हमारे देश में आम तौर पर हर गाँव की सरहद पर किसी मौन तपस्वी की तरह बरगद का एक उम्र दराज़ पेड़ ज़रूर मिलता है.वह अपनी घनी छाया से राहगीरों को सुख-शान्ति का एहसास कराता है. गर्मियों की तपती दोपहरी में उसकी छाया गाँव के चरवाहों और मवेशियों को सुकून देती है. उसकी सघन छायादार डालियों में पंछी थकान मिटाते हैं और अपनी संगीतमयी स्वर लहरियों से माहौल को खुशनुमा बनाते हैं . गाँव की सरहद का वह बरगद उस बुजुर्ग अभिभावक की तरह होता है, जो परिवार के हर सदस्य पर अपना स्नेह न्यौछावर करता है और जिसकी नजदीकियां हर किसी को लुभाती हैं . वह कभी जटा-जूट धारी साधू-सन्यासी जैसा लगता है,तो कभी कुछ और . जो उसे जिस रूप में देखना चाहे ,देख सकता है,लेकिन उसके प्रत्येक रूप में परोपकार के भावों से भरी छाया ज़रूर होती है . मरहूम शायर जनाब सलीम अहमद 'ज़ख़्मी ' बालोदवी की शायरी को भी शायद इसी जटा बिखेरे बूढ़े बरगद ने अपनी घनी छाँव में संवेदनाओं के नए रंग दिए होंगे ,तभी तो उनकी हर गज़ल में इंसानी ज़ज्बात समंदर की लहरों की तरह छलकते नज़र आते हैं.
ज़ख़्मी साहब से मेरी मुलाक़ात कभी नहीं हो पायी ,लेकिन उनकी उम्दा शायरी ने साहित्य में दिलचस्पी लेने वाले आम नागरिकों की तरह मुझे भी हमेशा काफी प्रभावित किया. वह नागपुर (महाराष्ट्र ) में 1918 में पैदा हुए थे और मात्र अठारह साल की उम्र में यानी 1936 में छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के बालोद कस्बे में आकर वहीं के होकर रह गए थे . उनका निधन 18 नवम्बर 1995 को हुआ .छत्तीसगढ़ राज्य स्थापना के बारहवे साल में रमन सरकार ने बालोद को जिला बना दिया है और मरहूम बालोदवी जी का बालोद कस्बा अभी करीब महीना भर पहले दस जनवरी को जिला मुख्यालय बन गया है. छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा वर्ष 2007 में 'गाँवों का बूढ़ा बरगद' शीर्षक से उनकी 66 ग़ज़लों की पुस्तक प्रकाशित की जा चुकी है . सबसे पहले उन्हीं में से अपनी पसंद की एक ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ .शायद आपको भी पसंद आए-
सुख का गोरी नाम न लेना ,दुःख ही दुःख है गाँव में
प्रीत का काँटा मन में चुभेगा ,खेत का काँटा पाँव में !
देख मुसाफिर मित्र खड़े हैं छतरी ताने गाँव में
पीपल,बरगद ,नीम बुलाएं, हाथ हिलाकर छाँव में !
माटी के हम दीप जरा से , ज्योत हमारी कितनी देर ,
घात में बाहर घोर अँधेरे, घुस आएं कुटियाओं में !
साँस खटकती फांस के जैसी ,पल भर मन को चैन नहीं ,
नीरस,नीरस जीवन सारा , आग लगे आशाओं में !
इस युग के बेढब लोगों से क्या ढब की बात कहे कोई ,
चतुराई से चिन्ता में फंसे हैं ,बुद्धि से बाधाओं में !
तन का तिनका जीवन तट पर कब तक 'ज़ख़्मी ' ठहरेगा ,
लहर-लहर में छीना-झपटी ,होड़ लगी घटनाओं में !
उनकी शायरी में इंसानी ज़ज्बात के बहुत से रंग अपने ही अंदाज़ में बहुत कुछ कहते नज़र आते हैं. बानगी देखिये -----
हमको हालात जमाने का पता देते हैं !
कल जो होना है तुम्हें आज बता देते है !!
फिर किधर से ये तेरी याद चली आती है !
हम तो दरवाजों की जंजीर लगा देते हैं !!
हर तरफ अम्न है, हर आदमी खुशहाल है !
लाओ हम भी यही बेपर की उड़ा देते हैं !!
दुनिया के अच्छे-बुरे तमाम तरह के अनुभवों से ही किसी शायर की शायरी का जन्म होता है. समाज में फ़ैली-पसरी विसंगतियाँ शायर के दिल को झकझोरती हैं . मुल्क और समाज के हालात उसके दिल को भी ज़ख्म दे जाते हैं . तभी तो पैदा होती है 'जख्मी 'बालोदवी के दिल में इंसानी दिलों को झकझोरने वाली कोई गज़ल-
आप क्या चीज हैं ,मै क्या हूँ ,तमाशा क्या है !
ये समझना बड़ा मुश्किल है के दुनिया क्या है!!
पेट की आग अगर गाँवों में लग जाएगी !
शहर के शहर झुलस जाएंगे ,समझा क्या है !!
छुप गयी पाँव में आकर मेरी परछाई भी !
ऐ बुरे वक्त के सूरज तेरी मंशा क्या है !
संकलन की चौंतीसवीं गज़ल का एक अंश इस किताब का शीर्षक बना है . यह गज़ल भी शायर के दिल की गहराई से निकली आवाज़ है-
कब से जटा बिखेरे एक पाँव पर खड़ा है !
गाँव का बूढ़ा बरगद साधू नहीं तो क्या है !!
अब हादसों का होना मामूल बन चुका है ,
जिस रोज कुछ न हो समझो के कुछ हुआ है !!
ज़ख़्मी साहब की एक और गज़ल में इंसानी भावनाओं की चौंकाने वाली रंगत देखिये --
मैं भला अब क्या कहूँगा आप ही कुछ सोचिये !
कल भी गम मेरे लिये थे ,आज भी मेरे लिये !!
हमने देखा आग में जलते ,तड़फते ,लोटते !
क्या खबर के वो पतिंगे और फिर कब तक जियें !!
अजनबी ये तो बताता जा हमारे शहर में !
आदमी के रूप में कितने मिले बहुरूपिये !!
कविता संग्रह के अपने प्रकाशकीय वक्तव्य में छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रन्थ अकादमी के संचालक श्री रमेश नैय्यर ने लिखा है-'' छत्तीसगढ़ में उर्दू अदब की महक भी अनुभव की जाती रही है. दूरस्थ बस्तर से सरगुजा तक उर्दू लेखन तथा अध्ययन और अध्यापन की परम्परा रही है.बालोद जैसे सामान्य नगर को अपनी कर्म भूमि बनाकर उर्दू काव्य साधना में रत रहे सलीम अहमद 'जख्मी' बालोदवी ने उर्दू अदब में राष्ट्र व्यापी ख्याति अर्जित की . '' इस संकलन में सुप्रसिद्ध उर्दू शायर निदा फाजली ने भी 'ज़ख़्मी' बालोदवी साहब की रचना धर्मिता पर अपने विचार कुछ इन शब्दों में व्यक्त किए हैं- भारत के कई शहरों की पहिचान वहाँ के शायरों से होती है .जैसे ,जालन्धर का नाम आते ही हफीज़ जालंधरी -अभी तो मै जवान हूँ - याद आ जाते हैं . भोपाल का जिक्र करते हुए कैफ और ताज मुस्कराते हैं. मीर,ग़ालिब और दाग की शायरी से दिल्ली के बाज़ार जगमगाते हैं .'' निदा फाजली साहब आगे लिखते हैं- ''जनाब 'ज़ख़्मी' साहब 'दाग' स्कूल के नुमाइंदा शायर हैं .उनके शेर भी छत्तीसगढ़ के बालोद की गुमनामी की अदबी दुनिया में शोहरत अता फरमाते हैं.उनकी शायराना उस्तादी ने इस दूर-दराज इलाके में शेर-ओ-फन का जो चराग जलाया है ,उसकी रोशनी ने आने वाली कई नस्लों की न सिर्फ रहनुमाई की है, बल्कि मोहब्बत और इंसानियत का नूर भी फैलाया है.''
ज़ख़्मी साहब की गज़लों की इस किताब का सम्पादन किया है- छत्तीसगढ़ के जाने-माने साहित्यकार लोक बाबू ने . उन्होंने सम्पादकीय टिप्पणी में लिखा है- ''यूं तो आज छत्तीसगढ़ में शायरों की कमी नहीं है,मगर मुश्किल से मुश्किल मौजूं को बसलिका आसानी से बयान करने का सामर्थ्य ज़ख़्मी जी में दिखायी पड़ता है, वह दुर्लभ है .रूप,रस, भाव और सूफियाना दर्शन से छलछलाते शेर कहना उनकी विशेषता रही है.उनके सहज और सम्प्रेषणीय शेरों के कारण ही उन्हें ज़ुबान का शायर कहा जाता रहा .'' संकलन के अंतिम चार पन्नों में ज़ख़्मी बालोदवी साहब से श्री अरमान 'अश्क' द्वारा 28 जून 1993 को लिया गया साक्षात्कार भी शामिल है , जिसमें जख्मी जी के जीवन-दर्शन और उनकी रचना-प्रक्रिया की जानकारी मिलती है .
एक से बढ़ कर एक उम्दा ग़ज़लों की इस किताब के शीर्षक को लेकर मेरे दिल में सवाल के साथ यह ख़याल भी आया कि यह 'गाँवों का बूढ़ा बरगद ' होना था , या 'गाँव का बूढ़ा बरगद ' ? इस बाबत हिन्दी ग्रन्थ अकादमी के संचालक नैय्यर साहब से चर्चा करने पर उन्होंने कहा - यही सवाल मेरे मन में भी उठा था ,लेकिन ज़ख़्मी साहब तो काफी पहले ही दुनिया छोड़ चुके थे और संकलन के सम्पादक लोक बाबू ने गाँवों का बूढ़ा बरगद ' शीर्षक को ही उपयुक्त बताया .लिहाजा उनके आग्रह पर इसी शीर्षक से किताब छपी .
ज़ख़्मी साहब अपने जीवन-काल में छत्तीसगढ़ को राज्य बनता नहीं देख पाए. अगर छत्तीसगढ़ राज्य नहीं बनता और रमन सरकार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी का गठन नहीं करती तो शायद इस नए राज्य में मरहूम 'ज़ख़्मी साहब जैसे 'अनेक वरिष्ठ और जाने-माने लेखकों और कवियों की पुस्तकें भी गुमनामी के अँधेरे में रह जाती ! ज़ख़्मी जी के देहावसान के बारह साल बाद उनकी पहली किताब गज़ल संग्रह के रूप में आयी है . वह तो वर्ष 1995 में दुनिया को अलविदा कह गए थे . नवम्बर 2000 में छत्तीसगढ़ प्रदेश बना . वर्ष 2007 में छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रन्थ अकादमी की जानिब से उनकी शायरी की यह किताब आयी . काश ! ज़ख़्मी साहब आज हमारे बीच होते !
--- स्वराज्य करुण
जख्मी साहब उम्दा गजलकार थे।
ReplyDeleteबूढा बरगद घाट का बतियाए दिन रात
जो भी गुजरे पास से स्रिर पे धर दे हाथ
इस प्रतिभा और उनकी शोहरत का परिचय प्राप्त हुआ, धन्यवाद.
ReplyDeleteजकमी सहाब का परिचय और उनकी खूबसूरत गज़लों को यहाँ पढ़वाने के लिए आपका आभार ....समय मिले कभी तो ज़रूर आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
ReplyDeletehttp://mhare-anubhav.blogspot.com/
उनकी गजल यहाँ पढ़वाने के लिए आपका आभार ...समय मिले कभी तो ज़रूर आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
ReplyDeletehttp://mhare-anubhav.blogspot.com/
अजनबी ये तो बताता जा हमारे शहर में !
ReplyDeleteआदमी के रूप में कितने मिले बहुरूपिये !!
ek naya parichay....
ek anokhi prastuti....
हमको हालात जमाने का पता देते हैं !
ReplyDeleteकल जो होना है तुम्हें आज बता देते है !! ...
इन चंद शेरो से ही आभास हो रहा है जख्मी साहब की कलम का ... बहुत बहुत शुक्रिया इस परिचय का ...