आज सुबह के अखबारों में छपे एक समाचार के अनुसार देश की सबसे बड़ी अदालत ने दवाइयों की बढ़ती कीमतों पर चिन्ता व्यक्त की है और केन्द्र सरकार से कहा है कि आसमान छू रही इनकी कीमतों को देखते हुए इनमें और ज्यादा वृद्धि नहीं की जानी चाहिए . सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति जी. एस .सिंघवी और न्यायमूर्ति एस जे. मुखोपाध्याय की खंडपीठ ने केन्द्र सरकार की प्रस्तावित औषधि मूल्य निर्धारण नीति को चुनौती देने वाली एक याचिका की सुनवाई के दौरान केन्द्र को यह सलाह दी .
सर्वोच्च अदालत ने कहा कि केन्द्र सरकार की नई औषधि नीति आने के बाद भारत में दवाओं की कीमतों में वृद्धि की आशंका व्यक्त की जा रही है .इसलिए सरकार यह सुनिश्चित करे कि इनके दाम अब और ज्यादा न बढ़े .यह याचिका समाजसेवी संगठनों के एक समूह - ऑल इंडिया ड्रग एक्शन नेट वर्क द्वारा दायर की गयी है . खंडपीठ ने सुनवाई करते हुए कहा कि दवाइयों की कीमतें पहले से ही बहुत ज्यादा है और इसे अब और ज्यादा नहीं बढाया जाना चाहिए . सुप्रीम कोर्ट का यह सुझाव स्वागत योग्य है ,जिसे दिशा -निर्देश के रूप में देखा जाना चाहिए .
अब यह तो समय ही बताएगा कि जन-हित की दृष्टि से देश की सर्वोच्च अदालत की इस महत्वपूर्ण सलाह को कितनी गंभीरता से लिया जाएगा . मेरे विचार से अदालत में एक याचिका यह भी दायर होनी चाहिए ,जिसमें दवाइयों पर प्रिंट रेट के साथ-साथ उनकी निर्माण लागत भी अनिवार्य रूप से अंकित करवाने की मांग की जाए ,ताकि जनता को यह मालूम हो सके कि लागत मूल्य और विक्रय मूल्य के बीच कितना मुनाफ़ा लिया जा रहा है ! अगर ऐसा हुआ तो उत्पादन लागत और विक्रय मूल्य के बीच एक संतुलन रखना ज़रूरी हो जाएगा .मुझे लगता है कि तब दवाइयों की कीमतें वर्तमान के मुकाबले कम से कम पचास प्रतिशत कम हो जाएँगी .
आज तो मेडिकल मार्केट में एक ही बीमारी की अलग-अलग दवाइयां अलग-अलग नामों से और अलग-अलग मनमानी कीमतों पर बिक रही हैं . प्रिंट रेट छापकर निर्माता शाबाशी बटोरने की कोशिश करते हैं जबकि लागत मूल्य को छिपाकर रखते हैं .इनके लागत मूल्य और विक्रय मूल्य में भारी अंतर होने के कारण ही आज दवाइयों के कारोबार में निर्माता से लेकर डॉक्टर और मेडिकल स्टोर वाले भारी मुनाफ़ा लूट रहे हैं . मेडिकल मार्केट के ये तमाम मालिक मालामाल हो रहे हैं ,जबकि मरीज़ और उसके घर के लोग कंगाल होते जा रहे हैं . मेरे ख़याल से दवाइयों के साथ-साथ दूसरी ज़रूरी उपभोक्ता वस्तुओं के लागत मूल्य जानने के लिए भी अदालतों में जन-हित याचिका दायर की जा सकती है,क्योंकि इनमें से अधिकाँश के दाम भी सरकारी नियंत्रण से बाहर हैं . जनता को राहत दिलाने के लिए वकील चाहें तो इस दिशा में कानूनी पहल कर सकते हैं .अदालतों से यह अनुरोध किया जा सकता है कि वह उत्पादकों अथवा निर्माताओं को आदेश दे कि फैक्टरियों में बनने वाली प्रत्येक वस्तु पर विक्रय मूल्य के साथ लागत भी अनिवार्य रूप से मुद्रित किया जाए . हर जिले में उपभोक्ता अदालत (उपभोक्ता फोरम ) है .शुरुआत वहाँ से भी हो सकती है. वकील बेहतर बता सकते हैं .
हर नागरिक किसी न किसी रूप में एक उपभोक्ता है और बाज़ार में हर कोई एक ग्राहक की भूमिका में भी होता है .चाहे वह दुकानदार ही क्यों न हो ! इसलिए प्रत्येक ग्राहक को बाज़ार की हर उस वस्तु के विक्रय मूल्य के साथ लागत मूल्य भी जानने का अधिकार होना चाहिए ,जिसे वह इस्तेमाल के लिए खरीदता है .
-- स्वराज्य करुण
सही है ..ग्राहकों को सारी जानकारी दी ही जानी चाहिए
ReplyDeleteरेखा जी की बात से सहमत हूँ। विचारणीय आलेख समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
ReplyDeleteविचारणीय आलेख
ReplyDeletesaadar....
आप की पोस्ट ब्लोगर्स मीट वीकली (१८) के मंच पर शामिल की गई है/.आप आइये और अपने विचारों से हमें अवगत करिए /आप हिंदी की सेवा इसी तरह करते रहें यही कामना है /आपका
ReplyDeleteब्लोगर्स मीट वीकली के मंच पर स्वागत है /आइये /आभार /
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सामयिक एवं सटीक लेख !!
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