परीक्षाओं में मुन्ना भाईयों द्वारा नकल किए जाने की खबरें अक्सर अखबारों में देखने-पढ़ने को मिल जाती है. चिन्ता की बात यह है कि अब ये मुन्ना भाई पत्रकारिता में भी घुसपैठ करने लगे हैं. नकल की बीमारी स्कूल-कॉलेजों की परीक्षाओं से शुरू हो कर पत्रकारिता में भी प्रवेश करती जा रही है. यह तो जग ज़ाहिर है कि किसी भी अखबार का सम्पादकीय उस अखबार के विचारों का , उसकी रीति-नीति का आईना होता है. यह भी ज़ाहिर है कि वह सम्पादक की अपनी कलम से लिखा जाना चाहिए और अधिकाँश अख़बारों में लिखा भी जाता है . कुछ अखबारों की पहचान तो उनके सम्पादकीय यानी अग्रलेखों के कारण होती है ,लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि कुछ अखबारों में सम्पादकीय तक दूसरे अखबारों से नकल उतार कर चोरी-चोरी चुपके-चुपके चिपकाया जा रहा है . आप स्वयं देख लीजिए --
यह भी देखने में आ रहा है कि किसी एक अखबार में किसी लेखक के नाम से छपा कोई आलेख दूसरे अखबार में सम्पादकीय कॉलम में अग्रलेख के रूप में छप रहा है ,जिसमे ज़ाहिर है कि लेखक का नाम छपने से रहा ,क्योंकि वह तो सम्पादक का लिखा माना जाएगा . मैंने कल ग्यारह तारीख को हिन्दी के एक अखबार में 'शिक्षा की राह में मनुवादी रोड़े ' शीर्षक से प्रकाशित श्री ओ.पी सोनिक का लेख पढ़ा .मुझे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि यह लेख उसी शीर्षक से शब्दशः दो अन्य दैनिकों में सम्पादकीय के रूप में छपा है .इसी तरह हरिद्वार में गायत्री शक्तिपीठ के धार्मिक आयोजन में भगदड़ से हुए हादसे के बारे में 'इस आस्था का क्या करें ' शीर्षक से कल एक ही सम्पादकीय कई अखबारों में एक साथ जस का तस छपा है.अगर कोई इस बारे में भारत के समाचार पत्रों के पंजीयक से शिकायत कर दे ,तो जांच में यह नकल चोरी आसानी से साबित हो जाएगी .तब ऐसे अखबारों का पंजीयन भी निरस्त हो सकता है .सरकारी विज्ञापन भी बंद हो सकते हैं, क्योंकि केन्द्र सहित अनेक राज्य सरकारों की विज्ञापन नीति में कहा गया है कि अखबारों का प्रकाशन आल्टर पद्धति से नहीं किया जाना चाहिए ,लेकिन सवाल ये है कि बिल्ली के गले में कौन बंधे घंटी और कौन झंझट में पड़े ? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि भाई लोगों को अगर सम्पादकीय लिखना नहीं आता, तो काहे सम्पादक बने बैठे हैं ? जीवन-यापन के लिए कोई दूसरा आमदनी मूलक काम क्यों नहीं करते ? . चाहें तो करने के लिए हज़ारों काम हैं . पत्रकारिता जैसे बौद्धिक पेशे को तो बख्श दें , लेकिन आज के माहौल में आसानी से पैसा और पहुँच बनाने का कोई तो ऐसा आकर्षण है ,जो उन्हें मुन्नाभाई बना कर इस पवित्र पेशे में खींचकर ले आया है. आज-कल इंटरनेट का जमाना है .उस पर आधारित वेबसाईटों और ब्लॉगों में सैकड़ों -हजारों लेखक कुछ न कुछ नियमित रूप से लिखते रहते हैं अगर पासवर्ड जैसी कोई तकनीकी सुरक्षा नहीं ली गयी है , तो किसी भी लेखक की कौन सी सामग्री कहाँ किस रूप में उसके नाम के बिना भी छप रही है , पता लगाना बहुत मुश्किल है
कई छोटे अखबारों के लिए तो वेबसाईट और ब्लॉग-जगत मानो मुफ्त का खजाना बन गए हैं .डाउनलोड करो और फिर सम्पादकीय कॉलम में कॉपी-पेस्ट कर दो . सामान्य पाठक यह समझेगा कि सम्पादक महोदय ने क्या खूब लिखा है !जबकि ऐसे स्वनामधन्य सम्पादकों का तो लेखन से दूर -दूर तक कोई नाता-रिश्ता होता ही नहीं .कई बड़े अखबारों की वेबसाईटों से भी इस प्रकार के कुछ अखबार सम्पादकीय चोरी करके छापते देखे गये हैं . इन दिनों कई अखबारों में आलेख तो कई प्रकार के छपते रहते हैं ,लेकिन दुःख और अचरज की बात है कि उनमें लेखकों का नाम तक नहीं दिया जाता . ये आलेख भी इंटरनेट से डाउनलोड कर कॉपी-पेस्ट किए जाते हैं .ब्लॉग-लेखकों को सावधान हो जाना चाहिए .
उपरोक्त कतरनों पर चटका लगाकर आप इन प्रतिभावान सम्पादकों की कलम का कमाल देख सकते हैं . मेरी तरह शायद आप भी सोचने लगेंगे कि इन महान सम्पादकों के विचार और शब्द न केवल मिलते-जुलते हैं, बल्कि एकदम एक समान हैं . कहीं ये लोग जुड़वां भाई या जुड़वां बहन तो नहीं ? कुछ लिहाज करते हुए यहाँ इन अखबारों नाम नहीं दिए जा रहे हैं ,लेकिन पत्रकारिता के नाम पर बौद्धिक सम्पदा की चोरी का यह सिलसिला अगर नहीं थमा तो उनके नामों का उल्लेख करते हुए अभिनन्दन-पत्र लिखने का सिलसिला शुरू किया जाएगा . ब्लॉग-लेखकों से भी मेरा आग्रह है कि वे ऐसे अखबारों पर बारीकी से निगाह रखें और देखें कि उनके मौलिक आलेखों को उनके नाम के बिना , किसी अखबार के सम्पादकीय के रूप में तो नहीं छापा जा रहा है ?
- स्वराज्य करुण
स्वराज्य , जब बाज़ार में तैयार मॉल उपलब्ध
ReplyDeleteहो तो व्यर्थ में अपनी बुद्धी , समय और श्रम
क्यों जाया किया जाय
आपकी सजगता और ऐसे दुहराव को रेखांकित करना उल्लेखनीय है.
ReplyDeleteआपसे जब मुलाकात हुयी थी तब भी आपने ऐसे ही कुछ अखबार दिखाये थे बिना केस ठोके उद्धार नही दिखता। नाम लिख कर साभार छापते भी हैं तो सूचना तक नही देते पाबला जी की नजर पड़ गयी तो ठीक वरना आदमी को मालूम ही न हो। छापा भी तो लेख का सत्यानाश कर देते हैं
ReplyDeleteहद हो गई करुण जी , आपके चक्कर में रह गये तो डिक्शनरी से कट पेस्ट शब्द ही हटाना पड़ जायेंगे :)
ReplyDeleteसच में पहली दफा ये हरकते मेरे सामने आई हैं। निंदनीय
ReplyDeleteकितना लिखें, कितना घिसें कट-पेस्ट ज़माना है.
ReplyDeleteमुना भाई का वर्चश्व है
ReplyDeleteब्लॉगिंग में तो ऐसी घटनायें देखी हैं पर पत्रकारिता में भी ऐसे लोग पहुँच गये, यह आश्चर्य की बात है।
ReplyDeleteमाल-ए-मुफ़्त दिले बेरहम,
ReplyDeleteविज्ञापन क्यों कापी पेस्ट नहीं किए जाते :)
ये अखबार वाले बहुत निचे गिर गए हैं..चैनलों के प्रसारण को देखकर और समाचार पत्रों को देखकर तो यही लगता है, समाचार से ज्यादा प्रचार पर चलने वाले और समाचर से ज्यादा प्रचार के डिजाइन में म्हणत लगा देने के कारण इनकी वैचारिक शक्ति क्षीण हो गयी है|
ReplyDeleteसाधुवाद आपके प्रयासों के लिए|