Tuesday, April 23, 2019

(आलेख) आख़िर वो गए तो गए कहाँ ?

           -- स्वराज करुण
 घरेलू या पारिवारिक डॉक्टर गाँवों , कस्बों और छोटे शहरों में भले ही कभी - कभार  नज़र आ जाते हों ,लेकिन कड़वी सच्चाई ये है कि  बड़े शहरों में वो अब  विलुप्त हो चुके हैं ।  उनके साथ ही हमारे देश की एक समृद्ध सामाजिक  परम्परा भी कहीं गुम हो चुकी है। पारिवारिक डॉक्टर अब कॉल करने पर  आपके घर नहीं आते ।   पहले प्रत्येक भारतीय परिवार का एक 'फ़ैमिली डॉक्टर ' हुआ करता था ।  उस परिवार के नन्हें बच्चों से  लेकर बड़े -बुजुर्गों तक से उसके आत्मीय सम्बन्ध रहते थे ,लेकिन जमाना बदल गया है ।
   अब तो खासकर बड़े शहरों में अगर आपको इलाज करवाना हो तो  विशाल भवनों में आधुनिक चिकित्सा उपकरणों से सुसज्जित प्राइवेट अस्पतालों के उनके चेम्बरों में जाना होगा ।  अधिकांश  डाक्टरों की सोच अब सीधे -सीधे अर्थ केन्द्रित हो चुकी है । शायद वे सोचते हैं कि घोड़ा अगर घास से दोस्ती करे  तो खाएगा क्या ? वो शायद अब यह भी मानकर चल रहे हैं कि कुआं  कभी  प्यासे के पास नहीं जाता ,प्यासे को ही खुद चलकर  कुएं के पास आना पड़ता है ।  टॉर्च लेकर खोजने पर भी बड़े शहरों में कोई घरेलू डॉक्टर नहीं मिलेगा ! आख़िर वो गए तो गए कहाँ ? हमारी यह चर्चा मुख्य रूप से ऐलोपैथिक डॉक्टरों पर और ऐलोपैथिक अस्पतालों पर केन्द्रित है ।   
         पुराने लोगों से पूछें तो वो बताएंगे कि पहले शरीर के हर अंग के लिए अलग -अलग डॉक्टर नहीं होते थे । लेडी डॉक्टरों को  अपवाद मानें तो पहले सिर से लेकर पाँव तक की हर तकलीफ़ का इलाज एक ही डॉक्टर कर दिया करता था ।लेकिन अब ? अब तो आँखों के लिए अलग ,नाक ,कान ,गले के लिए अलग , दाँत के लिए अलग ...  रीढ़ की हड्डी के लिए अलग , दिल के लिए अलग दिमाग के लिए अलग ,  हाथ -पैर की हड्डी के लिए अलग ..यानी शरीर में जितने अंग , समाज में उतने डॉक्टर ! यह सब देखकर मरीज़ भी कन्फ्यूज होकर टेंशन में आ जाता है ।
     गाँवों में  प्राथमिक चिकित्सा के जानकार जो लोग     ग्रामीणों  के घरों तक पहुंचकर उन्हें अपनी सेवाएं देते हैं ,    शहरी समाज और शहरों के ऐलोपैथिक डॉक्टर  ' झोला छाप डॉक्टर ' कहकर उनका मज़ाक उड़ाते हैं, लेकिन ये भी सच है कि इन्हीं तथाकथित ' झोला छाप ' डॉक्टरों के कारण कई ग्रामीणों को अपने घर पर ही त्वरित उपचार मिल जाता है । (स्वराज करुण ) वैसे शायद महानगरीय बसाहटों में रहने वाले  डॉक्टरों की भी मजबूरी है । उन्हें एमबीबीएस ,एम .डी . एम .एस., की पढ़ाई करने और डिग्री लेने  लाखों - करोड़ों रुपये  खर्च करने पड़ते हैं  ।  क्लिनिक  या अस्पताल खोलने ,उनमें स्टाफ रखने , उन्हें वेतन देने ,अगर किराए का  भवन हो तो मासिक किराया और बिजली बिल का भुगतान करने और फिर अपना खर्चा निकालने के लिए मरीजों से फीस तो लेनी ही पड़ती है ।  गंभीर मरीजों को कई ऐसी जांचों की जरूरत होती है ,जिनके उपकरणों को डॉक्टर अपने अस्पताल से मरीज़ के घर तक नहीं ले जा सकते । जैसे - एक्सरे मशीन ,सोनोग्राफी ,एमआरआई , , टी .एम .टी. आदि ।  हालांकि वो चाहें तो सामान्य बीमारियों से पीड़ित मरीजों  को' घर पहुंच सेवा ' देकर उनसे  कुछ राशि फ़ीस के रूप में ले सकते हैं ।
    यदि कोई प्राइवेट अस्पताल किसी फाइव स्टार होटल के माफ़िक भवन में संचालित हो रहा हो तो वहाँ मरीज के कमरे का दैनिक किराया ही हजारों रुपये का हो जाता है । उस प्राइवेट अस्पताल भवन के निर्माण में ही करोड़ों रुपयों की लागत आती है तो अस्पताल का मालिक लागत  आख़िर  मरीज या उसके  परिवार से ही तो  वसूल करेगा । (स्वराज करुण )आज के दौर में  अगर ऐलोपैथी के अलावा आयुर्वेद , होम्योपैथी और यूनानी  चिकित्सा पद्धतियों को भी बढ़ावा दिया जाए , तो  मेरे ख़्याल से समस्या काफी हद तक कम हो जाएगी ।जनता को  इलाज के लिए कई विकल्प मिलेंगे और मरीज़ अपनी सुविधा अनुसार इनमें से किसी भी वैकल्पिक पद्धति का चयन कर उस पद्धति के डॉक्टर से अपना इलाज करवा सकेगा ।
     फिर भी मुझे  लगता है कि चाहे किसी भी पद्धति के डॉक्टर हों , उन्हें घरेलू या पारिवारिक चिकित्सक की अपनी विलुप्त हो चुकी परम्परा को नये सिरे से स्थापित करने की कोशिश करनी चाहिए ।
               --स्वराज करुण

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (24-04-2019) को "किताबें झाँकती हैं" (चर्चा अंक-3315) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    पुस्तक दिवस की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. आदरणीय शास्त्रीजी ! आपकी इस उदारता के लिए बहुत -बहुत धन्यवाद ।

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