कहाँ तुम चले गए ?
अपनी सायकल या मोटर सायकल पर सर्दी-जुकाम,बुखार की दवाइयों से भरे काले रंग का बैग लेकर घर-घर जाने वाले , घड़ी-दो घड़ी उन घरों के लोगों के साथ खटिया पर ,नहीं तो पटिये पर बैठ कर चाय सुड़कने , सुख-दुःख की बातें करने और बच्चों और बुजुर्गों से उनकी सेहत का हाल-चाल पूछने वाले , किसी की भी सेहत के प्रति जरा सी लापरवाही दिखने पर अभिभावक की तरह प्यार भरा गुस्सा दिखाने और नसीहत देने वाले , दो चार , पांच रूपए की अपनी बकाया फीस यूं ही छोड़ देने वाले, हम सबके अपने वो घरेलू डॉक्टर अब कहीं नज़र क्यों नहीं आते ? महाजनी सभ्यता की चमक- दमक में क्या उन्होंने अपना चोला बदल लिया है ? क्या अब वो गली-कूचे के हमारे घरों की ओर देखना भी अपनी शान के खिलाफ मानते हैं ? क्या आज-कल वो मेडिकल कॉलेजों से लाखों रुपयों की डिग्री लेकर और आलीशान इमारतों में अपने महंगे से महंगे नर्सिंग होम खोल कर लोगों की सेहत का व्यापार कर रहे हैं?
ज्यादा नहीं, शायद बीस -पच्चीस बरस पहले तक हर गाँव-कस्बे में हर एक घर तक घरेलू डॉक्टरों की अपनी पहचान ,प्रतिष्ठा और पहुँच थी . मोहन के पिताजी रजिस्टर्ड मेडिकल प्रेक्टिशनर थे . आस-पास के कम से कम पचास गाँवों में लगभग प्रत्येक परिवार में उनका उठना -बैठना होता था . वो हर सुबह चार बजे अपनी सायकल से निकलते और दस बजे तक पांच-छह गाँवों का दौरा निपटा आते . वह बताते थे कि मुंह -अँधेरे कई बार जंगल के रास्तों में बाघों और भालुओं से भी उनका आमना-सामना हो जाता था . ग्रामीणों के बीच एक सहज-सरल डॉक्टर के रूप में वह काफी लोकप्रिय हो गए थे . उनके अनुभवी हाथों की दवाइयां मरीजों को काफी आराम दिलाती थीं . आज भले ही लंबी-चौड़ी डिग्रियों के मालिक बने डॉक्टर ऐसे सहज-सरल विलुप्तप्राय घरेलू डॉक्टरों को 'झोला छाप' कह कर उनका मजाक उड़ाते हों ,लेकिन लाखों-करोड़ों गरीब-मेहनतकशों के समाज में उनकी जो अहमियत थी ,उसे भला कौन नकार सकता है ?
समाज में प्रत्येक परिवार से हर घरेलू डॉक्टर का आत्मीय जुड़ाव हुआ करता था . हर घर की नब्ज पर उसकी प्यार भरी पकड़ रहती थी. उसे देखते ही घर के लोग सादगी भरी आत्मीयता से उसका स्वागत करते -- आइये डाक्टर साहब ! अरे पप्पू ! चाय लाना डाक्टर चाचा के लिए ! 'डाक्टर साहब कहने लगते - आज रहने दीजिए ! शर्मा जी के घर से चाय पी कर इधर ही चला आ रहा हूँ ! क्या हाल है ? तबीयत तो ठीक है न सबकी ? चुन्नू ने पेन्सिल और मुन्नी ने मिट्टी खाना बंद नहीं किया ? कितनी बार कहा है मैंने ! इन पर ध्यान तो दीजिए आप लोग ! वरना इनके पेट में कीड़े हो जाएंगे ! अच्छा चलो , मै देता हूँ ये दवाई ! दिन में दो बार बिल्कुल टाइम से खिला देना ! हाँ ,तो गुड्डू इस बार मेट्रिक की परीक्षा में बैठ रहा है ! आगे क्या करने का इरादा है ? श्यामू अभी-अभी टायफाइड से उठा है, कुछ दिनों तक परहेज से रहना बेटा और हाँ !गुड़िया के लिए जलगांव वालों का रिश्ता पक्का हुआ या नहीं ? अच्छा तो अब चलूँ ! गोपाल के घर भी जाना है !
अब कहाँ सुनने को मिलती है ऐसी अपनेपन की बातें ? अब तो हर कहीं डॉक्टरों की अपनी-अपनी दुकानें खुल गयी हैं. इलाज कराने वहाँ जाने से पहले अपनी बुकिंग करानी होती है., समय लेना होता है. पहले किसी के भी घर से किसी के बीमार होने का सन्देश मिलते ही घरेलू डाक्टर स्वयम दौड़कर वहाँ पहुँच जाते थे .आज तो हममें से अधिकाँश लोग किसी डॉक्टर को मरीज देखने घर पर बुलाने की हिम्मत भी नहीं कर पाएंगे . जाने कहाँ गए वो दिन जब घरेलू डॉक्टर की सबसे बड़ी खासियत यह होती थी कि वह डॉक्टर बाद में और मरीज के घर वालों के सुख-दुःख के साथी की भूमिका में पहले हुआ करता था . मरीज के परिवार से उसका भावनात्मक लगाव रहता था. आज के डॉक्टर इमोशनल नहीं ,विशुद्ध कमर्शियल हो गए हैं.धन्ना सेठों ने बड़ी-बड़ी कंपनियां बना कर पांच सितारा होटलों जैसे अस्पताल खोल लिए हैं . उनमें विशेषज्ञ डॉक्टरों की फ़ौज हमेशा तैनात मिलती है ,लेकिन किसके लिए ? उन्हीं के लिए न जो वहाँ हजारों-लाखों रूपयों की फीस दे सके ? कई डॉक्टरों के स्वयं के भी बड़े-बड़े अस्पताल हैं . उन्हें छोड़ कर वो भला किसी आम नागरिक के घरेलू डॉक्टर की भूमिका में क्यों आएँगे ? कुछ साल पहले तक भारतीय फिल्मों में भी घरेलू डॉक्टर नज़र आ जाते थे ,लेकिन अब तो हमारे सिनेमा और टी. व्ही. सीरियलों में नायक-नायिका के बीमार होने पर कहानी उन्हें फाइव-स्टार होटलनुमा अस्पताल पहुंचा देती है . कोई फेमिली डॉक्टर उनके घर नहीं आता .
पहले हर मर्ज़ का एक ही डॉक्टर होता था . चिकित्सा विज्ञान के नए-नए आविष्कारों के चलते आज विशेषज्ञता यानी 'स्पेशलाइजेशन ' का जमाना आ गया है . इतना ही नहीं ,बल्कि अब तो ' सुपर -स्पेशियलिटी ' अस्पतालों का का दौर है . नाक ,कान ,गला , दिल, दिमाग , आँख ,सबके डॉक्टर अलग-अलग ! यानी शरीर में जितने अंग, बाज़ार में उतने ही डॉक्टर ! समझ में नहीं आता -अगर दिल और नाक-कान की बीमारियाँ एक साथ पीछे लग जाएँ , तो मरीज सबसे पहले कहाँ ,किस डॉक्टर के पास जाए ? अगर इनमे से किसी के पास चला भी गया ,तो इ .सी. जी. और , सी.टी. स्कैन करवाने और तरह-तरह के टेस्ट करवाने में ही मरीज और उसके परिवार का दम निकलने लगता है ! चिकित्सा के क्षेत्र में नए आविष्कार ज़रूर हों ,लेकिन यह भी देखना ज़रूरी है कि आविष्कारों की भीड़ में मानवीय संवेदनाएं विलुप्त न हों जाएँ ! जैसे आज हमारे घरेलू डॉक्टर लगभग विलुप्त हो चुके हैं !
डाक्टर और मरीज के रिश्तों में पहले इंसानियत की सोंधी खुश्बू हुआ करती थी ! कहाँ खो गयी वो सामाजिक संवेदनाओं की महक और अपनेपन की चहक ?
--- स्वराज्य करुण
बिल्कुल सही कहा है आपने ... सार्थक व सटीक लेखन के लिए आभार ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteघूम-घूमकर देखिए, अपना चर्चा मंच ।
लिंक आपका है यहीं, कोई नहीं प्रपंच।।
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आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार के चर्चा मंच पर लगाई गई है!
बहुत सुंदर प्रस्तुति । Welcome to my New Post.
ReplyDeleteसमय के साथ बहुत कुछ बदला है।
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