-- स्वराज करुण
आजकल कोई गर्मियों में घर के बाहर यानी आँगन में या छत पर नहीं सोता । न गाँवों में ,न कस्बों में और न ही शहरों में । न गाँव पहले जैसे रहे ,न कस्बे और न शहर । हर तरफ चोरी -डकैती का डर ,गुंडों का डर । वन्य प्राणियों को लगातार कटते और घटते जंगलों में चारे -पानी की तकलीफ हो रही है तो वे गाँवों की ओर आने लगे हैं । ऐसे में ग्रामीण जन भी अब गर्मी के दिनों में आँगन में सोने में डरते हैं । ओड़िशा ,झारखण्ड और छत्तीसगढ़ सहित देश के कई राज्यों के ग्रामीण इलाकों में जँगली हाथियों की भी दहशत फैली हुई है । इन गजराजों के झुण्ड न जाने कब और कहाँ धावा बोल दें !
चोर -डकैतों के लिए रातों में गाँवों में धावा बोलने का सुनहरा मौका रहता है । एक तो जिसके यहाँ भी धावा बोलेंगे , उनके चीखने -चिल्लाने पर भी आज के माहौल के हिसाब से कोई उन्हें बचाने नहीं आएगा । दूसरी बात पुलिस थाने भी वहाँ से काफी दूर होते हैं । ऐसे में लोग घरों में दुबक कर सोना ही ठीक समझते हैं । एक बात और । आजकल बिजली की आसान पहुँच और कूलर तथा ए .सी . जैसे उपकरणों की आसान किश्तों में उपलब्धता की वजह से भी ज्यादतर लोग गर्मियों में घर के आँगन में नहीं सोते । वरना ,पहले तो इस मौसम में हर शाम आँगन में पानी का छिड़काव करके उसे ठंडा किया जाता था । यह रात में निवाड़ वाली या नारियल की रस्सी वाली खटिया बिछाने के पहले की तैयारी हुआ करती थी । फिर उसमें बिछौना बिछाकर बाँस की डंडियों में बंधी मच्छरदानियों को ताना जाता था । बिछौना रात में जब ठंडा हो जाए ,तब उसमें सोने का एक अलग ही आनन्द मिलता था । लेटने के पहले खटिया के नीचे या फिर एक छोटी कुर्सी पर लोटे में पानी और एक खाली गिलास जरूर रखा जाता था ,ताकि देर रात नींद खुले और प्यास लगे तो पानी तुरन्त मिल जाए ।
चाँदनी रातों में बिछौने की यह ठंडक कुछ ज्यादा ही सुकून देती थी । आसमान के तारे गिनने की नाकामयाब कोशिशें भी खूब हुआ करती थी । सप्तर्षि तारों की पहचान बड़ी आसानी से हो जाती थी । छुटपुट उल्कापात के नज़ारे भी दिख जाते थे ।उसी दरम्यान झिलमिलाते तारों से भरे आसमान से रौशनी की हरी लकीर छोड़ता किसी तारे का कोई टुकड़ा न जाने कहाँ से आकर कहाँ ओझल हो जाता था ? उसके बारे में बच्चे अपने माता - पिता से या बड़े भाई ;बहनों से देर तक कई बाल सुलभ सवाल भी करते रहते थे । झिलमिलाते आसमान में ही किसी हवाई जहाज की जलती -बुझती हरी बत्तियों को देखकर बच्चों को लगता था कि कोई सितारा या तो चल रहा है या दौड़ रहा है ! जब कोई जानकार बुजुर्ग उन्हें बताते कि वो एक एरोप्लेन है तो सबके सब ये अंदाजा लगाने में जुट जाते कि वो कहाँ से आ रहा है और कहाँ जा रहा है ? रेडियो सुनने के शौकीन युवा और कई बुजुर्ग भी अपना ट्रांजिस्टर सिरहाने के पास रखकर सोते थे और सोने के पहले आकाशवाणी या बीबीसी के समाचार ,विविध भारती के फरमाइशी गीतों के कार्यक्रम या रेडियो सिलोन पर बिनाका गीत माला जरूर सुनते थे ।
इस मौसम की रातों में घर के बाहर सोने को लेकर खास तौर पर बच्चों में काफ़ी उत्साह रहता था ।कई बार तो आँगन में ही उनके बीच दिलचस्प अंत्याक्षरी प्रतियोगिता भी हो जाती थी । नन्हें बच्चे खटिया पर अपनी नानी इस दादी से कहानी -किस्से सुनते -सुनते सो जाते थे । आँगन में सोने वाले बड़े -बुजुर्गों की नींद अलसुबह कोयल की कूक ,मुर्गे की बांग या चिड़ियों की चहचहाहट से खुल जाती थी
गर्मियों की रात कई लोग घर का टेबल फैन बाहर आँगन में लाकर बिछौने के पास उसका उपयोग करते थे ।अगर बिजली अचानक गुल हो जाए तो बड़ी झुंझलाहट होती थी । हाथ से झलने वाले बाँस से बने पँखे का भी इस्तेमाल होता था । इस बीच अगर अचानक बादल घिर आएं ,बादल गरजे और बूँदाबादी शुरू हो जाए तो सबके सब खीझते हुए हड़बड़ाकर उठते और अपना बिछौना उठाकर घर के भीतर चले जाते थे । बूँदाबादी रुकने पर बिछौना फिर बाहर ! कितनों को याद है कि वो भी क्या दिन थे ?
-स्वराज करुण
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (29-04-2019) को "झूठा है तेरा वादा! वादा तेरा वादा" (चर्चा अंक-3320) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आदरणीय शास्त्री जी ! चर्चा अंक में स्थान देने के लिए हार्दिक आभार ।
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