-- स्वराज करुण
सौ बात की एक बात । अगर बाज़ार में बेतहाशा महँगाई और बेहिसाब मुनाफ़ाख़ोरी पर अंकुश लगाना है तो पैक्ड वस्तुओं पर अधिकतम खुदरा विक्रय मूल्य के साथ ;साथ अधिकतम खुदरा लागत मूल्य छापना भी कानूनन अनिवार्य कर देना चाहिए । आज हम और आप किसी भी दुकान से साबुन ,टूथपेस्ट और मेडिकल स्टोर से दवाइयाँ खरीदते हैं तो भुगतान के समय उन पर छपे एमआरपी (Maximum Retail Price ) देखकर सन्तुष्ट हो जाते हैं कि चलो छपी हुई कीमत के अनुसार ही हमसे राशि ली गयी है । लेकिन उस वक्त हमारे मन में यह सवाल नहीं आता कि हमने जो सामान खरीदा है ,उसके निर्माण या उत्पादन में अधिकतम कितनी लागत आयी है ?
वैसे भी जब उस पैक्ड या डिब्बाबन्द सामान पर यह नहीं छपा है तो हमें पता भी कैसे चलेगा ? उत्पादकों और निर्माताओं द्वारा लागत मूल्य को बड़ी चतुराई से गोपनीय रखा जाता है । ऐसा क्यों होना चाहिए ?लागत मूल्य गोपनीय क्यों रहे ? जानकार लोग बताते हैं कि अधिकांश ऐसी वस्तुएं उनकी प्रति यूनिट उत्पादन -लागत से कई गुना ज्यादा कीमत पर बेची जाती हैं । कुछ अपवाद ज़रूर हो सकते हैं ,लेकिन अधिकांश मामलों में लागत मूल्य की यह गोपनीयता ही बाज़ार में मनमाने मुनाफ़े के साथ महँगाई को कायम रखती है । सूचना के अधिकार के इस युग में वस्तुओं के लागत मूल्यों में पारदर्शिता क्यों नहीं है ? क्या इसके लिए कोई कानून नहीं है ? अगर नहीं है तो ऐसा कोई कानून बनाया जाना चाहिए ,जिसमें निर्माताओं और उत्पादकों के लिए अपने हर पैक्ड आइटम में विक्रय मूल्य के साथ लागत मूल्य भी प्रिंट करना बन्धनकारी हो । यह कानून साइकिल मोटरसाइकिल , कार , ट्रक ,ट्रेक्टर , टीव्ही ,फ्रीज़ जैसी वस्तुओं और विभिन्न चिकित्सा उपकरणों पर भी लागू होना चाहिए ।
मैं यह कदापि नहीं कह रहा कि उद्योग अथवा व्यापार -व्यवसाय में मुनाफ़ा बिल्कुल भी नहीं कमाना चाहिए । मेरा कहना है कि लागत मूल्य और विक्रय मूल्य के बीच एक तर्कसंगत अनुपात होना चाहिए ,लेकिन यहाँ तो ज़मीन -आसमान का अंतर नज़र आता है ।
हममें से हर व्यक्ति एक उपभोक्ता है । वह अपने लिए और अपने घर -परिवार के लिए प्रतिदिन किसी न किसी वस्तु को खरीदता ही है । उपभोक्ता होने के नाते हमको और आपको किसी भी पैक्ड वस्तु के अधिकतम खुदरा विक्रय मूल्य के साथ उसकी अधिकतम उत्पादन लागत के बारे में जानने का अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए ? मेरे ख़्याल से यह उपभोक्ता अदालतों (उपभोक्ता फोरमों ) के लिए भी एक विचारणीय विषय हो सकता है। बशर्ते हममें से हर कोई अपने -अपने जिले के उपभोक्ता फोरम में आवेदन करें ,जो सादे कागज़ पर भी किया जा सकता है । प्रमाण के रूप में किसी भी पैक्ड वस्तु के डिब्बे या कव्हर को ,जिस पर एमआरपी छपा हो, ,संलग्न किया जा सकता है ।
लगभग तीन दशक पहले मैंने अखबारों में 'सम्पादक के नाम पत्र " और 'लोकवाणी' जैसे कॉलमों में अपने पत्रों के माध्यम से इस विषय को उठाया था , जिस पर प्रतिक्रिया स्वरूप पाठकों के बीच लम्बी बहस चली थी । इसे लेकर चर्चा -परिचर्चा के रूप में अख़बारों में पाठकीय पत्रों का प्रकाशन कई महीनों तक होता रहा । उसकी बहुत ;सी कतरनें आज भी मेरे पास सुरक्षित हैं । उन दिनों फेसबुक और वाट्सएप जैसे माध्यम नहीं थे । इसलिए बहस सिर्फ़ अख़बारो तक सीमित रह गयी थी । अब तो सोशल मीडिया का दौर आ गया है । इस विषय पर अब और भी ज्यादा विस्तार से विचार - विमर्श हो सकता है ।
-- स्वराज करुण
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