- स्वराज करुण
जिस चिकने -चौड़े राष्ट्रीय राजमार्ग पर चमचमाती मोटर गाडियाँ तूफ़ानी रफ़्तार से दिन - रात भागती -दौड़ती रहती हैं ,उसके ठीक एक किनारे पर कभी -भी आ धमकने वाले हादसों से बेपरवाह कुछ गरीब परिवार झोपड़ियाँ बनाकर मेहनत -मज़दूरी करते हुए किसी तरह गुज़र - बसर कर रहे हैं । इन्हीं में से एक है चाँदनी का परिवार । वह छत्तीसगढ़ के घुमन्तू देवार समुदाय की है ।
नाम चाँदनी ,लेकिन घर में भी और जीवन में भी अँधेरा ही अँधेरा । उसे इंतज़ार है -विकाश की उस रौशनी का ,जो उसके परिवार को छोटा ही सही लेकिन एक पक्का मकान दिलवा दे ,जिसमें बिजली की भी रौशनी हो ,पानी की उचित व्यवस्था हो । चाँदनी की तरह ज्योति भी अपने परिवार के लिए वर्षो से यह सपना देख रही है । यहाँ पर देवार समुदाय के अलावा कुछ अन्य समुदायों के गरीब परिवार भी झुग्गी बनाकर वर्षों से बसे हुए हैं । इन सबका सपना है कि उनका अपना एक मकान हो ।
देवार परिवारों के पुरुष अपनी सायकलों के कैरियर के दोनों ओर प्लास्टिक की बड़ी - बड़ी थैलियाँ बाँधकर शहर में दिन भर टिन -टप्पर और दूसरी तरह के कबाड़ ,प्लास्टिक की पन्नी आदि बीनते हैं और कबाड़ियों के पास बेचकर कुछ कमाई कर लेते हैं । ऐसा करके ये लोग शहर की साफ़ -सफ़ाई में भी अप्रत्यक्ष रूप से ही सही ,मददगार तो साबित हो रहे हैं । कुछ पुरुष पेंटर और मोटर मिस्त्री भी हैं । इस झोपड़ -पट्टी में लगभग चालीस -पचास परिवारों का बसेरा है । कुछ के मकान कच्चे और कुछ अधपके हैं । कुछ घरों में बिजली का कनेक्शन है तो कुछ में नहीं । निस्तारी सुविधा का कोई ठिकाना नहीं ।
चाँदनी की छोटी -सी झोपड़ी में बिजली कनेक्शन का तो सवाल ही नहीं उठता ।जहाँ पैर फैलाकर सोना या फिर कुछ आराम से बैठ पाना हमारे - आपके लिए मुमकिन नहीं ,उसी झोपड़ी में चाँदनी अपने पति बुधारू और बच्चों के साथ रहती है । अगर भारी बरसात हुई तो बहुत तकलीफ़ हो जाती है । झोपड़ी में पानी भर जाता है ।तब ये लोग बाजू में नगर निगम के शॉपिंग कॉम्प्लेक्स के बरामदे में शरण लेते हैं ।
चाँदनी बताती हैं - बरसात की रातें तो उस परछी में किसी तरह कट जाती हैं ,लेकिन सुबह होते ही जब कॉम्प्लेक्स की दुकानों के शटर उठाए जाते हैं ,तब दुकानदार उन्हें डपट कर भगा देते हैं । इस कॉम्प्लेक्स में मोटर मैकेनिक और ऑटोपार्ट्स बेचने वालों की छोटी -छोटी दुकानें हैं । अपनी दुकान के चबूतरे या बरामदे में किसी परिवार को आश्रय देने पर कारोबार में रुकावट आती है ।इसलिए उन्हें वहाँ से हटाना उनकी मज़बूरी है।
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श्रमजीवी गरीबों की यह झुग्गी बस्ती रायपुर नगर निगम के मठपुरैना वार्ड में सरकारी स्कूलों के बगल में ही है ,लेकिन यहाँ के अधिकांश बच्चे स्कूल नहीं जाते । मेरी मुलाकात जिन दस -पन्द्रह बच्चों से हुई ,उनमें दो भाई - बहन राहुल और सानिया नेताम भी थे । राहुल सातवीं और सानिया पाँचवी कक्षा में है । दोनों की तमन्ना इंजीनियर बनने की है। उनके पिता श्यामलाल नेताम किसी मोटर गैरेज में काम करते हैं । बातचीत में सानिया काफी होशियार लगी । उसने बताया कि चौथी कक्षा वह प्रथम श्रेणी याने कि ए -ग्रेड में पास हुई है । स्कूल में दोपहर का भोजन मिलता है । एक पुस्तक स्कूल से मिली है बाकी किताबें हमने दुकान से खरीदी है ।
यह पूछने पर कि उसके अगल-बगल की झुग्गियों में रहने वाले बहुत - से बच्चे स्कूल क्यों नहीं जाते ,सानिया कहती है -इन्हें कितना भी समझाओ ,पढ़ने में इनका मन लगता ही नहीं । दिन भर स्कूल के पास ही खेलते -टहलते रहते हैं । इनके माता -पिता भी ध्यान नहीं देते ।सानिया का एक कमरे का घर हालांकि कुछ कच्चा है लेकिन दूसरों से कुछ ठीक है ,फिर भी उसके बताए अनुसार बरसात में छत टपकती है और कमरे में पानी भर जाने पर रात भर जागना पड़ता है । सानिया यह भी बताती है कि इस बस्ती को ' डेरा पारा ' बोला जाता है । यह नाम 'देवार डेरा' के कारण पड़ा है ।
सानिया के पास खड़ी एक नन्हीं -सी बच्ची वर्षा पहली कक्षा में है । उसके सपनों के बारे में पूछने पर मुस्कुराते हुए बोली -बड़ी होकर मैं पुलिस बनूंगी। तीसरी कक्षा की रुखसाना भी पुलिस बनना चाहती है ।वर्षा के पिता समारू नेताम भी कचरा बीनने का काम करते हैं । गोली का ग्यारह साल का बेटा करण और दुकालू का दस साल का बेटा नियम स्कूल नहीं जाते । मेरे ख़्याल से अगर अध्यापक गण इस झुग्गी बस्ती में नियमित रूप से आकर बच्चों के अभिभावकों को समझाएं तो सभी बच्चे स्कूल जाने लगेंगे । शिक्षकों को उनसे सम्पर्क करने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए ,क्योंकि गरीबों की यह बस्ती उनके स्कूल से बमुश्किल 50 कदम पर है । बशर्ते अध्यापक इसे अपनी एक नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी मानकर ऐसा करें ।
झोपड़ पट्टी की महिलाओं ने बताया कि वहाँ निवास कर रहे परिवारों में से कुछ के राशन कार्ड हैं ,वोटर कार्ड और आधार कार्ड भी बन गए हैं। इन्हें सरकारी आवास योजना का लाभ मिल जाए तो ये इस बदतर स्थिति से उबर सकते हैं । कई महिलाओं ने बताया कि एक बार तहसील ऑफिस से कोई अधिकारी आए थे ।उन्होंने पट्टे के लिए फार्म भी भरवाया था ,लेकिन अब तक कुछ नहीं हुआ ।
-स्वराज करुण
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (14-08-2019) को "पढ़े-लिखे मजबूर" (चर्चा अंक- 3427) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'