भारत में बोलती फिल्मों का इतिहास फिलहाल एक सौ साल का भी नहीं हो पाया है. हमारे यहाँ पहली बोलती फिल्म 'आलम-आरा ' सन 1931 में रिलीज हुई थी . उसके बाद तो जैसे आजादी के आंदोलन के समानांतर देश में सिनेमा की भी एक लहर चल पड़ी ,जिसने हिन्दी सहित कई भारतीय भाषाओं में सामाजिक जीवन मूल्यों पर आधारित फिल्मों के ज़रिए जन-जीवन पर गहरा प्रभाव डाला. देश की अन्य भाषाओं की फिल्मों में भी ज़रूर होते होंगे ,लेकिन मैं सिर्फ हिन्दी फिल्मों की बात करना चाहता हूँ ,जिनके कई गाने आज भी दिल को छू जाते हैं . कई फ़िल्मी गीतकारों ने इंसान के दोहरे आचरण और सामाजिक विसंगतियों पर तीखे प्रहार करने वाले गीतों से फिल्मों को लोकप्रिय बनाया .
महान पार्श्व गायक मोहम्मद रफी
पता नहीं क्यों सार्वजनिक सभा-समारोहों में लाऊडस्पीकरों पर आज-कल ऐसे फ़िल्मी गीत नहीं गूंजते , जिनमें देश और समाज की दशा-दिशा के साथ इंसान के दुःख-दर्द को वाणी मिला करती थी और ऐसे गाने अक्सर आकाशवाणी के विविध भारती कार्यक्रम और श्रीलंका ब्रॉड-कास्टिंग कार्पोरेशन यानी रेडियो सीलोन से भी सुनाए जाते थे . हिन्दी सिनेमा के इतिहास और रेडियो में दिलचस्पी रखने वालों को ज़रूर याद होगा कि हमारे यहाँ देशभक्ति पूर्ण फ़िल्में बनती थी . दो-ढाई-तीन या चार दशक पहले तक बनती रहीं .याद कीजिये - उपकार , रोटी कपड़ा और मकान , अंधा क़ानून , समाज को बदल डालो .जैसी फिल्मों को , जिनके शीर्षकों से ही फिल्म के उद्देश्य का पता चल जाता है. साहित्य की तरह फिल्मों को भी समाज का दर्पण कहा जा सकता है ,जिनमें अपने समय के समाज और मनुष्य की अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों को प्रभावशाली संवादों और गीतों के माध्यम से प्रस्तुत करने की ताकत होती है. लेकिन आज की फिल्मों को देख कर और आज के अधिकाँश फ़िल्मी गानों को सुनकर लगता है कि भारतीय सिनेमा अपनी यह ताकत खो चुका है . अब शायद न तो वैसे निर्माता -निर्देशक हैं ,और न ही वैसे संवाद लेखक ,वैसे गीतकार और वैसे गायक कलाकार , जिनके दिलों में सिनेमा के माध्यम से समाज को कोई बेहतर सन्देश देने की भावना हुआ करती थी .
मिसाल के तौर पर सन 1968 में रिलीज हिन्दी फिल्म 'इज्जत ' का उल्लेख किया जा सकता है . इसमें बतौर नायक धर्मेन्द्र और नायिका जयललिता ने अभिनय किया था ,जी हाँ ,वही जयललिता , जो आज तमिलनाडु की मुख्यमंत्री हैं, उनके साथ बलराज सहानी और तनुजा जैसे कलाकारों ने भी इसमें काम किया था . इस फिल्म में साहिर लुधियानवी का लिखा और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के संगीत से सुसज्जित एक ऐसा गीत भी है ,जिसमें आज के इंसान के दोगले चरित्र को उजागर करते हुए उस पर व्यंग्य प्रहार भी किये गये हैं .उस दिन इंटरनेट पर पुराने हिन्दी फ़िल्मी गानों की खोज करते हुए हाथ लगी एक लंबी सूची में मुझे यह गीत महान पार्श्व गायक मोहम्मद रफी की दिलकश आवाज़ में सुरक्षित मिला, जिसकी हर एक पंक्ति को सुनकर लगता है कि गीतकार ने इसे दिल की जितनी गहराइयों में डूब कर लिखा ,संगीतकार ने भी उतनी ही गहराई में और उसी भावधारा में डूबकर इसमें संगीत की संवेदनाएं घोलीं . तकनीकी कारणों से मैं आपको यह गीत रफी साहब की आवाज़ में तो नहीं सुनवा पाऊंगा , लेकिन यह ज़रूर चाहूँगा कि आप इसे यूं ही पढ़ लें ताकि इसके एक-एक लफ्ज़ में आप मरहूम शायर साहिर लुधियानवी साहब के दिल की धड़कनों को भी महसूस कर सकें -
क्या मिलिए ऐसे लोगों से ,जिनकी फितरत छुपी रहे ,
नकली चेहरा सामने आये ,असली सूरत छुपी रहे !
खुद से भी जो खुद को छुपाएँ ,क्या उनसे पहचान करें ,
क्या उनके दामन से लिपटें, क्या उनका अरमान करें !
जिनकी आधी नीयत उभरे ,आधी नीयत छुपी रहे ,
नकली चेहरा सामने आये ,असली सूरत छुपी रहे !
दिलदारी का ढोंग रचा कर जाल बिछाए बातों का ,
जीते जी का रिश्ता कहकर, सुख ढूंढे कुछ रातों का !
रूह की हसरत सामने आए , जिस्म की हसरत छुपी रहे ,
नकली चेहरा सामने आए ,असली सूरत छुपी रहे !
जिनके ज़ुल्म से दुखी है जनता , हर बस्ती ,हर गाँव में ,
दया - धरम की बात करें वो , बैठ के भरी सभाओं में !
दान का चर्चा घर-घर पहुंचे , लूट की दौलत छुपी रहे ,
नकली चेहरा सामने आए , असली सूरत छुपी रहे !
देखें,इन नकली चेहरों की कब तक जय-जयकार चले ,
उजले कपड़ों की तह में , कब तक काला संसार चले !
कब तक लोगों की नज़रों से छुपी हकीकत छुपी रहे ,
नकली चेहरा सामने आए , असली सूरत छुपी रहे !
दोस्तों ! ऐसा कोई फ़िल्मी गीत पिछले चार-पांच वर्षों में भी आपने अगर कहीं सुना हो ,तो याद करके मुझे भी ज़रूर याद दिलाइएगा ! क्या आपने कभी गंभीरता से सोचा है कि ऐसे फ़िल्मी गाने आज हमारे समाज से , हमारे जेहन से और हमारी ज़ुबान से आखिर कहाँ और क्यों गायब होते जा रहे हैं ?
अब होने भी दीजिए गायब , क्योंकि समाज के जिन नकली चेहरों और असली सूरतों की चर्चा इस गाने में है, वही लोग तो आज इस देश और समाज के कर्णधार बने हुए हैं . उन्हें ऐसे गानों से तकलीफ होती होगी. इसलिए ऐसे व्यंग्य प्रहार वाले गाने जितनी जल्दी चलन से बाहर हो जाएँ उनके लिए उतना ही अच्छा . इससे उनका लम्बा -चौड़ा काला कारोबार , विशाल आर्थिक साम्राज्य और उनके ऊंचे-ऊंचे महल सुरक्षित तो रहेंगे ! इसी में उनकी भलाई है !
- स्वराज्य करुण
महान पार्श्व गायक मोहम्मद रफी
पता नहीं क्यों सार्वजनिक सभा-समारोहों में लाऊडस्पीकरों पर आज-कल ऐसे फ़िल्मी गीत नहीं गूंजते , जिनमें देश और समाज की दशा-दिशा के साथ इंसान के दुःख-दर्द को वाणी मिला करती थी और ऐसे गाने अक्सर आकाशवाणी के विविध भारती कार्यक्रम और श्रीलंका ब्रॉड-कास्टिंग कार्पोरेशन यानी रेडियो सीलोन से भी सुनाए जाते थे . हिन्दी सिनेमा के इतिहास और रेडियो में दिलचस्पी रखने वालों को ज़रूर याद होगा कि हमारे यहाँ देशभक्ति पूर्ण फ़िल्में बनती थी . दो-ढाई-तीन या चार दशक पहले तक बनती रहीं .याद कीजिये - उपकार , रोटी कपड़ा और मकान , अंधा क़ानून , समाज को बदल डालो .जैसी फिल्मों को , जिनके शीर्षकों से ही फिल्म के उद्देश्य का पता चल जाता है. साहित्य की तरह फिल्मों को भी समाज का दर्पण कहा जा सकता है ,जिनमें अपने समय के समाज और मनुष्य की अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों को प्रभावशाली संवादों और गीतों के माध्यम से प्रस्तुत करने की ताकत होती है. लेकिन आज की फिल्मों को देख कर और आज के अधिकाँश फ़िल्मी गानों को सुनकर लगता है कि भारतीय सिनेमा अपनी यह ताकत खो चुका है . अब शायद न तो वैसे निर्माता -निर्देशक हैं ,और न ही वैसे संवाद लेखक ,वैसे गीतकार और वैसे गायक कलाकार , जिनके दिलों में सिनेमा के माध्यम से समाज को कोई बेहतर सन्देश देने की भावना हुआ करती थी .
मिसाल के तौर पर सन 1968 में रिलीज हिन्दी फिल्म 'इज्जत ' का उल्लेख किया जा सकता है . इसमें बतौर नायक धर्मेन्द्र और नायिका जयललिता ने अभिनय किया था ,जी हाँ ,वही जयललिता , जो आज तमिलनाडु की मुख्यमंत्री हैं, उनके साथ बलराज सहानी और तनुजा जैसे कलाकारों ने भी इसमें काम किया था . इस फिल्म में साहिर लुधियानवी का लिखा और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के संगीत से सुसज्जित एक ऐसा गीत भी है ,जिसमें आज के इंसान के दोगले चरित्र को उजागर करते हुए उस पर व्यंग्य प्रहार भी किये गये हैं .उस दिन इंटरनेट पर पुराने हिन्दी फ़िल्मी गानों की खोज करते हुए हाथ लगी एक लंबी सूची में मुझे यह गीत महान पार्श्व गायक मोहम्मद रफी की दिलकश आवाज़ में सुरक्षित मिला, जिसकी हर एक पंक्ति को सुनकर लगता है कि गीतकार ने इसे दिल की जितनी गहराइयों में डूब कर लिखा ,संगीतकार ने भी उतनी ही गहराई में और उसी भावधारा में डूबकर इसमें संगीत की संवेदनाएं घोलीं . तकनीकी कारणों से मैं आपको यह गीत रफी साहब की आवाज़ में तो नहीं सुनवा पाऊंगा , लेकिन यह ज़रूर चाहूँगा कि आप इसे यूं ही पढ़ लें ताकि इसके एक-एक लफ्ज़ में आप मरहूम शायर साहिर लुधियानवी साहब के दिल की धड़कनों को भी महसूस कर सकें -
क्या मिलिए ऐसे लोगों से ,जिनकी फितरत छुपी रहे ,
नकली चेहरा सामने आये ,असली सूरत छुपी रहे !
खुद से भी जो खुद को छुपाएँ ,क्या उनसे पहचान करें ,
क्या उनके दामन से लिपटें, क्या उनका अरमान करें !
जिनकी आधी नीयत उभरे ,आधी नीयत छुपी रहे ,
नकली चेहरा सामने आये ,असली सूरत छुपी रहे !
दिलदारी का ढोंग रचा कर जाल बिछाए बातों का ,
जीते जी का रिश्ता कहकर, सुख ढूंढे कुछ रातों का !
रूह की हसरत सामने आए , जिस्म की हसरत छुपी रहे ,
नकली चेहरा सामने आए ,असली सूरत छुपी रहे !
जिनके ज़ुल्म से दुखी है जनता , हर बस्ती ,हर गाँव में ,
दया - धरम की बात करें वो , बैठ के भरी सभाओं में !
दान का चर्चा घर-घर पहुंचे , लूट की दौलत छुपी रहे ,
नकली चेहरा सामने आए , असली सूरत छुपी रहे !
देखें,इन नकली चेहरों की कब तक जय-जयकार चले ,
उजले कपड़ों की तह में , कब तक काला संसार चले !
कब तक लोगों की नज़रों से छुपी हकीकत छुपी रहे ,
नकली चेहरा सामने आए , असली सूरत छुपी रहे !
दोस्तों ! ऐसा कोई फ़िल्मी गीत पिछले चार-पांच वर्षों में भी आपने अगर कहीं सुना हो ,तो याद करके मुझे भी ज़रूर याद दिलाइएगा ! क्या आपने कभी गंभीरता से सोचा है कि ऐसे फ़िल्मी गाने आज हमारे समाज से , हमारे जेहन से और हमारी ज़ुबान से आखिर कहाँ और क्यों गायब होते जा रहे हैं ?
अब होने भी दीजिए गायब , क्योंकि समाज के जिन नकली चेहरों और असली सूरतों की चर्चा इस गाने में है, वही लोग तो आज इस देश और समाज के कर्णधार बने हुए हैं . उन्हें ऐसे गानों से तकलीफ होती होगी. इसलिए ऐसे व्यंग्य प्रहार वाले गाने जितनी जल्दी चलन से बाहर हो जाएँ उनके लिए उतना ही अच्छा . इससे उनका लम्बा -चौड़ा काला कारोबार , विशाल आर्थिक साम्राज्य और उनके ऊंचे-ऊंचे महल सुरक्षित तो रहेंगे ! इसी में उनकी भलाई है !
- स्वराज्य करुण
बहुत उम्दा प्रस्तुति!
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