Friday, June 7, 2019

(आलेख ) हाथी अब नहीं इंसानों के साथी !

                                          - स्वराज करुण 
         बिना महावत के  हाथी उद्दंड तो होंगे ही । महावत हाथी की पीठ पर बैठकर उसे शहरों और गाँवों सड़कों पर आसानी से घुमाता है और बच्चे , युवा और बुजुर्ग ,सभी उसे बड़ी उत्सुकता से और बड़े उत्साह से देखते हैं । कई बार तो महावत नन्हें बच्चों को  हाथी पर बैठाकर कुछ दूर तक सैर भी करवा देता है । हाथी पहले राजा -महाराजाओं की फ़ौज में भी हुआ करते थे । चूंकि कुशल महावत उन्हें नियंत्रित करता था , इसलिए वो कंट्रोल में रहते थे । सर्कस के विशाल तंबुओं में भी हमने उन्हें रिंग मास्टर या महावत  के हंटर और इशारों पर तरह -तरह के करतब करते देखा है ।
      लेकिन बगैर महावत का हाथी आतंक का पर्याय बन जाता है । यही कारण है कि जंगली हाथियों का उपद्रव बिहार ,झारखण्ड ,उत्तरप्रदेश,उत्तराखण्ड  ,छत्तीसगढ़,ओड़िशा  और मध्यप्रदेश में तेजी से बढ़ता जा रहा है । अब समस्या ये है कि इतने महावत लाएँ कहाँ से ? एक पुरानी हिन्दी  फ़िल्म है -हाथी मेरे साथी । लेकिन अब हालत ये है कि हाथी मेरे साथी न होकर मेरे , यानी इंसानों के जानी दुश्मन बन गए हैं । सरकारों के तमाम गंभीर प्रयासों के बावज़ूद इन आवारा हाथियों का बेकाबू होते जाना चिन्ता और चिन्तन का विषय बन गया है ।
     इंसानों को ये जंगली हाथी सूंड़ से पटक -पटक कर और पैरों से कुचल -कुचल कर जान से मार रहे हैं । अभी छत्तीसगढ़ से एक भयानक समाचार आया कि खेत में झोपड़ी बनाकर फसल की रखवाली कर रहे एक किसान को  हाथियों ने कुचल कर मार डाला ।  हालांकि ऐसे दुःखद प्रकरणों में मृतकों के परिवारों को सरकार पूरी सहृदयता और संवेदनशीलता के साथ उचित मुआवजा भी देती है । लेकिन मानव जीवन अनमोल होता है। जो चला गया ,वो तो लौटकर आने वाला नहीं ।  सरकारी मदद से उसके परिवार को तत्काल कुछ राहत मिल जाती है । फिर भी हमारी कोशिश हो कि हाथियों का उपद्रव इंसानों के लिए प्राणघातक न होने पाए । 
          इंटरनेट पर सर्च करें तो पता चलता है कि  जंगली हाथियों का  आतंक देश के बहुत से राज्यों में फैल  चुका है । उत्तराखंड  के  हरिद्वार में भी उनकी धमक  महसूस  की गयी है । देश के नये --नये इलाकों में इनकी बेकाबू   घुसपैठ बढ़ती जा रही है । कई बार तो ये शहरी बसाहटों के आसपास भी देखे जा रहे हैं ।  हरे -भरे जंगलों  का कम होते जाना और बचे -खुचे जंगलों में इनके लिए पर्याप्त चारे -पानी का नहीं होना इसकी  एक प्रमुख वज़ह मानी जा रही है ।
         आख़िर क्या , कब और कैसे  हो सकता है  इस गंभीर समस्या का समाधान ?
           -- स्वराज करुण
 (तस्वीर : Google से साभार )

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (08-06-2019) को "सांस लेते हुए मुर्दे" (चर्चा अंक- 3360) (चर्चा अंक-3290) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. आदरणीय शास्त्रीजी ! बहुत -बहुत धन्यवाद ।

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