फँस जाने पर आड़े तिरछे होकर अपनी गाड़ी निकालने की कोशिश एक अलग तरह का तनाव और झल्लाहट पैदा करती है। तब लगता है कि देश में वाहनों की संख्या को नियंत्रित करने के लिए कम से कम पाँच साल तक ऑटोमोबाइल सेक्टर को बंद रखना चाहिए। हालांकि मुझे भी मालूम है कि व्यावहारिक दृष्टि से यह असंभव है। आसान शर्तो और बेहद किफ़ायती दरों पर बैंक लोन की योजनाएँ भी इन गाड़ियों की आबादी बढ़ाने में अपना भरपूर सहयोग दे रही हैं।
शासन -प्रशासन की तमाम कोशिशों के बावज़ूद आम जनता में ट्रैफिक नियमों का पालन नहीं करने की प्रवृत्ति ख़त्म होती नज़र नहीं आ रही है। जन -सहयोग के बिना कोई भी सार्वजनिक सुधार संभव नहीं है। अस्त व्यस्त यातायात के बीच कई बार जानलेवा हादसे भी हो जाते हैं। देश में हर साल सड़क दुर्घटनाओं में लाखों इंसान मौत का शिकार हो जाते हैं । उनके परिवारों पर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ता है। लाखों लोग गंभीर रूप से घायल हो जाते हैं। जब सड़कों पर वाहनों से चलने फिरने के लिए भी टैक्स लिया जाता है तो उन सड़कों को इंसानों के लिए सुरक्षित भी बनाया जाना चाहिए। यह भी सच है कि कई बार रफ ड्राइविंग , वाहनों की तेज रफ़्तार और नशे में वाहन चलाने की वज़ह से भी गंभीर दुर्घटनाएँ हो जाती हैं। ऐसे में दोषी वाहन चालकों को पकड़ कर उन पर कड़ी कानूनी कार्रवाई की जानी चाहिए। यातायात के नियम और कानून आम जनता की सुरक्षा के लिए हैं। सभी लोगों को इनका पालन करना चाहिए।
लेकिन सम्पन्न लोगों की आदतें भी अज़ीब हो गई हैं। घरों में पार्किंग की जगह नहीं है ,फिर भी बड़ी -बड़ी गाडियाँ ख़रीदकर वो अपने वैभव और अहंकार प्रदर्शन के लिए उन्हें मोहल्लों की या कॉलोनियों की सार्वजनिक सड़कों पर खड़ी करते हैं। कर लो ,जो करना है ! फोर लेन ,सिक्स लेन की सड़कें तो काफी अच्छी बनी हैं और बन भी रही हैं ,लेकिन शहरों के बीच उनके किनारों की सर्विस लेन पर छोटे दुकानदारों , मोटर मैकेनिकों और गैरेजों का अवैध कब्जा एकाध अपवाद छोड़कर हर शहर में देखा जा रहा है। उनके लिए अलग से कोई व्यवस्था की जानी चाहिए । कई फोर लेन और सिक्स लेन सड़कों के डिवाइडरों में रेलिंग नहीं है , इन डिवाइडरों में लगे पेड़ पौधों की पत्तियों को खाने आसपास के गाँवों के मवेशी वहाँ मंडराते रहते हैं और कई बार दुर्घटनाओं का कारण बन जाते हैं।
कई महानगरों में तो ट्रेन या विमान पकड़ने के लिए लोगों को तीन - चार घंटे पहले घर से निकलना पड़ता है ,ताकि रास्ते में लम्बे ट्रैफिक जाम में फँस न जाएं और ट्रेन या फ्लाइट न छूट जाए। किसी गंभीर मरीज़ को अस्पताल पहुँचाना है तो कई बार लम्बे ट्रैफिक जाम की वजह से एम्बूलेंस भी आगे नहीं बढ़ पाते और मरीजों की हालत चिंताजनक होने लगती है। देश के अधिकांश औद्योगिक क्षेत्रों में भी यातायात सिस्टम काफी अव्यस्थित नज़र आता है। ट्रैफिक जाम की वज़ह से दफ्तरों के कर्मचारियों , छोटे कारोबारियों, स्कूल- कॉलेजों के अध्यापकों और विद्यार्थियों , यानी हर किसी को अपने कार्यस्थल तक पहुँचने में देर हो जाती है। कई सड़कों के किनारे साग-सब्जियों के बाज़ार लगते हैं । उनसे भी शाम के समय अत्यधिक भीड़ के कारण यातायात प्रभावित होता है। ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए अधिकांश दुकानदार अपनी दुकानों का सामान सामने की सड़कों पर सजाकर रखते हैं। ज़ाहिर है कि यातायात बेतरतीब होगा ही। भारतीय शहरों की सड़कों पर अस्त -व्यस्त यातायात हम सबके लिए एक गंभीर राष्ट्रीय समस्या बन गई है। हो सकता है कि कुछ अन्य देशों के ट्रैफिक की हालत भी हमारे जैसी हो ,लेकिन चूंकि हम अपने देश के निवासी हैं ,इसलिए हम तो अपने यहाँ की बात करेंगे। -- आलेख - स्वराज करुण
(फोटो : इंटरनेट से साभार )
हार्दिक आभार।
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