शहरी जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी !
साँसों में है ज़हर-धुंआ ,आँखों में पानी !!
साँसों में है ज़हर-धुंआ ,आँखों में पानी !!
रिश्ते सारे सिमट गए 'अंकल-आंटी' में !
भूल गए हम काका-काकी ,नाना-नानी !!
भूल गए हम काका-काकी ,नाना-नानी !!
देखो -देखो चमक-दमक से भरी दुकानें !
मोल-भाव में बदल गयी प्यार की वाणी !!
मोल-भाव में बदल गयी प्यार की वाणी !!
फूलों की महक ,पंछी की चहक मिले कहाँ !
हो रही गायब हरियाली जानी-पहचानी !!
हो रही गायब हरियाली जानी-पहचानी !!
यादों के धुंधले परदे पर तस्वीर गाँव की !
देख-देख कर दिल बहलाए जिन्दगानी !!
(चित्र : google के सौजन्य से )
संवेदनशील रचना अभिवयक्ति.....
ReplyDeleteरिश्ते सारे सिमट गए 'अंकल-आंटी' में !
ReplyDeleteभूल गए हम काका-काकी ,नाना-नानी !!
खूबसूरत गज़ल आदरणीय स्वराज्य भईया...
सादर बधाई.
खो गये रिश्ते मिट गयी संवेदनाये हमारा शहर राजधानी न बनता तो ही अच्छा था
ReplyDelete